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... आध्यात्मिक साधना के क्षेत्र में गुरु पद का बड़ा महत्व है। अन्य कोई पद इसकी समानता नहीं कर सकता। गुरु हमारी जीवन नौका. के खेवैया है। आध्यात्मिक जीवन मन्दिर के वे ही प्रकाशमान दीपक हैं। उनकी दया दृष्टि से ही हमें वह ज्ञान-प्रकाश प्राप्त होता है जिससे हम जीवन की विकटतम घाटियों को भी सानन्द पार कर सकें । संसार के काम, क्रोध, लोभ
आदि भयंकर आवों में हमको कुशलतापूर्वक पार उतारने में वे ही समर्थ . हैं । विनयपूर्वक गुरुदेव को वन्दन करना ही इस पाठ का प्रयोजन है । __ पाठ के प्रारम्भिक शब्द 'तिक्खुतो आयाहिणं पयाहिणं करेमि' वंदन की विधि को स्पष्ट रूप में अभिव्यक्त करते हैं। फिर 'वंदामि नमसामि सक्कारेमि सम्माणेमि' ये ४ पद गुरुदेव के प्रति विनय, भक्ति और बहुमान व्यक्त करते हैं। .
. . देखने में यद्यपि शब्द 'वंदामि नमसामि' तथा 'सक्कारेमि सम्माणेमि' समानार्थक प्रतीत होते हैं । पर प्रत्येक शब्द का अर्थ भिन्न-भिन्न है । वंदामि का अर्थ वंदन-अभिवादन करना, मुख से गुणगान करना अर्थात् वाणी द्वारा स्तुति करना ही वंदन है।
'नमसामि' का अर्थ नमस्कार करना है। नमस्कार मन और तन से हो । यदि ऊपर से मस्तक झुक रहा है पर साधक के मन में श्रद्धा की वलवती तरंगे हिलोरे नहीं मार रही हो तो ऐसा नमस्कार निष्प्राण है, शून्य मात्र है। . . . . . . . . . . . . . . ....सत्कार का अर्थ मन से आदर करना है और सम्मान का अर्थ है खड़े होकर आसन आदि की निमंत्रणा से वहमान देना। अन्य सभी वस्तुओं, व्यक्तियों और कार्यों से गुरुदेव को अधिक महत्व देना ही उनका बहमान है । गुरुदेव का प्रागमन सुनते ही मन समस्त सांसारिक कार्यों से विमुक्त • हो गुरु सेवा में संलग्न हो जाना चाहिये । प्रथम चक्रवर्ती भरत की भक्ति गरुदेव के प्रति बहमान का आदर्श उदाहरण है। एक ओर हम हैं जो घन्टे भर के लिये भी सांसारिक कार्य नहीं छोड़ सकते हैं, दूसरी ओर हमारे से हजार-हजार गुना अधिक व्यस्त, अधिक जिम्मेदारी के पद पर आसीन चक्रवर्ती भरत हैं जो भगवान ऋषभदेव का आगमन सुनते ही पुत्रजन्मोत्सव और चक्र-रत्न की उत्पत्ति का मंगल महोत्सव छोड़ कर प्रथम भगवान के चरणों में जाकर ज्ञान का महोत्सव मनाते हैं। धन्य है उनके वहुमान भाव को!" . .. 'कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं' आदि पदों में परमं पुनीत गुरुदेव के चरणों की विशेषता बतलाई गई है। ये गुण संक्षेप में इस प्रकार हैं- ..