Book Title: Sammaisuttam Author(s): Siddhasen Divakarsuri, Devendra Kumar Jain Publisher: Bharatiya Gyanpith View full book textPage 8
________________ प्रस्तावना विक्रम की छठी शताब्दी के तृतीय चरण और सातवीं शताब्दी के तृतीय चरण का मध्यवर्ती काल निर्धारित किया गया समुचित ही प्रतीत होता है। इसका अर्थ यह है कि कम-से-कम विक्रम की छठी शताब्दी में और अधिक-से-अधिक सातवीं शताब्दी में अर्थात् वि. सं. 562-66 के मध्य ग्रन्थकार जीवित रहे होंगे। पं. सुखलालजी सिद्धसेन के समय के सम्बन्ध में निश्चित मत नहीं रखते। इसलिए वे उन्हें कभी पाँचवीं विक्रम शती का बताते हैं और कभी सातवीं शताब्दी का प्रो. जोहरापुरकर उनका समय ईसा की छठी शताब्दी या उससे कुछ पहले मानते हैं। यह भी ज्ञातव्य है कि आचार्य पूज्यपाद देवनन्दी (विक्रम की छठी शताब्दी) ने 'जैनेन्द्र व्याकरण (वेत्ते सिद्धसेनस्य, 5. 1. 7) कह कर सिद्धसेन का उल्लेख किया है और उन्हीं सिद्धसेन की द्वात्रिंशिका का एक पद्म ( 3. 16) अपनी सर्वार्थसिद्धि टीका (7. 18) में उद्धृत किया है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि आ. पूज्यपाद, जिनभद्र क्षमाश्रमण, जिनदासगणि, हरिभद्रसूरि विद्यानन्द तथा आ. अकलंकदेव के पूर्व छठी शताब्दी में आ. सिद्धसेन विद्यमान उनका भावना तहये। ! 11 'सन्मतिसूत्र' ग्रन्थ-रचना के स्रोत आचार्य सिद्धसेन के पूर्व आचार्य गुणधर, आ. कुन्दकुन्द और उमास्वामी सूत्रात्मक शैली- विज्ञान का प्रवर्तन अपनी रचनाओं में कर चुके थे। ज्ञात आचार्यों की परम्परा में आचार्य गुणधर सूत्रों के प्रवर्तक थे। वास्तव में यह परम्परा आचार्य धरसेन से भलीभाँति पल्लवित हुई थी, किन्तु उनके समय तक यह मौखिक ही थी । उन सबका प्रभाव स्पष्ट रूप से 'सन्मतिसूत्र' पर लक्षित होता है। ग्रन्थ में इसका विशदता से प्रतिपादन किया गया है कि अनेकान्त का मूल नब और प्रमाण है जो केवली भगवन्तों से श्रुतकेवलियों को और उनसे आचार्यों को उपलब्ध श्रुत-परम्परा रूप से क्रमागत निवद्ध है। पं. सुखलालजी और बेचरदासजी के विचार हैं कि आ. कुन्दकुन्द ने अपने प्रवचनसार' में द्रव्य का विवेचन और आ. सिद्धसेन ने 'सन्मतिसूत्र' के तृतीय काण्ड में ज्ञेय की जो व्याख्या की हैं, वह अनेकान्त दृष्टि पर आधारित है। आचार्य कुन्दकुन्द ने 'पंचास्तिकाय' (गा. 15 ) में 'भाव' शब्द का प्रयोग 'पदार्थ' के लिए किया है। 'सन्मतिसूत्र' में भी 'पदार्थ' के अर्थ में 'भाव' शब्द का प्रयोग हमें कई स्थानों पर दृष्टिगोचर होता है। 'पंचास्तिकाय' की बारहवीं गाथा 1. मुख्तार, पं. जुगलकिशोर पुरातन जैनवाक्य सूची, प्रथम विभाग, दिल्ली, 1950, पृ. 157 2. संघवो, सुखलाल और वरदास दोशी सन्मतितर्क, अंग्रेजी प्रस्तावना, शम्बई, 1959, पृ. 16 3. भारतीय विद्या शोधपत्रिका, अंक 3, पृ. 152 4. जोहरापुरकर, विद्याधर विश्वतस्य प्रकाश, सोलापुर, 1964, परिचय, पृ. 41 5. “दो अंगपुष्वाणमेगदेलो देव आइरिय-परम्पराए आगंतूण गुणहराइरियं संपत्ती ।" 6. "तदो सच्चेसिभंग - पुत्र्यागमेदेसी आइरिस परम्पराए- आगच्छ्याणां धरसेणाइरियं संपत्तो ।" - धवला, 1, 1, 67-68 ५. संघवी, सुखलाल और बेचरदास दोशी सन्मतितर्क की अंग्रेजी प्रस्तावना, बम्बई, 1999, पृ. 59 =Page Navigation
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