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सम्यक्चशल्योद्धार
|निमित्त द्रव्य निकालने का क्या कारण ?" उत्तर - इस बात का निर्णय प्रथम हम आए हैं, तथा श्रीअनुयोगद्वारसूत्र में कहा है कि "दव्वसुयं जं पत्तय पुत्थय लिहियं" द्रव्यश्रुत सो जो पाने पुस्तक में लिखा हुआ है, इस से सूत्रकार के समय में पुस्तक लिखो हुए सिद्ध होते हैं, तथा तुम्हारे कहे मुताबिक उस समय बिलकुल पुस्तक लिखे हुए थे ही नहीं तो श्रीऋषभदेव स्वामी की सिखलाई अठारह प्रकार की लिपि का व्यवच्छेद हो गया था ऐसे सिद्ध होगा और सो बिलकुल झूठ है, और जो अक्षरज्ञान उस समय हो ही नहीं तो लौकिक व्यवहार कैसे चले ? अरे ढूंढको ! इस से समझो कि उस समय में पुस्तक तो फक्त सूत्र ही लिखे हुए नहीं थे और सो देवढ्ढी गणि क्षमाश्रमण ने लिखे हैं परंतु (९८०) वर्षे पुस्तक लिखे गये हैं । ऐसे तुम्हारे जेठमल ने लिखा है सो किस शास्त्रानुसार लिखा है ? क्योंकि तुम्हारे माने (३२) सूत्रों में तो यह बात है ही नहीं। ४-५मा क्षेत्र साधु और साध्नी इसकी बाबत जेठमल ने लिखना है। कि "साधु के निमित्त द्रव्यनिकाल के उसका आहार, उपधि, उपाश्रय, करावे तो सो साधु को कल्पे नहीं, तो उस निमित्त धन निकालने का क्या कारण ? इस बात पर श्रीदशवैकालिक, आचारांग, निशीथ वगैरह सूत्रों का प्रमाण दिया है" उस का उत्तर - साधुसाध्वी के निमित्त किया आहार, उपधि, उपाश्रय प्रमुख उनको कल्पता नही है, सो बात हम भी मान्य करते हैं: साधु अपने निमित्त बना नहीं लेते हैं और सुज्ञ श्रावक देते भी नहीं है । परंतु श्रावक अपनी शुद्ध कमाई के द्रव्य में से साधु, साध्वी को
पधि वस्त्र पात्र आदि से प्रतिलाभते हैं. परंत साध साध्वी के निमित्त निकाले द्रव्य में से प्रतिलाभते नहीं हैं, और साधु लेते भी नहीं हैं । इन दो क्षेत्र के निमित्त निकाला द्रव्य तो किसी मुनि को महाभारत व्याधि हो गया हो। उस के हटाने वास्ते किसी हकीम आदि को देना पडे, अथवा किसी साधु ने काल किया हो उस में द्रव्य खरचना पडे इत्यादि अनेक कार्यो में खरचा जाता है तथा पूर्वोक्त काम में भी जो धनाढ्य श्रावक होते हैं तो वे अपने पास से ही खरचते हैं, परंतु किसी गाम में शक्ति रहित निर्धन श्रावक रहते हो और वहां ऐसा कार्य आ पडे तो उस में से खरचा जाता है।
६ - ७ मा क्षेत्र श्रावक, और श्राविका इनकी बाबत जेठमल लिखता है कि "पुण्यवान् हो सो खैरात का दान ले नहीं परंतु अकल के बारदान ढूंढक भाई ! समझो
अनुयोगद्धारसूत्र के पाठ की टीका - तृतीयभेद परिज्ञानार्थमाह से किं तमित्यादि अत्र निर्वचनं जाणगसरीर भवियसरीर वइरित्तं दव्वसुतमित्यादि यत्र ज्ञशरीर भव्यशरीरयोः संबंधिअनन्तरोक्तस्वरूपं न घटते तत्ताभ्यां व्यतिरिक्त भिन्नं द्रव्यश्रुतं किं पुनस्तदित्याह पत्तयपुत्थय लिहियंति पत्रकाणि तलताल्यादिसंबंधीनि तत्संघातनिष्पन्नास्तु पुस्तकास्ततश्च पत्रकाणि च पुस्तकाश्च तेषु लिखितं पत्रकपुस्तक लिखितं अथवा पोत्थयंति पोतं वस्त्र पत्रकाणि च पोतंच तेषु लिखितं पत्रकपोत लिखितं ज्ञशरीर भव्यशरीर व्यतिरिक्तं द्रव्यश्रुतं अत्र च पत्रकादि लिखितश्रुतस्य भावश्रुत कारणत्वात् द्रव्यत्वमवसेयमिति ।।
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