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वसन्तकुमार भट्ट
SAMBODHI
अर्थात् भगवान् शङ्कर ने अपनी तीनों आँखों से पार्वती के मुखसौन्दर्य का पान किया । शङ्कर के मन में रतिरूप स्थायीभाव का उदय होने पर ही शृङ्गार का प्राकट्य होता है। यदि वल्लभदेव का इस 'विलोचनानि' जैसे बहुवचनान्त शब्दप्रयोग पर ध्यान नहीं जाता है, तो वह महाकवि के काव्य की व्यञ्जना को उद्घाटित करने में सफल नहीं रहे, ऐसा कहना होगा ।
(२)
टीकाकार वल्लभदेव कालिदास के शब्द-संचयन को भी शायद ठीक तरह से नहीं जान सके थे। इस बात का द्योतक प्रमाण निम्नोक्त है :
स देवदारुद्रुमवेदिकायां शार्दूलचर्मव्यवधानवत्याम् । ___ आसीनमासन्नशरीरपातस्त्रियम्बकं संयमिनं ददर्श ॥ (कु० ३-४४)
कामदेव ने देवदारु वृक्ष की वेदिका पर, शार्दूलचर्म बिछा कर बैठे हुए "त्रियम्बक शङ्कर" को देखा । - इस श्लोक में आये हुए "त्रियम्बक" से वैदिक शब्दप्रयोग पर वल्लभदेव लिखते हैं कि - "पादपूरणार्थम् इयादीनां छन्दसि विधानात् भाषायां त्रियम्बकशब्द इति प्रयोगो दुर्लभः [तस्मात्] 'महेश्वरम्' इति पठनीयम् । 'त्रिलोचन' इत्युपरचितपदन्यासेन तृतीयनेत्रत्वात् कामदेहदाहं सूचयति ।"
यहाँ पर वल्लभदेव की दृष्टि से 'त्र्यम्बक' शब्द के स्थान पर महाकवि कालिदास ने जो 'त्रियम्बक' ऐसे वैदिकशब्द का प्रयोग किया है, वह "दुर्लभ' है, अर्थात् दूसरे किसी भी कवि ने ऐसे शब्द का प्रयोग नहीं किया है । छन्दोबद्ध रचना के अवसर पर यदि पादपूर्ति (=अक्षरपूर्ति) करने के लिए यदि आवश्यक है तो वैदिकमन्त्ररचनाओं में 'व्यूह' करके एक या दो, अक्षर की संपूर्ति की जा सकती है। यथा त्र्यम्बकं यजामहे, सुगन्धि पुष्टिबर्द्धनम् ॥ (यजु०) जैसे मन्त्र के प्रथम पाद में आठ अक्षर नहीं होते हैं, अत: वहाँ मन्त्रोच्चारण के प्रसङ्ग में "त्रियम्बकं यजामहे" ऐसा पाठ करके अक्षरपूर्ति की जाती है। परन्तु टीकाकार वल्लभदेव कहते हैं कि ऐसे अक्षरपूर्ति करने का प्रघात तो 'छन्दस्', अर्थात् वेद में ही दिखाई पड़ता है। 'भाषा' में, अर्थात् लौकिक संस्कृत में तो 'त्र्यम्बक' शब्द ही उचित है । कालिदास के द्वारा किया गया त्रियम्बक शब्द का प्रयोग 'दुर्लभः' है।
वल्लभदेव इतना ही कहकर नहीं रुके हैं। उन्होंने, अपनी ओर से "महेश्वरम्" ऐसा एक अपूर्व पाठान्तर भी प्रस्तावित किया है । उसी तरह से दूसरे कोई 'पाठालोचक' (?!) ने 'त्रिलोचन' जैसा दूसरा पाठान्तर भी प्रवर्तित किया है उसका भी उल्लेख वल्लभदेव करते हैं ।
इस टीका को देखकर कोई भी बहुश्रुत विद्वान् मल्लिनाथ के साथ इस बात पर सम्मत होगा कि वल्लभदेव जैसे टीकाकारों के द्वारा कालिदास की काव्यवाणी 'दुर्व्याख्याविषमूर्छिता' हुई है। क्योंकि - काव्यसर्जन करते समय कालिदास के सम्मुख शब्दों 'अहम् अहमिकया' जब उपस्थित होते थे, तब वे कुत्रचित् वैदिक शब्दों का भी चयन करके काव्यगुम्फन किया करते थे । रसिकजन इस बात से अवगत हैं कि कालिदास ने - (१) विक्रमोर्वशीय के नान्दीश्लोक में 'रोदसी' शब्द, (२) कुमारसम्भव में शितिकण्ठ,
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