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श्रीसंवेगरंगशाला
मंगलाचरण जे निव्वाणगया विहु नेहदसावज्जिया वि दिप्पंति । ते अपुव्वपईवा जयन्ति सिद्धा जय पसिद्धा ।।५।।
अर्थात् निर्वाण हुए और स्नेहदशा से रहित अपूर्व दीपक के सदृश, जगत प्रसिद्ध श्री सिद्ध परमात्मा विजयी हैं। यहाँ दीपक के पक्ष में निर्वाण हुए अर्थात् बुझे हुए और स्नेह-तेल तथा दशा-बत्ती ऐसा अर्थ करना, परंतु सिद्ध परमात्मा ऐसे नहीं हैं वे तो तेल और बत्ती के बिना ही प्रकाश के पुंज रूप हैं इसलिए वे अपूर्व दीपक समान हैं।
हजारों अतिशयरूपी सुन्दर सुगन्धी से खुशबू फैलाते श्री जिनेश्वर के मुखरूपी सरोवर से प्रकट हुआ श्रुतरूपी कमल का मूल, नाल आदि के समान जो पाँच प्रकार के आचार का हमेशा पालन करने वाले और उसीका उपदेश देने वाले ऐसे गुण समूह के धारक श्री गौतमस्वामी आदि जो गणधर (आचार्य) हैं उनको मैं नमस्कार करता हूँ।
सतत सूत्र के दान से आनंदित बनें मुनिवर रूपी भ्रमरों से घिरे हुए और नित्य चारित्र गुण से श्रेष्ठ हाथी के समान श्री उपाध्याय भगवंतों को मैं नमस्कार करता हूँ। इस श्लोक में श्री उपाध्याय भगवंत को हाथी से तुलना की है. उनके पास हाथी समान ज्ञानरूपी महाकाया है. चरण गणरूपी चाल-गति है. ज्ञान न दानरूपी मद झरता है, वहाँ मुनि रूपी भौंरों का समूह मदरूपी ज्ञान दान लेने के लिए स्वाध्याय का श्रेष्ठ संगीत गाते हैं।
जो करुणा रस से परिपूर्ण हृदयवाले, धर्म में उद्यमी जीव की सहायता करने वाले और दुर्जय कामदेव को जीतनेवाले तथा तपोनिधान रूप तपस्वी मुनिवर्य हैं। उनको मैं नमन करता हूँ।
गुणरूपी राजा की राजधानी के समान श्री सर्वज्ञ परमात्मा की महावाणी को मैं नमस्कार करता हूँ कि जो वाणी संसाररूपी भयंकर कुएँ में गिरते हुए प्राणियों के उद्धार के लिए निष्पाप रस्सी के समान है।
वह उत्तम प्रवचन (वाणी) विजयी है कि उन्मार्ग में जाते हुए बैल तीक्ष्ण परोण को देखकर जैसे वह सन्मार्ग में चलता है वैसे प्राणी प्रेरक प्रवचन को प्राप्तकर संसार मार्ग को छोड़कर मोक्ष मार्ग स्वीकार करता है।
जो तो चिन्ता (ज्ञान) रूपी रहट को तैयार कर धर्म तथा शक्ल दो शभ ध्यान रूपी बैलों की जोडी द्वारा आराधना रूपी घडों की माला से आराधक जीव रूपी पानी को जो संसार रूपी कएँ में से खींचकर उच्चे स्थान (स्वर्ग या मोक्ष) में पहुँचाते हैं उन रहट तुल्य निर्यामक गुरु भगवंतों को तथा मुनिराजों को सविशेष नमस्कार करता हूँ।
सद्गति की प्राप्ति के लिए मूल आधारभूत इस (ग्रंथ में जो परिकर्म विधि आदि कही जायगी) चार प्रकार की स्कंध वाली आराधना को जो प्राप्त हो गये हैं उन मुनियों को मैं वंदन करता हूँ और ऐसे गृहस्थों का अभिनन्दन (प्रशंसा) करता हूँ।
वह आराधना भगवती जगत में हमेशा विजयी रहे कि जिसको दृढ़तापूर्वक लगे हुए भव्य प्राणि 'नाव में बैठकर समुद्र पार करते हैं वैसे भयंकर भव समुद्र को पार उतर सकते हैं।' अतः संसार से पार उतरने के लिए आराधना नाव समान है।
अब श्रुतदेवी की स्तुति करते हैं। हे श्रुतदेवी! नित्य विजयी हो कि जिसके प्रभाव से मंद बुद्धि वाले भी कवि अपने इष्ट अर्थ को प्राप्त करने में समर्थ बन जाते हैं। 1. १. परिकर्म विधि, २. परगण में संक्रमण, ३. ममत्व उच्छेद, ४. समाधिलाभ ये चार स्कंध हैं। 2. इस ग्रंथ के रचना काल के समय में (वीर निर्वाण १०५५ के बाद) श्रुतदेवी देव योनि की देवी है ऐसी मान्यता प्रारंभ हो गयी थी। अतः जिनवाणी की पूर्व में स्तुति कर पुनः श्रुतदेवी की स्तुति की है।
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