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Vol. xxVIII, 2005
प्राकृत-साहित्य में जनसामान्य की सशक्त अभिव्यक्ति
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हों इसकी सम्भावना न के बराबर ही है। अत: नाटक की प्रस्तुति के लिये इन तथाकथित अ-भद्र पात्रों की अपरिहार्यता थी। इस अपरिहार्यता के कारण रचनाकार के लिये इन पात्रों के संवादों को प्राकृत में निबद्ध करना अनिवार्य हो गया । इन्हीं प्रचलित रचनाओं के आधार पर लक्षण ग्रन्थों में नाटकों में प्राकृत भाषा विषयक निमयों को रखना पड़ा । इन नाटकों के मंचन-काल में प्राकृत तो सभी समझते थे, संस्कृत भी समझी तो व्यापकता से जाती थी किन्तु उसका व्यवहार में प्रयोग भद्रजनों तक ही सीमित था ।
प्राकृत भाषा के प्रयोग की अपरिहार्यता का एक और कारण था । नाटकों में जो वर्ग प्राकृत भाषा में संवाद बोलता था उस वर्ग की जीवन-शैली की अभिव्यक्ति का सहज एवं सशक्त माध्यम उन्हीं लोगों की भाषा हो सकती थी। भद्रजनों की सुसंस्कृत एवं अ-स्वाभाविकता से मण्डित भाषा उस वर्ग के जीवन की यथार्थ प्रस्तुति नहीं कर सकती थी। इस कारण, शास्त्रीय भाषा में "प्रवृत्ति" के कारण से भी प्राकृत को अपनाना आवश्यक था ।
प्राकृत भाषा के प्रयोग के पक्ष में एक सशक्त कारण नाट्य-प्रस्तुति की व्यापकता की अपेक्षा भी था। जनसामान्य को विशुद्ध परिमार्जित संस्कृत में ग्रथित रचना, जिस के मंचन में उनके अपने लोग हिस्सेदार न हों, आकर्षित नहीं कर सकती थी। यात्रा प्रसंग या देवालयों के उत्सव के अवसर पर प्राकृत
और संस्कृत भाषा में मिली-जुली रचना ही, जिसमें उनके अपने जीवन की झलक उन्हीं में से कुछ के द्वारा प्रस्तुत की जा रही हो, आम लोगों को अधिक आकर्षित कर सकती थी।
उपर्युक्त कारणों के अतिरिक्त संस्कृत नाटकों में प्राकृत के प्रयोग का एक प्रबल कारण प्राकृत भाषा में सहज रूप से विद्यमान सशक्त ध्वनि-प्रभाव रहा । मञ्चीय प्रस्तुति में लय-ताल के साथ एकाकार आंगिक अभिनय में नियामक तत्त्व वाचिक अभिनय होता है। प्राकृत भाषा में निबद्ध संवाद, ध्वनि प्रभाव के बलबूते प्राकृत-जनों के साथ जो तादात्म्य स्थापित कर सकते थे वह सजी-संवरी संस्कृत में निबद्ध संवादों के बूते की बात नहीं थी । एक उदाहरण से इस बात को स्पष्ट करना चाहूँगा -
ईसीसिचुम्बिआइं भमरेहिं सुउमारकेसरसिहाई । ___ओदंसअन्ति दअमाणा पमदाओ सिरीसकुसुमाई ॥ शाकुन्तलम् १-४
भ्रमरों ने जिन्हें धीमे धीमे चूमा है और जिनका केसरान्त अत्यन्त कोमल है ऐसे शिरीष पुष्पों को युवतियाँ प्यार से अपने कानों पर सजा रही हैं । निश्चय ही नटी ने प्राकृत में जब इस गान को प्रस्तुत किया होगा तो रंगशाला में सभी दर्शकों का चैतन्य राग-आबद्ध हो गया होगा, वे चित्रलिखित से निश्चल हुए होंगे । प्राकृत में इस गीति का ध्वनि सामर्थ्य शब्दों के संस्कृत रूप में नितान्त शिथिल हो जाता । एक और उदारहण देखिये - दुष्यन्त ने हंसपदिका को प्यार करके भुला दिया हंसपदिका उपालम्भ भरी एक गीतिका गा रही है । प्राकृत में बद्ध यह गीतिका प्रेम से सराबोर उलाहने को जिस निपुणता से अभिव्यंजित करती है, संस्कारनिष्पादित संस्कृत शब्दों में वह सामर्थ्य सम्भव नहीं ।
अहिणवमहुलोलुवो तुमं तह परिचुम्बीअ चूअमञ्जरिं । कमलवसइमेत्तणिव्वुदो महुअर विम्हरिओ सि ण कहं ॥ शा० ५-१
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