Book Title: Sambodhi 2005 Vol 28
Author(s): Jitendra B Shah, K M Patel
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 130
________________ 124 त्रिभुवन नाथ त्रिपाठी SAMBODHI यद्यपि 'अहिंसा' सभी धर्मों (हिन्दू, बौद्ध, ईसाई इत्यादि) में वर्णित है, जिनका महात्मा पर समान प्रभाव पड़ा, परन्तु अहिंसा का विचार महात्मा को मुख्य रूप से जैन धर्म एवं दर्शन से प्राप्त होता है। बाल्यकाल में उन्होंने भगवान महावीर की कथाओं में सुना था, "यदि प्राणीमात्र के प्रति भी हिंसा की जाए तो उसका बुरा प्रभाव सम्पूर्ण सृष्टि पर पड़ता है ।" जैसे कि किसी जीव का प्राण लेने पर सृष्टि का मूल तत्त्व 'अग्नि' बाधित होता है । अर्थात् हिंसा समस्त सृष्टि के विरूद्ध कार्य करती है। यह विचार महात्मा में अन्त तक रहा । तथापि अहिंसा गाँधी के विचारों में विकसित होकर जैनियों से थोड़ी भिन्नता भी प्राप्त करती है। गाँधी दर्शन में अहिंसा ही वह ब्रह्मास्त्र था जिससे स्वयं महात्मा ने स्वार्थसिद्धि की, उसी प्रकार जैन धर्म दर्शन में अहिंसा वह धुरि है जिस पर सभी जैनाचार सिद्धान्त प्रतिस्थापित हैं । अतः दोनों ही दर्शनों में 'अहिंसा का सिद्धान्त' समान रूप से व्याप्त है। यद्यपि उन दोनों ही दर्शनों में अहिंसा का सिद्धान्त समान रूप से व्यापक है तथापि उनमें अधिकाधिक समानता के साथ-साथ तनिक विषमता का भी बोध होता है। अहिंसा को आधार मानकर ही जैनियों ने सत्य ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, अस्तेय तथा महात्मा ने इन व्रतों के अतिरिक्त सत्याग्रह, असहयोग, क्रान्ति, सविनय अवज्ञा, स्वराज, सर्वोदय, समानता, न्यास या (ट्रस्टीशिप), कर्म, प्रेम, ईश्वरास्था, विकेन्द्रीकरण इत्यादि सिद्धान्तों की व्याख्या की है। ___ अहिंसा के रूप में यद्यपि गाँधीजी ने किसी नवीन सिद्धान्त की स्थापना नहीं की परन्तु उसका राजनीतिक शस्त्र के रूप में प्रयोग अद्वितीय ही नहीं, अपूर्व था। महात्मा गाँधी के अनुसार 'हिंसा एक . नकारात्मक बल है जिससे केवल हिंसा ही पैदा हो सकती है' जैसे हिंसा करने वाले के प्रतिपक्षी के मन में हिंसा करने वाले के प्रति बलपूर्वक दमन की इच्छा जागृत होती है जो कि एक 'नकारात्मक बल' है। परन्त अहिंसा के द्वारा प्रतिपक्षी का हृदयपरिवर्तन कर विजय प्राप्त की जा सकती है। अतः अहिंसा एक 'सकारात्मक शक्ति' है। जैनियों के अनसार मन, वचन, कर्म तीनों के द्वारा अहिंसा का पालन कठोरता से करना चाहिए । किसी को गाली देना, हिंसा देख आँखे मूंद लेना भी हिंसा है । इस प्रकार किसी भी परिस्थिति में साधकों को अहिंसा का त्याग नहीं करना चाहिए । गाँधीजी यहाँ जैनियों से थोड़ा मतभिन्य प्रस्तुत करते हैं, उनके अनुसार श्वास लेने, खाने, पीने में मुँह खोलने में व्यावहारिक बाधा आती है। तो ऐसी हिंसा तो दैनिक दिनचर्या में स्वाभाविक है तथा क्षम्य है ।१ गाँधीजी के अनुसार यदि कोई व्यक्ति बन्दूक लेकर निरपराध लोगों की हत्या कर रहा है तो उसकी हत्या अनुशंसित हो सकती है ।२ महात्मा गाँधी 'दया-मृत्यु' (mercy-killing) की भी वकालत करते हैं अर्थात् कोई रोगी यदि रोग से पीड़ित है तथा कष्ट असह्य है तो रोगी की इच्छा से उसकी मृत्यु प्रदान की जा सकती है ।१३ जैनि इसे 'समाधि-मरण' के रूप में स्वीकार करते हैं । इस प्रकार देखा जा सकता है कि जैन अहिंसा का सिद्धान्त, गाँधीवाद में अपनी चरमगति पाता है । सत्य जैनियों का दूसरा महाव्रत है, असद्भिधानमनृतम्१४ अर्थात् असत्-चिन्तन, असत्-भाषण, असत्-आचरण यह सभी असत् श्रेणी में आते हैं । जैनि सत्य को अत्यधिक व्यापक अर्थ में लेते हैं। जो, वस्तुतः सत्य होते हुए भी किसी को कष्ट पहुँचाए, वह भाषण असत्य है, इसे जैनि 'गर्हित-असत्य' Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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