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कमलेशकुमार छ. चोकसी
SAMBODHI
सूत्रकार प्रदत्त इस द्विविध स्थिति का फलितार्थ क्या हो सकता है ? सामान्यरूप से तो यह कहा जा सकता है कि आचार्य की स्वयं प्रदत्त षष्ठीसमास की निषेधरूप व्यवस्था और षष्ठी समास निषेध की परवा न करके स्वयं प्रयुक्त षष्ठीसमासरूंप आचार - इन दोनों पक्षों को समान मान्यता देकर उभयविध प्रयोग मान्य किये जा सकते हैं।
___०.३ इस प्रकार देखा जाय तो प्रयोक्ता के पास षष्ठीसमास युक्त तथा षष्ठीसमास प्रतिषिद्ध - दोनों प्रकार के प्रयोगों के लिए शास्त्रीय आधार उपलब्ध है।
व्याकरण जिन शब्दों का अनुशासन करता है, इन शब्दों का प्रयोग विषय वाग्व्यवहार तथा काव्य आदि है। काव्य में किसी भी शब्द का सौन्दर्य की दृष्टि से विनियोग विचारपूर्वक करना चाहिए, ऐसा काव्यशास्त्रीयों का, आलंकारिकों का मन्तव्य है। इसीलिए भामह तथा वामन जैसे प्राचीन आलंकारिकों ने अपने अपने ग्रन्थ में काव्योपयोगी शब्दों की प्रयोग योग्यता दर्शायी है ।२ वहाँ षष्ठी समास के सन्दर्भ में आचार्य भामह का कथन है कि -
"शिष्टप्रयोग मात्र से या न्यासकार का मत है इसलिए कर्ता में आये हुए तृच् प्रत्ययान्त पद का" षष्ठीविभक्त्यन्त पद के साथ समास करके, किये जानेवाले प्रयोग किसी भी रीति से उदाहृत नहीं किये जा सकते । अथ च पाणिनि = सूत्र के द्वारा ज्ञापित होने मात्र से "वृत्रहन्ता" जैसे तृच् प्रत्ययान्त के षष्ठीसमास वाले प्रयोग तथा अक प्रत्ययान्त के षष्ठीसमास वाले "तद्गमकः" जैसे प्रयोग प्राप्त होते हों, तथापि उदीयमान कवि को तो तृजन्त और अकन्त शब्दों का षष्ठी तत्पुरुष समास नहीं प्रयुक्त करना चाहिए" ।
- इस प्रकार सूत्रकार स्वयं व्याकरण के नियम से छूट लेना चाहें, तो ले सकते हैं, पर प्रयोग करनेवाले को ऐसी छूट नहीं लेनी चाहिए, यह कहकर आलंकारिकों ने षष्ठी समास के निषेध पक्ष का अवलम्बन करने का आग्रह रखा है।
____०.४ पाणिनीय व्याकरण परम्परा (पा० व्या० प०) में काशिकाकार जयादित्य का मत भामह के समीप प्रतीत होता है। उन्होंने "जनिकर्तुः" पद का "जनेः कर्ता" = जनिकर्ता । - इस प्रकार विग्रह देकर यहाँ षष्ठीसमास होने का स्वीकार किया है, पर वह कैसे सिद्ध हुआ है, इस विषय में कोई निर्देश नहीं दिया। लगता है, उन्होंने "जनेः" पद में शेष षष्ठी मानकर षष्ठीसमास होना स्वीकार किया है। परन्तु, "तत्प्रयोजकः" में षष्ठीसमास माना है, पर उसकी सिद्धि पा० सूत्र से न हो सकने के कारण उन्होंने इस समास की सिद्धि निपातन से मानी है। इससे यह ज्ञात होता है कि काशिकाकार कर्ता में आये हुए तृच् और अक प्रत्ययान्त शब्दों का षष्ठीसमास नहीं हो सकता, इसी मत को स्वीकार करते हैं ।
काशिका की पदमञ्जरी टीका में हरदत्त ने "जनिकर्तुः" इस पाणिनि-प्रयोग के कारण "कर्तरि च।" इस प्रतिषेध को ही अनित्य घोषित किया है। और इस प्रकार वे उभयविध प्रयोग करने की छूट दिलाते हैं । "तत्प्रयोजकः" में काशिकाकार ने जो “निपातनात्समासः" । ऐसा कहा है, इस पर पदमंजरीकार का कथन है कि निपातन से समास मानना अनुपपन्न अर्थात् उचित नहीं है। क्योंकि "जनेः" तथा "तस्य" में शेषषष्ठी मानकर समास सिद्ध ही है।
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