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Vol. xxVIII, 2005
सूत्रार्थ की समीक्षा
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स्थिात:
इस प्रकार का पाठ आया । यह भी सम्भव है कि प्रथम इस प्रकार का योग-विभाग विचारा गया हो और बाद में वह स्वतन्त्र सूत्र ही बन बैठा हो ।
इस प्रकार इस सूत्र द्वैविध्य की मान्यता के साथ (१) सूत्र में भाष्यकारादि की परम्परा के समान "कर्तरि" पद का सम्बन्ध षष्ठी के साथ ही रखा गया, जो कि काशिकावृत्ति के "तृजकाभ्यां कर्तरि। (पा. २.२.१५) सूत्र के अर्थ में दिखाई देता है। परन्तु "कर्तरि च ।" यह तो दूसरा सूत्र रहा, उस में जो "कर्तरि" पद है उसका सम्बन्ध (१) सूत्र से अनुवृत्त "तृजकाभ्याम्" पद से जोड़ दिया गया । भट्टोजि के समय की स्थिति :
इस प्रकार सम्भव है काशिकाकार से सूत्र द्वैविध्य वाला पाठ प्रचलन में आ गया, पर अर्थ करते समय पूर्वोक्त एक ही सूत्र के समय की अर्थात् "कर्तरि" का “षष्ठी" पद के साथ सम्बन्ध रखने की परम्परा सुरक्षित रखी गई । भट्टोजि ने आकर सूत्र द्वैविध्यवाला पाठ स्वीकार किया, पर पारम्परिक रूप से (१) सूत्रस्थ "कर्तरि" पद का “षष्ठी" पद के साथ सम्बन्ध मानने की बात को उपेक्ष्य समझा, और काशिकाकार ने जो सूत्रार्थ दिये हैं, उन से उलटे रूप में सूत्रार्थ दिये, तथा उन्हीं को उचित ठहराया। इस प्रकार 'कर्तरि च' सूत्र के सूत्रार्थ एवम् उदाहरण के विषय में जो मत-भेद परम्परा में दिखाई देता है; उसमें सूत्र-पाठ की गड़बड़ कारण भूत दिखाई देती है। इसका सन्देह प्रदीपकार आदि को हुआ, पर उन्होंने इस विषय में कोई स्पष्ट अभिप्राय न दिया। फलत: अद्यावधि यह सूत्रार्थ विवादयुक्त बना रहा है ।।
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची:
*अखिल भारतीय प्राच्य विद्या परिषद् (A.I.O..C.) के मई २३ में आयोजित ३६ वें अधिवेशन (पूना) में पठित लेख। १. पा० सू० २-२-१० से पा० सू० २-२-१६ तक । २. वक्रवाचां कवीनां ये प्रयोगं प्रति साधवः ।
प्रयोक्तुं ये न युक्ताश्च तद्विवेकोऽयमुच्यते । ___- काव्यालंकार, (सं० शर्मा बटुकनाथ, प्रका. चौखम्भा सं. संस्थान, वाराणसी, द्वितीय संस्क. संवत् - २०३८) ३. यह न्यासकार काशिकावृत्ति की न्यासटीका के कर्ता जिनेन्द्रबुद्धि नहीं है। किसी प्राचीन न्यासकार का यह निर्देश है। ४. शिष्टप्रयोगमात्रेण न्यासकारमतेन वा ।
तृचा समस्तषष्ठीकं न कथञ्चिदुदाहरेत् ।। सूत्रज्ञापकमात्रेण वृत्रहन्ता यथोदितः । अकेन च न कुर्वीत वृत्ति तद्गमको यथा ।
- काव्यालंकार, तदेव संस्करणम्, षष्ठ परिच्छेद, कारिका ३६-३७ ५. जने: कर्ता - जनिकर्ता । - काशिकावृत्तिः, १-४-३० (सं. मिश्र नारायण, प्रका० चौखम्भा संस्कृत सीरिझ आफिस,
वाराणसी, सन् १९६९, चतुर्थ संस्करण, पृ० २१) ६. तस्य प्रयोजकः तत्प्रयोजकः । निपातनात् समासः ॥-काशिकावृत्तिः, १-४-५५ (तत्रैव). ७. "जनेः कर्ता जनिकर्ता" - इति कर्मणि षष्ठ्या समासः । अयमेव च निर्देशो ज्ञापयति - "कर्तरि च" इति प्रतिषेधोऽनित्य
इति ॥ - पदमञ्जरी, सं० स्वामी द्वारकादास शास्त्री, प्र० तारा पब्लिकेशन्स, काशी, सन् - १९६५, भाग - १, पृ० ५४३
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