________________
104
जयपाल विद्यालंकार
SAMBODHI
प्राकृत बोली में संवादों के कारण जीवन्त कर देता होगा। इस प्रसंग को यदि थोड़ा अभ्यास करके प्राकृत में व्यवधान-रहित पढ़ा जाये तो निश्चय ही मांस, रुधिर और शवों की दुर्गन्ध पाठक को आक्रान्त कर लेगी। यहाँ बीभत्स रस की अनुभूति का मुख्य आधार यह पैशाची प्राकृत ही है। दूसरी ओर कर्पूरमञ्जरी के दोलाझूलन-प्रसंग में प्राकृत भाषा के कारण गीति-सौन्दर्य, अनुप्रास-माधुर्य और पद-लालित्य को एक साथ अनुभव किया जा सकता है ।
रणन्तमणिणेउरं झणझणन्तहारच्छडं, कलक्कणिदकिङ्किणी मुहरमेहलाडम्बरं । विलोलवलआवलीजणिदम सिञ्जारवं, ण कस्स मणमोहणं ससिमुहीअ हिन्दोलणं ॥
कर्परमञ्जरी २-३२ झूले पर झूलती हुई सुन्दरी का यह रमणीय शब्दचित्र है। "उसके मणिनूपुरों से कैसी मीठी झंकार निकल रही है, उसका कण्ठहार किस प्रकार चमक-दमक रहा है, उसकी करघनी छोटे छोटे घुघुरवों से कैसी सुहावनी मालुम पड़ती है, उसके हिलते हुए कंकणों से कैसी प्रिय ध्वनि निकल रही है - ऐसी चन्द्रमुखी रमणी को देख भला किसका हृदय मुग्ध नहीं हो उठता ।" चन्द्रमुखी कर्पूरमञ्जरी के इस झूले ने सच-मुच प्रेक्षागृह में उपस्थित सहृदयों को मोहित किया होगा । इस सशक्त सम्मोहन में प्राकृत भाषा . का अनुगुंजन स्पष्ट अनुभव किया जा सकता है।
वस्तुतः भाषा या बोली, वह चाहे कोई भी हो केवल अर्थवान् शब्दों का समूह मात्र नहीं होती। भाषा, वक्ता के चिन्तन, सोच और मान्यताओं के आधार पर बने उसके समूचे व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति का माध्यम होती है । दृश्यकाव्य रूपक का रूपकत्व उसके सफल प्रयोग में है और यह प्रयोग अभिनय आश्रित है। आंगिक, वाचिक, आहार्य और सात्विक चतुर्विध अभिनय का प्राण, इनमें लयात्मक सामंजस्य है। इस समन्वय को बनाये रखने का दायित्व संवाद अर्थात् वाचिक अभिनय पर है । प्राकृत पात्रों के सत्य स्वरूप की यथार्थ अभिव्यक्ति उनकी अपनी भाषा के माध्यम से ही सजीव हो सकती है । इस अभिव्यक्ति का माध्यम प्राकृत भाषा ही हो सकती है परिष्कृत संस्कृत नहीं । ऊपर उद्धृत उदाहरणों में प्राकृत में प्रयुक्त शब्दों में सर्वत्र इस लय, ताल और गति को अनुभव किया जा सकता है ।
रूपक के दस तथा उपरूपक के अट्ठारह भेद शास्त्रकारों ने गिनाये हैं । इनमें से अनेक, विशेषतः उपरूपकों के उदाहरण गिने-चुने ही मिलते है। राजशेखर प्रतिष्ठित कवि थे, वे कान्यकुब्जेश्वर के आदरणीय गुरु थे । क्षत्रिय कुलोत्पन्न उनकी विदुषी पत्नी अवन्तिसुन्दरी भी, जिनके निर्देशन में कर्पूरमञ्जरी सट्टक का अभिमंचन हुआ, कम प्रभावशाली नहीं रही होंगी। राजशेखर ने शास्त्र की परवाह न करके विशुद्ध प्राकृत में यह रचना की और वह सौभाग्य से कालकवलित भी नहीं हुई। परन्तु सहस्रों वर्षों के इ
के इतिहास में न जाने और कितने राजशेखरों ने सट्टक, त्रोटक, गोष्ठी, रासक, शिल्पक, प्रकरणी, हल्लीश, भाण इत्यादि की रचनायें की होंगी । यह सब रचनायें आम लोगों की भाषा प्राकृत में हुई होंगी। अपने ही लोगों के बीच आये दिन यह खेली जाती होंगी । जन-सामान्य का भरपूर मनोरंजन भी इन क्रीड़नकों से होता होगा। परन्तु आज ये रचनायें कहीं दिखाई नहीं पड़ती, सब कालकवलित हो गईं। क्योंकि इन रचनाओं के रचयिता किसी राजा के गुरु नहीं थे, भद्रजनों का इन रचनाओं को आशीर्वाद प्राप्त नहीं था। यह भी आश्चर्य
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org