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"कर्तरि च ।" (पा० सू० २-२-१६) के
सूत्रार्थ की समीक्षा
कमलेशकुमार छ. चोकसी
०.० अष्टाध्यायी के समास-संज्ञा-अधिकार प्रकरण में एक सूत्र है - षष्ठ । पा० सू० २-२-९. इस सूत्र के द्वारा षष्ठ्यन्त पद का समर्थ सुबन्त के साथ समास कहा है और इस समास की तत्पुरुष संज्ञा है। राज्ञः पुरुषः = राजपुरुषः । इत्यादि इस के उदाहरण हैं।
___षष्ठी समास के इस विधि के बाद कुछ स्थानों में इस षष्ठी समास का निषेध करने के लिए अष्टाध्यायी में कुल सात निषेध सूत्र हैं। जिनमें से एक सूत्र है - "कर्तरि च ॥"
०.१. इस सूत्र का अर्थ है - "कर्ता अर्थ में विहित तृच् और अकप्रत्ययान्त सुबन्त के साथ षष्ठ्यन्त सुबन्त का समास नहीं होता है।" उदाहरण के रूप में - 'अपां स्रष्टा' । तथा ओदनस्य भोजकः' । जैसे प्रयोग दिये जाते हैं। प्रथम प्रयोग में 'अपाम्' इस षष्ठ्यन्त सुबन्त का "स्रष्टा" इस तृच् प्रत्ययान्त सुबन्त के साथषष्ठी। सूत्र से समास प्राप्त था, पर इस प्रकृत सूत्र से निषेध कहा गया है, अत: समास नहीं हुआ। इसी प्रकार दूसरे प्रयोग में भी "ओदनस्य" इस षष्ठ्यन्त का "भोजकः" इस "अक" प्रत्ययान्त सुबन्त के साथ षष्ठी । सूत्र से प्राप्त समास का, इस प्रकृत सूत्र से निषेध हुआ है।
___०.३ यद्यपि सूत्रकार पाणिनि ने उपर्युक्त सूत्र के द्वारा स्वमुख से तृच् और अक प्रत्ययान्त शब्दों का षष्ठ्यन्त पद के साथ समास निषिद्ध माना है, पर स्वयं को जब प्रयोग करने का अवसर उपस्थित हुआ, तब उन्होंने अपने बनाये इस निषेध रूप नियम अर्थात् व्यवस्था का पालन नहीं किया । तद्यथा अष्टाध्यायी के ही दो सूत्र हैं - १. जनिकर्तुः प्रकृतिः । पा. सू० १-४-३० और २. तत्प्रयोजको हेतुश्च । पा० सू० १-४-५५ .
इन सूत्रों में "जनिकर्तुः" तथा "तत्प्रयोजकः" ये दो प्रयोग ध्यातव्य है । इन दोनों प्रयोगो में "कर्ता" इस तृजन्त का और "प्रयोजक" इस अक प्रत्ययान्त का क्रमश: "जनेः" तथा "तस्य" इन षष्ठ्यन्त पदों के साथ "षी।" सूत्र से प्राप्त समास का "कर्तरि च ।" सूत्र से निषेध होना चाहिए था । अर्थात् सूत्रकार को "जनेः कर्तुः प्रकृतिः ।" तथा "तस्य प्रयोजको हेतुश्च ।" इस प्रकार का प्रयोग करना चाहिए था। परन्तु, "कर्तरि च।" सूत्र द्वारा खड़ी की गई षष्ठी समास की निषेध रूप व्यवस्था की स्वयं सूत्रकार ने ही उपेक्षा करके यहाँ पर षष्ठीसमास का प्रयोग किया है ।
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