Book Title: Sambodhi 2005 Vol 28
Author(s): Jitendra B Shah, K M Patel
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 131
________________ Vol. xxVIII, 2005 जैन एवं गाँधी आचार दर्शन का तुलनात्मक अध्ययन 125 कहते हैं । परन्तु महात्मा गाँधी के अनुसार 'सत्य' तो सत्य है, यदि सच बात से किसी का जी दुःखे तो वह हिंसा न होगी ।५ इस प्रकार हम देखते हैं कि महात्मा गाँधी सत्य के प्रति कितने दृढ़ हैं । यद्यपि सत्य का सिद्धान्त दोनों मतों में समान है किन्तु महात्मा गाँधी सत्य पर अधिक दृढ़ हैं, अहिंसा पर कम और जैनि अहिंसा पर सत्य की अपेक्षा अधिक दृढ़ हैं । इसी रूप में महात्मा सत्य को ईश्वरतुल्य सिद्ध कर देते हैं, उनके अनुसार सत्य ही समस्त जगत का 'साध्य' है, सत्य ही परमपुरुषार्थ है, सत्य ही ईश्वर है। महात्मा गाँधी के अनुसार 'सत्य का आग्रह' ही सत्याग्रह है। यह अहिंसात्मक मार्ग है, प्रेम का मार्ग है तथा ईश्वरीय मार्ग है । सत्याग्रह विपक्षी के समक्ष ऐसी स्थिति पैदा कर देता है कि उसका सम्पूर्ण क्रोध शान्त हो जाए, अत: यह हृदय-परिवर्तन का मार्ग है । सत्याग्रह के द्वारा किसी आतातायी का भी हृदय-परिवर्तन करके उसको सुधारा जा सकता है ।१८ गाँधीजी की प्रसिद्ध उक्ति है "पाप से घृणा करो, पापी से नहीं" । जैनियों की भी आचार-मीमांसा में 'अर्थदण्डविरमण' तथा रौद्रध्यान एवं 'हिंसाप्रदान' का सिद्धान्त यहाँ लागू होता है, जिसके अनुसार किसी भी कारण से किसी के भी हृदय में हिंसा जगाना पाप है ।९ अहिंसा को ही केन्द्रीयभूत तत्त्व मानकर गाँधीवाद असहयोग, सविनय अवज्ञा, अनशन इत्यादि को पालित करने का उपदेश देता है जिसके अनुसार स्वयं को कष्ट देकर सामने वाले का हृदयपरिवर्तन, मत-परिवर्तन किया जा सकता है। ब्रह्मचर्य को परिभाषित करते हुए महात्मा गाँधी कहते हैं-अपनी समस्त इन्द्रियों पर सम्पूर्ण नियन्त्रण ब्रह्मचर्य है । सुस्वादु भोजन, वासनात्मक विचार, उत्तेजक दृश्यों से सदैव दूर रहना ही ब्रह्मचर्यव्रत है। यहाँ तक कि पति-पत्नी को भी व्रत धारण करके एक दूसरे के समक्ष 'भ्राता-भागिनी' के रूप में उपस्थित होना चाहिए ।२° ब्रह्मचर्य-व्रत धारण करने से आत्मा का परमात्मा से मिलन सरल होता है? तथा व्यक्ति का आत्मबल अधिक प्रबल होता है । जैनि 'मैथुनमब्रह्म'२२ कहते हैं अर्थात् संसार में किसी भी जोड़े का काम-राग से आवेशित होकर मानसिक, कायिक या वाचिक कोई भी प्रवृत्ति अब्रह्मचर्य है ।२३ जैनि केवल यौनक्रिया का निषेध ब्रह्मचर्य के लिए करते हैं । किन्तु गाँधी ब्रह्मचर्य की विशेष परिभाषा देते हुए समस्त इन्द्रियों पर नियन्त्रण बताते हैं । अस्तेय का वर्णन महात्मा गाँधी के दर्शन में एवम् जैनाचार में समान रूप में प्राप्त होता है, जैनि कहते हैं 'अदत्तादानं स्तेयं'२४ अर्थात् बिना दिये किसी अन्य की वस्तु का ग्रहण अस्तेय है । महात्मा गाँधी के अनुसार चौर्य-प्रकृति हिंसा है, क्योंकि किसी व्यक्ति की सम्पत्ति उसका बाह्य जीवन होता है और उस सम्पत्ति का हरण अमुक व्यक्ति के जीवन का हरण है। अत: अस्तेय के लिए मन में आवश्यकता से अधिक वस्तुओं के प्रति लालच की वृत्ति नहीं होनी चाहिए ।२५ __अपरिग्रह को जैनि 'मूर्छा परिग्रह: '२६ अर्थात् किसी वस्तु के मोह में विवेकशून्य हो जाना कहते हैं । परिग्रह पाप का संग्रह है, जितना अधिक परिग्रह बढ़ता जाता है उतना ही अधिक पाप बढ़ता जाता है। परिग्रह का दूसरा नाम 'ग्रन्थि' भी है। भगवान् महावीर ने ग्रन्थि-भेदन पर बहुत अधिक बल दिया इस लिए उनका नाम 'निर्ग्रन्थ' पड़ गया तथा उनका सम्प्रदाय 'निर्ग्रन्थ-सम्प्रदाय' के रूप में विख्यात हुआ। परिग्रह से मनुष्य बँध जाता है, स्वाधीन नहीं रह पाता, अतः अपरिग्रह मनुष्य के स्वातन्त्र्य, स्वाधीनता Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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