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Vol. XXVIII, 2005
सूत्रार्थ की समीक्षा
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यद्यपि हरदत्त के इस कथन पर यह कहा जा सकता है कि जो शेषषष्ठी मानकर ही "जनिकर्ता" इत्यादि स्थलों में षष्ठीसमास सिद्ध हो सकता है, तब तो "कर्तरि च" । सूत्र के द्वारा किया गया प्रतिषेध अनित्य है, यह कहने की आवश्यकता ही नहीं है। क्योंकि "कर्तरि च" को अनित्य मानकर जिन प्रयोगों में षष्ठी समास की सिद्धि बतायी जा रही है, उनमें शेषषष्ठी मानकर समास सिद्ध कर लिया जाएगा । तथापि यह ध्यातव्य है कि जिन आचार्यों के मत में "क्तेन च पूजायाम् ।" पा० सू० २-२-१२ इत्यादि षष्ठीसमास के निषेध सूत्र कारकषष्ठी के समास का निषेध करते हैं, उनके पक्ष में रह कर हरदत्त ने उपर्युक्त बात कही है।
हरदत्त की तरह प्रक्रियाकौमुदी के व्याख्याकार श्रीकृष्ण ने भी पाणिनि के पूर्वोक्त प्रयोगों के समर्थन से "कर्तरि च ।" सूत्र द्वार किये गये षष्ठीसमास के निषेध को अनित्य स्वीकार किया है । और उसी कारण भयशोकहन्ता, हितकारकः, गुणविशेषकः - इत्यादि प्रयोगों की उपपति को भी व्याकरणसम्मत माना है ।१० प्र० कौ० के दूसरे टीकाकार श्रीविठ्ठल ने भी इसी मत को दोहराया है, तथा षष्ठीसमास के निषेध को अनित्य मानकर "निजत्रिनेत्रावतरत्वबोधिकाम् ।" जैसे साहित्य के प्रयोग की भी सिद्धि बतायी है।११
. भट्टोजि दीक्षित ने कैयट के नाम से "घटानां निर्मातुस्त्रिभवनविधातुश्च कलहः" जैसे प्रयोगों में शेषषष्ठी का प्रयोग मानकर षष्ठीसमास हुआ है, ऐसा कथन किया है ।१२
उधर पा० इतर व्या० परम्परा में भी इस विषय में काफी विचार विमर्श हुआ है। चान्द्रव्याकरण में यद्यपि षष्ठी समास के प्रतिषेध पक्ष को स्वीकार किया गया है, तथापि यह भी कहा गया है कि सम्बन्ध षष्ठी मानकर उसका समास तो होता ही है ।१३ अर्थात् "ओदनपाचकः" जैसे प्रयोग बन सकते हैं ।
जैनेन्द्र-महावृत्तिकार ने अपने जैनेन्द्रव्याकरण का अनुसरण करते हुए दो उपाय बताये हैं । उनका कहना है कि "तृजकाभ्यां योगे।" जै० सू० १.३.७८ सूत्र से होने वाला षष्ठी समास का प्रतिषेध नित्य है, पर यह "कर्तरि च" । जै० सू० १।३।७९ से होनेवाला षष्ठी समास का प्रतिषेध अनित्य है। इस लिए "तीर्थकर्तारमहन्तम्" इत्यादि प्रयोग किये जा सकते हैं ।१३अ . ___ उपायान्तर बताते हुए अभयनन्दी का कथन है कि उपर्युक्त "तीर्थकर्ता" जैसे प्रयोगों में तृच् नहीं, परन्तु तृन् प्रत्यय का विधान मानकर "साधन कृता ।" (जै० सू० १-३-२९) सूत्र से भी षष्ठी समास किया जा सकता है । इस प्रकार जैनेन्द्र व्याकरण उभयविधि प्रयोग करने की संमति देता है ।
हेमचन्द्राचार्य तृच् तथा अक प्रत्ययान्त पद का षष्ठीविभक्त्यन्त के साथ होनेवाले समास का निषेध मान्य रखते हैं, और पाणिनि के "जनिकर्ता" तथा "तत्प्रयोजकः" जैसे शिष्टप्रयोगों को व्याकरण सम्मत बनाने के लिए एक नई युक्ति बताते हैं । तद्यथा-"याजकादिभिः ।" । है. सू. ३-१-७८ इस सूत्र द्वारा षष्ठ्यन्त नाम का याजक इत्यादि नामों के साथ समास कहा गया है। इस (यजकादि) गण को हेमचन्द्राचार्य ने आकृतिगण माना है। आकृतिगण होने से गण पठित शब्दों के अतिरिक्त अन्य कई नये पदों का समावेश हो सकता है, अतः इस गण में "कर्ता" तथा "प्रयोजक" नामों को सामेल करके "जनिकर्ता" तथा "तत्प्रयोजकः" जैसे प्रयोगों को सिद्ध माना जा सकता है ।५ पाणिनीय परम्परा में याजकादि गण को आकृतिगण नहीं माना है । इस पर भी "याजकादिभ्यश्च" । पा. सू. २-४-९ । इस सूत्र में "च" को
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