Book Title: Sambodhi 2005 Vol 28
Author(s): Jitendra B Shah, K M Patel
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 77
________________ Vol.xxVIII, 2005 पुराणों की प्रासंगिकता वरं मौनं कार्यं न च वचनमुक्तं यदनृतम् अन्याय छलकपट एवं चोरी से परायी वस्तु का अपहरण करना स्तेय है। इसके वशीभूत हुआ मानव लोभ में फंसकर अनेकों अनैतिक कृत्यों की ओर प्रेरित होता है। दुष्कृत्यों के पंक से मलिन हुयी बुद्धि भ्रान्तिमयी हो जाती है । इस दुर्गुण का न होना ही अस्तेय है ।१७ चोरी के कृत्य में लगा हुआ व्यक्ति सदैव भय का अनुभव करता है । संताप एवं लज्जा से स्वयं को धिक्कारता हुआ कष्टमय अनुभूति में ही जीता है। मृत्य के बाद उसे तिर्यक योनि प्राप्त होती है ।५८ स्कन्धपुराण के द्वितीय खण्ड में वर्णित है -- परस्वहरणचौर्य सर्वदा सर्वमानुषैः चातुर्मास्ये विशेोषेण ब्रह्मदेवास्ववर्जनम् ।१९ अतः मनुष्य को पराये धन का अपहरण छिपकर अथवा भूल से भी नहीं करना चाहिये । मन, वचन एवं कर्म से पराये धन से दूर रहना अस्तेय का पोषक है । यह धर्म का ही एक अंग है -- परस्व नैव हर्तव्यं पराजाया तथैव च, मनोभिर्वचनैः कार्यमन एवं प्रकारयेत् । जब व्यक्ति अपने चंचल मन और इन्द्रियों को वश में करके लोभ मोह से दूर रहकर अस्तेय का तत्परता से पालन करता है तब ही वास्तविक सुख और शान्ति को प्राप्त करता है । जीवन का यथार्थ यही है कि जब हम किसी वस्तु अथवा व्यक्ति से बहुत अधिक मोह करते हैं तब प्रत्येक पल उसके नाश की आशंका में विचलित रहते हैं परिणाम स्वरूप हमारा स्वाभाविक विकास अवरुद्ध होता है। अतः बदलते हुये परिवेश में जहाँ मनुष्य की अनन्त इच्छाएँ और अन्तहीन प्रतिस्पर्धाएँ उसके व्यक्तित्व को बौना रही हैं पुराणों का निर्लिप्त भोग योगपथ - प्रदर्शक बन सकता है। · · पुराणों में अनेक स्थलों पर संचय की प्रवृत्ति का विरोध किया गया है । श्रीमद्भागवत पुराण में कहा है कि यति को चाहिये कि मधुमक्षिका की भाँति कर और उदर को ही पात्र बनाये । भिक्षा को सांयकाल अथवा दूसरे दिन के लिये संचय करके न रखे क्योंकि विपरीत स्थिति में जैसे संचित मधु के साथ मक्षिका नष्ट हो जाती है उसी प्रकार यति भी संगृहीत पदार्थ के साथ नष्ट हो जाता है : सायत्तनं श्वस्तनं वा न सगृहीत भिक्षितम् पाणि पात्रोदरामत्रो मक्षिकेव न संगृही । सायन्तनं श्वस्तनं वा न संगृहीत भिक्षुकः मक्षिका इव संगृहन्सह तेन विनश्यति । वस्तुतः ब्राह्मण जैसे जैसे अपरिग्रह की वृत्ति की ओर बढ़ता है वैसे-वैसे उसका ब्रह्मतेज बढ़ता है। वास्तविक अपरिग्रही वही है जो आपत्ति के समय भी निर्लिप्त भाव से जीवनयापन करता है और द्रव्यों का ग्रहण नही करता ।२३ अतः हितात्मा के अकिंचनत्व तथा राजा के विशाल वैभव को एक साथ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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