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Vol. XXVIII, 2005
प्राकृत-साहित्य में जनसामान्य की सशक्त अभिव्यक्ति
की ही बात है कि समूचे दृश्यकाव्य - साहित्य की गणना संस्कृत साहित्य में की जाती है। यद्यपि उसमें प्राकृत भाषा और प्राकृत बोलने वाले पात्र भरपूर है । इसका कारण, तथाकथित भद्रसमाज का गौरव और आम आदमी की सदा से स्वयं को छोटा समझने की मानसिकता, प्रतीत होता है ।
प्रथम शती के आस-पास सातवाहन राजा हाल ने, जो शालिवाहन नाम से भी जाने जाते हैं, उस कल में प्रचलित प्राकृत पद्यों का, जिनकी रचना प्रायः गाथा छन्द में है, संग्रह गाथासप्तशती नाम से किया । प्राकृत गाथाओं का संग्रह, यह गाहाकोश समय समय पर समृद्ध होता रहा। राजा हाल स्वयं भी अच्छे कवि थे। संगृहीत सात सौ गाथाओं में उनकी स्वयं रचित गाथायें भी हैं। इन गाथाओं की भाषा महाराष्ट्री प्राकृत है । हाल ने श्रृंगार रस से सनी सहस्रों गाथाओं में से सातसौ ऐसी गाथाओं का संकलन किया जिनमें उस समय के सामान्य लोगों के दैनिक जीवन की झलक सहज ही देखी जा सकती है । कृषक, आखेटक, ग्नाले, ग्वालिन, खेत की रखवाली करती बालाएं तथा अपने प्रेम प्रसंगों को आपस में कहती सुनती युवतियों के सुन्दर शब्दचित्र इन प्राकृत गाथाओं के आकर्षक विषय हैं। इन गाथाओं की लोकप्रियता इसी तथ्य से आंकी जा सकती है कि साहित्यशास्त्र के प्रायः सभी आचार्यों ने ध्वनि, रस, गुणीभूतव्यंग्य, अनेक प्रकार की नायिकाओं के उदाहरण इन गाथाओं में से जुटाये हैं । प्रत्येक गाथा अपने आप में पूर्ण है और एक सुन्दर शब्दचित्र उकेरती है । पन्द्रहवीं शताब्दी में वेमभूपाल ने इन सातसौ गाथाओं में से सौ को चुनकर सप्तशतीसार नामक संग्रह की रचना की । इसी संग्रह से कुछ उदाहरण देखिये -
कल्लं किर खर हिअओ पविसिहि, पिओत्ति सुण्णइ जनम्मि । तह वठ्ठ भअवइ निसे जह ते कल्लं विअ ण होइ | माहाकोठ- ४६
सुनते हैं कल प्रातः मेरे प्रियतम यात्रा पर जा रहे हैं। पुरुषों का हृदय होता ही बड़ा कठोर है । हे भगवति रात्रि ! इतनी बढ़ जाओ कि प्रातःकाल ही न हो। इस गाथा में नवोढ़ा की व्याकुलता, असहायता, परदेशी होनेवाले पुरुष की प्रकृति सिद्ध कठोरता के कारण कोमलस्वभावा स्त्रीलिंग रात्रि से अभ्यर्थना इत्यादि मनोभाव चित्रलिखित से होकर सहृदय के मानस पटल पर उभर आते हैं ।
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प्यासा पथिक पानी पिलाती हुई प्रमदा के चन्द्रमुख की सुधा का आकण्ठ पान कर रहा है I इस रोमांचकारी अनुभव का अधिक समय तक आस्वादन करने के लिये वह अपनी अंगुलियों के बीच से पानी निकल जाने देता है और कामिनी भी उत्कण्ठावश, पथिक के प्रति उदार होकर पानी की पतली धार को और भी पतली कर रही है ।
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उद्धच्छो पिअइ जलं जह जह विरलंगुली चिरं पहिओ । पावालिआ वि तह तह धारं तणुअं पि तणुएइ ॥ १३ ॥
एक और गाथा में दूती अपनी सखी की विरहवेदना को किस विदग्धता से कहती है
महिला सहस्स भरिए तुह हिअएँ सुहअ ठाणं अलहंति ।
णिच्चं अणण्ण कम्मा अंगं तणुअं पि तणुएइ ॥ ३८ ॥
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