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जयपाल विद्यालंकार
SAMBODHI
शहरकोतवाल और उसके सिपाहियों ने एक मच्छीमार को पकड़ लिया । वह राजमुद्रिकाड्कित अंगूठी को बाजार में बेचने का प्रयत्न कर रहा था । सिपाहियों द्वारा उसकी पिटाई और उस अवसर पर उनका वार्तालाप प्राकृत में निबद्ध होने के कारण ही जीवन्त हो उठा है। कुछ वाक्यों को देखिये -
पशीदन्तु भावमिश्शे । ण हगे ईदिशकम्मकाली। किं शोहणे बम्हणेत्ति कलिअ रण्णा पडिगहे दिण्णे । हगे शक्कावदालब्अंतरालवासी धीवले ।। पाडच्चला कि अम्मेहिं जादी पुच्छिदा ॥ जाणुअ, फुल्लन्ति मे हत्था इमश्श वहश्श शुमणा पिन« । .....। गिद्धबली भविश्शशि शुणो मुहं वा देक्खिश्शशि । एशे णाम अणुग्गहे जे शूलादो अवदालिअ हत्थिकन्धे पडिट्ठाविदे । धीवरो, महत्तरो तुमं पिअवअस्सओ दाणि मे संवत्तो । कादम्बरीसक्खिअं अम्हाणं पढमसोहिदं इच्छीअदि । ता सोण्डिआपणं एव्व गच्छमो । शाकुन्तल ६ (प्रवेशक)
प्राकृत में निबद्ध इन संवादों को जब नाटकीय अभिनय के साथ वे अभिनेता, जिनकी यह स्वाभाविक भाषा थी, बोलते होंगे तो रंगशाला में बैठे दर्शकों का आनन्द सहज तादात्म्य के कारण अपेक्षाकृत बढ़ जाना स्वाभाविक था ।
संस्कृत के प्रत्येक रूपक में ऐसे उदाहरण भरे पड़े हैं । चाहे जिस प्रसंग को देख लें वहाँ प्रयुक्त प्राकृत इस तथ्य की पुष्टि करेगी कि प्राकृत भाषा रचनाकारों की अपरिहार्यता थी और इन रूपकों के अभिनय में प्राण प्राकृत ही फूंकती थी। संस्कृत रूपकों में मृच्छकटिक प्रकरण जनसामान्य से जुड़ी इकलौती रचना है । प्राकृत के प्रयोग की दृष्टि से भी यह रचना इतनी समृद्ध है कि उस समय बोली जाने वाली शायद ही कोई प्राकृत हो जिसका इस प्रकरण में प्रयोग न हुआ हो । मृच्छकटिक के विवृतिकार पृथ्वीधर ने इस प्रसंग को विस्तार से विवेचित किया है। नाटक में सूत्रधार, नटी, रदनिका, मदनिका, वसन्तसेना, उसकी माता, चेटी, कर्णपूरक, धूता, शोधनक तथा श्रेष्ठी ये ग्यारह पात्र शौरसेनी बोलते हैं । वीरक और चन्दनक अवन्तिका बोलते हैं । विदूषक की भाषा प्राच्या है। संवाहक, वसन्तसेना तथा चारुदत्त के तीनों चेट, भिक्षु तथा रोहसेन मागधी बोलते हैं । शकार शकारी प्राकृत और दोनों चाण्डाल चाण्डाली का प्रयोग करते हैं । माथुर द्यूतकर ढक्की बोलता है । यह ढक्की अपभ्रंश से मिलती-जुलती उस काल की कोई अ-संस्कृत जनभाषा प्रतीत होती है । मृच्छकटिक पांचवी-छठी ईसवी की रचना मानी गई है। प्राकृत-बहुल इस रचना का प्रयोग जनसाधारण को कितना आकर्षित करता होगा इसकी कल्पना की जा सकती है । यह स्वाभाविक भी था क्योंकि इस रचना में वह सब कुछ था जो आम आदमी की प्रतिदिन की जिन्दगी में होता है । इस समूची प्रस्तुति में आम आदमी स्वयं को देखता था, अपनी जिन्दगी को देखता था । मृच्छकटिक नाटक के जनसामान्य से जुड़ाव का मुख्य आधार इस रचना में प्रयुक्त प्राकृत थी । दो जुआरियों के कलह
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