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जैन एवं गाँधी आचार दर्शन का तुलनात्मक अध्ययन
त्रिभुवन नाथ त्रिपाठी
'गाँधी' नाम सुनते ही मन-मस्तिष्क में एक कृशकाय, कंकाल परिलक्षित शरीर के, दण्ड धारण किये व्यक्ति का चित्र उभरता है, जिनको आज का समाज राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी के नाम से जानता है । इसी कृशकाय शरीर में दधीचि की हड्डियों का अदम्य साहस भरा था जिसके बल पर महात्मा ने 'सत्य एवं अहिंसा' के मार्ग पर चलते हुए युयुत्क्षु, भायावर, दुर्दम्य आंगल शासकों को स्वयं के समक्ष घुटने टेकने पर विवश कर दिया और पराधीन भारतवासियों को स्वाधीनता का मीठा फल चखाया ।
'सत्य' एवं अहिंसा' का प्रयोग महात्मा गाँधी ने अध्यात्म या चिन्तन के रूप में ही नहीं किया, अपितु इनका समुचित व्यावहारिक प्रयोग नित्य 'आचार' का विषय है।' यह निवृत्ति का दर्शन है, जिसको तपपूर्वक आचार के द्वारा सिद्ध किया जाता है। गाँधी दर्शन का मुख्य केन्द्र बिन्दु 'सत्य एवं अहिंसा' ही है जिसमें महात्मा गाँधी ने 'सत्य' को ईश्वर तुल्य बताकर आध्यात्मिक स्तर प्रदान कर दिया तथा अहिंसा को सत्यप्राप्ति का मार्ग बतलाया । इस रूप में सत्य 'साध्य' है तथा अहिंसा 'साधन' |
भारतीय धर्म एवं दर्शन वाङ्मय में जैन धर्म एवं दर्शन 'निवृत्तिमार्गी' दर्शन के रूप में विख्यात है । निवृत्ति का अर्थ है भोग एवं तृष्णा से निवृत्ति । जैनियों के अनुसार जब मनुष्य सुख भोग से विरक्त होकर निवृत्तिमार्ग पर अग्रसर होता है तो साधक को परम शान्ति का मार्ग प्रशस्त होता है । जैनियों का प्रमुख लक्ष्य 'कैवल्य' है जिसमें समस्त शुभाशुभ कर्मों का नाश हो जाता है । परन्तु कैवल्य - प्राप्ति के लिए साधक को कठिन निवृत्ति-मार्ग का अनुसरण आवश्यक है । यह निवृत्ति-मार्ग अनुसरण ही जैन 'आचार - मीमांसा' के रूप में जाना जाता है । कैवल्य आत्मोत्थान है, आत्मोत्थान के लिए आत्मबल अतिप्रबल होना आवश्यक है, अतः चित्तशुद्धि के लिए कठिन जैन- आचार का विधान किया गया । यही प्रयोग महात्मा गाँधी ने अपने सिद्धान्तों के लिए किया । उनके अनुसार संसार बन्धन का कारण है और मनुष्योत्थान ही जीवन का परम लक्ष्य है, किन्तु विशुद्ध-चित्त के बिना मनुष्य का कल्याण नहीं हो सकता, भोग-विलास, काम-क्रोध मुक्ति के बाधक तत्त्व हैं और इनसे मुक्ति तभी सम्भव है जब चित्त कठिन अनुशासन में सिद्ध हो । अतः आत्मबल को प्रबल करने के लिए एवं मनुष्यता के कल्याण के लिए महात्मा ने सत्य, अहिंसा, अपरिग्रह, ब्रह्मचर्य, अस्तेय, अभय इत्यादि व्रतों का परिपालन करने की शिक्षा दी जो जैन-आचार के समान है। इस प्रकार गाँधी दर्शन के आचार एवं जैन-आचार में अत्यधिक समानता के दर्शन होते हैं, इसी क्रम में दोनों का तुलनात्मक अध्ययन प्रायोजित है ।
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