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त्रिभुवन नाथ त्रिपाठी
SAMBODHI का मार्ग है। महात्मा गाँधी के अनुसार अपरिग्रह, उपार्जन करने की प्रवृत्ति पर रोक है। महात्मा के अनुसार जिसके पास जो कुछ है, उसी में संतुष्ट रहने का अनुशासन ही सद्गुण 'अपरिग्रह' है। यथासम्भव कम से कम में अत्यधिक संतुष्ट रहने का प्रयत्न ही अपरिग्रह का मूल है । अपरिग्रह से ही महात्मा अपने न्यास के सिद्धान्त तक पहुंचते हैं, जिसके अनुसार, पूँजीपतियों के हृदय को परिवर्तित करके उनके मन में यह विश्वास पैदा करना कि उनके पास धन के अपव्यूह का कोई वैयक्तिक उपादान नहीं है, उस एकत्रित धन को जन-कल्याणार्थ खर्च चाहिए।२८ पूँजीपति वास्तविकता में न्यास-धारी है। जिसने श्रमिकों द्वारा किये गये कठिन परिश्रम से धन एकत्रित किया है । यही गाँधीजी के अपरिग्रह का चरम है ।
अभय - महात्मा गाँधी के अनुसार जो व्यक्ति अहिंसा का पालन करता है तथा सत्य का साथ नहीं छोड़ता, ईश्वर सदैव उसके निकट रहता है जिससे उस व्यक्ति को मृत्यु, भूख, प्यास, शारीरिक आघात, आक्रोशात्मक व्यवहार इत्यादि किसी का भय नहीं है। उदाहरण स्वरूप चम्पारन में नील की खेती का विरोध करने पर अंग्रेज सरकार ने गाँधीजी के विरूद्ध मुकदमा चलाया किन्तु गाँधीजी ने सत्य का साथ न छोड़ा और अंग्रेज सरकार को मुकदमा वापस लेना पड़ा ।२९ इस प्रकार 'सत्य' अभय का पूरक है, की शिक्षा गाँधीजी ने दी । जैनि केवल 'कैवल्य' का प्रतिपादन करते हैं, जो कर्म बन्धन नष्ट होने पर स्वतः प्राप्तव्य है, अतः मृत्यु से भय कैसा ? .
क्रान्ति - महात्मा गाँधी अहिंसात्मक-क्रान्ति के पोषक हैं, क्रान्ति का मूल-तत्त्व है द्रुत-परिवर्तन । क्रान्ति किसी व्यवस्था के विरुद्ध उस व्यवस्था के द्रुत-परिवर्तन की द्योतक है, किन्तु गाँधीजी मार्क्स द्वारा प्रायोजित हिंसात्मक क्रान्ति के विरोधी हैं, उनके अनुसार केवल अहिंसा के जरिए स्वयं कष्ट सहकर शत्रु को भी परिवर्तित किया जा सकता है इस रूप में अहिंसात्मक - से सम्पूर्ण व्यवस्था का परिवर्तन हो जाता है । जैनि भी प्रेम के द्वारा परिवर्तन की बात स्वीकार करते हैं यद्यपि जैनि 'क्रान्ति' शब्द का नाम नहीं लेते परन्तु हृदय-परिवर्तन के जरिए सम्पूर्ण समाज का परिवर्तन, सम्पूर्ण समाज का उत्थान ही उनका परम लक्ष्य है।
ईश्वरास्था - महत्मा गाँधी के अनुसार वह विश्वास है जो ईश्वर के स्वरूप के साथ-साथ समस्त सृष्टि को भी नैतिक सिद्ध करता है। अतः ईश्वरास्था प्रेम की पूर्वमान्यता है, यह मात्र धार्मिक विश्वास नहीं, नैतिकता तथा सद्गुणी-जीवन का विश्वासात्मक आधार है । जैनियों के त्रिरत्न वर्णन मे ऐसी ही अटूट आस्था के दर्शन होते हैं । त्रिरत्नों-सम्यक्-दर्शन, सम्यक्-ज्ञान, सम्यक्-चारित्र में से सम्यक् दर्शन जैन तीर्थंकरों तथा शास्त्रों में प्रतिपादित सिद्धान्तों के प्रति अगाध-श्रद्धा का सिद्धान्त है जिसके बिना सम्यक् चारित्र जो सिद्धान्तों को व्यवहार में लाने का निर्देश देता है, हो पाना सम्भव नहीं है । अत: दोनों ही मतों में श्रद्धा, विश्वास एवं आस्था को व्यावहारिक प्रबलता का कारण स्वीकार किया गया है ।
स्वाधीनता का अर्थ महात्मा गाँधी के अनुसार सम्पूर्ण राष्ट्र की स्वतन्त्रता के साथ-साथ मनुष्य मात्र की स्वतन्त्रता है । मनुष्य संसार में अपने विचारों एवं कार्यों को प्रतिपादित करने के लिए स्वतन्त्र है किन्तु किसी अन्य प्राणी को कष्ट प्रदान किये बिना । जैन परम्परा भी नियतिवाद को स्वीकार न करके इच्छा स्वातन्त्र्य को महत्त्व देती है । इच्छा-स्वातन्त्र्य के कारण ही मनुष्य अपने कर्मों का प्रतिपादन
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