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___ "द्रौपदी को पांच पति का नियाणा था। सो नियाणा पूरा होने से पहिले द्रौपदी ने पूजा की है। इस वास्ते मिथ्यादृष्टित्व में पूजा की है" ऐसे जेठमल ने लिखा है । उस का उत्तर - श्रीदशाश्रुतस्कंध में नव प्रकार के नियाणे कहे हैं, उन में प्रथम के सात नियाणे कामभोग के हैं । सो उत्कृष्ट रस से नियाणा किया हो तो सम्यक्त्वप्राप्ति न होवे, और मंद रस से नियाणा किया हो तो सम्यक्त्व की प्राप्ति हो जावे, जैसे कृष्णवासुदेव नियाणा कर के हुए हैं उन को भी सम्यक्त्व की प्राप्ति हुई है । यदि कहोगे कि "वासुदेव की पदवी प्राप्त होने पर नियाणा पूरा हो गया इस वास्ते वासुदेवकी पदवी प्राप्त हुए पीछे सम्यक्त्व की प्राप्ति हुई है। वैसे द्रौपदी को भी पांच पति की प्राप्ति से नियाणा पूरा हो गया । पीछे विवाह (पाणिग्रहण) होने के पीछे द्रौपदी ने सम्यक्त्व की प्राप्ति की" तो सो असत्य है; क्योंकि नियाणा तो सारे भव तक पहंचता है। श्रीदशाश्रुतस्कंध में ही नवमा नियाणा दीक्षा का कहा है। सो दीक्षा लेने से नियाणा पूरा हो गया ऐसे होवे तो उस ही भव में केवलज्ञान होना चाहिये । परंतु नियाणे वाले को केवलज्ञान होने की शास्त्रकारने ना कही है। इस वास्ते नियाणा भव पूरा होवे वहां तक पहुंचे ऐसे समझना और मंद रस से नियाणा किया हो तो सम्यक्त्व आदि गुण प्राप्त हो सकते हैं। एक केवलज्ञान प्राप्त न हो, ऐसे कहा है । तो द्रौपदी का नियाणा मंद रस से ही इस वास्ते बाल्यावस्था में सम्यक्त्व पाना संभव है।
जैसे श्रीकृष्णजीने पूर्व भव में नियाणा किया था तो वासुदेव की पदवी सारे भव | पर्यंत भोगे बिना छुटकारा नहीं, परंतु सम्यक्त्व को बाधा नहीं। वैसे ही द्रौपदी ने पांच पति का नियाणा किया था । उससे पांच पति होए बिना छुटकारा नहीं, परंतु सो नियाणा सम्यक्त्व को बाधा नहीं करता है।
इस प्रसंग में जेठमल ने नियाणेके दो प्रकार (१) द्रव्यप्रत्यय, (२) भवप्रत्यय कहै हैं सो झूठ है, क्योंकि दशाश्रुतस्कंधसूत्र में ऐसा कथन नहीं है । दशाश्रुतस्कंध के नियाणे मुताबिक तो द्रौपदी को सारे जन्म में केवली प्ररूपित धर्म भी सुनना न चाहिये
और द्रौपदी ने तो संयम लिया है। इस वास्ते द्रौपदी का नियाणा धर्म का घातक नहीं था । और चक्रवर्ती तथा वासुदेव को भवप्रत्यय नियाणा जेठमल ने कहा है । और जब तक नियाणे का उदय हो तब तक सम्यक्त्व की प्राप्ति न हो ऐसे भी कहा है। तो कृष्ण वासुदेव को सम्यक्त्व की प्राप्ति कैसे हुई सो जरा विचार कर देखो ! इस से सिद्ध होता है कि जेठमल का लिखना स्वकपोलकल्पित है। यदि आम्नाय बिना और गुरुगम बिना केवल सूत्राक्षर मात्र को ही देख के ऐसे अर्थ करोगे तो इसी दशाश्रुतस्कंध में उस स्थान के महामोहनी कर्म बांधे ऐसे कहा है । और महामोहनी कर्म की उत्कृष्ट स्थिति (७०) कोटा कोटी सागरोपम की है । तो परदेशी राजा ने घने पंचेद्री जीवों की हिंसा की, ऐसे श्रीरायपसेणीसूत्र में कहा है। तो उसको अणुव्रत की प्राप्ति न होनी चाहिये। तथा महामोहनी कर्म बांध के संसार में भटकना चाहिये । परंतु
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