________________
८६
सम्यक्त्वशल्योद्धार
मांगना चाहिये था। परंतु उस ने सो तो मांगा ही नहीं है । उस ने तो शक्रस्तवन पढा है जिस में" तिन्नाणं तारयाणं" अर्थात् आप तरे हो मुझ को तारो इत्यादि पदों से शुद्ध भावना से मोक्ष मांगा है; परंतु जैसे मिथ्यात्वी योग्य पति पाऊंगी, तो तुम आगे याग भोग करूंगी इत्यादि स्तुति में कहती हैं, वैसे उस ने नहीं कहा है । इस वास्ते फक्त अपने कुमत को स्थापन करने वास्ते ऐसी सम्यग्दृष्टिनी श्राविका के शिर खोटा कलंक चढाते हो । सो तुम को संसार बढाने का हेतु हैं । और इस तरह महासती द्रौपदी के शिर अणहोया कलंक चढाने से तथा उस सम्यक्त्ववती श्राविका के अवर्णवाद बोलने से तुम बडे भारी दुःख के भागा होगे। जैसे उस महासती द्रौपदी को अति दुःख दिया । भरी सभा के बीच निर्लज्ज हो के उस की लजा लेने की मनसा की, इत्यादि अनेक प्रकार का उस के ऊपर जुलम किया। जिस से कौरवों का सहकुटुंब नाश हुआ। कैयाक्चिक भी उस मुताबिक करने से अपने एक सो भाईयों के मृत्यु का हेतु हुआ। पद्योत्तर राजा ने उस को कुदृष्टि से हरण किया। जिस से आखिर उस को उस की शरण जाना पड़ा। और तब ही वह बंधन से मुक्त हुआ । वैसे तुम भी उस महासती के अवर्णवाद बोलने से इस भव में तो जैनबाह्य हुए हो, इतना ही नहीं परंतु परभव में अनंत भव रूलने रूप शिक्षा के पात्र होंगे इस में कुछ ही संदेह नहीं है। इस वास्ते कुछ समझो और पाप के कुओमें न डूब मरो, किंतु कुमतको त्याग के सुमत को अंगीकार करो। ___ "अरिहंत का संघट्टा स्त्री नहीं करती है तो प्रतिमा का संघट्टा स्त्री कैसे करे" उस का उत्तर-प्रतिमा जो है सो स्थापना रूप है । इस वास्ते उसके स्त्री संघट्टे में कुछ भी दोष नहीं है। क्योंकि वह कोई भाव अरिहंत नहीं है। किंतु अरिहंत की प्रतिमा है । यदि जेठमल स्थापना और भाव दोनों को एक सरीखे ही मानता है तो सूत्रों में सोना, रूपा, स्त्री, नपुंसकादि अनेक वस्तु लिखी हैं। और सूत्रो में जो अक्षर हैं वे सर्व सोना, रूपा स्त्री, नपुंसकादि की स्थापना हैं। इस लिये इन के पढने से तो किसी भी ढूंढक ढूंढकनी का शील महाव्रत रहेगा नहीं। तथा देवलोक की मूर्तियां, और नरक के चित्र, वगैरह दंढकों के साध तथा साध्वी अपने पास रखते हैं। और ढंढकों को प्रतिबोध करने वास्ते दिखाते हैं । उन चित्रों में देवांगनाओं के स्वरूप, शालिभद्र का, धन्नेका तथा उन की स्त्रियों वगैरह के चित्र भी होते हैं; इस वास्ते जैसे उन चित्रों में स्त्री तथा पुरुषत्व की स्थापना है। वैसे ही जिनप्रतिमा भी अरिहंत की स्थापना है, स्थापना को स्त्री का संघट्टा होना न चाहिये। ऐसे जो जेठमल और उसके कुमति ढूंढक मानते हैं तो पूर्वोक्त कार्यों से ढूंढकों के साधु साध्वियों का शीलव्रत (ब्रह्मचर्य) कैसे रहेगा ? सो विचार कर लेना ।
और जेठमल ने लिखा है कि "गौतमादिक मुनि तथा आनंदादिक श्रावक प्रभु से दूर बैठे परंतु प्रभु को स्पर्श करना न पाये" उत्तर-मूर्ख जेठमल इतना भी नहीं समझता कि १ सोहनलाल, गैंडेराय पार्वती, वगैरह की फोटो पंजाब के ढूंढिये अपने पास रखते हैं इससे तो
सोहनलाल पार्वती वगैरह के ब्रह्मचर्य का फक्का भी न रहा होगा ! !
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org