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घनोभूत हो जाता है, मानव सत्यासत्य का भान भूल जाता है, वह कुदेव को देव, कूगुरु को गुरु व कूधर्म को धर्म मानने लग जाता है, तब ऐसी दशा में तीर्थंकर भगवान ही उसे सच्चा बोध कराते हैं। वे ही मानव को व्यवहार और निश्चय सम्यक्त्व का पाठ पढाते हैं वे ही प्राणी को देव, गुरु व धर्म रूप तत्वत्रय का सच्चा वोध कराते हैं, अत: इन्हें बोधिदाता कहा गया है।
२१. धम्मदयारणं (धर्मदाता)-तीर्थंकर भगवान ही धर्म के दाता हैं । यद्यपि धर्म देने-लेने की वस्तु नहीं है, पर तीर्थंकर भगवान अपने-अपने समय में सर्वप्रथम धर्म प्रवर्तन करते हैं तथा जनता को सच्चा धर्म श्रवण कराते हैं, अतः उन्हें व्यवहार में धर्मदाता कहा गया है।
२२. धम्मदेसयारण (धर्मोपदेशक)-तीर्थंकर भगवान एक मायने में अन्य केवलियों से विशिष्ट हैं। सामान्य केवली कैवल्य प्राप्ति के अनन्तर धर्मदेशना देते या नहीं भी देते पर तीर्थंकर भगवान कैवल्य प्राप्ति के पश्चात् अपनी ज्ञानप्रभा चहुं ओर प्रसारित कर जन-जन का कल्याण करते ही हैं वे ग्राम नगर विचरण कर अवश्य धर्मदेशना देते हैं। अतः उनको धर्मोपदेशक कहा गया है।
२३. धम्मनायगारग (धर्मनायक)-तीर्थकर भगवान ही धर्म के नायक है। धर्म-संघ उन्हीं की प्राज्ञा में चलता है। उनके जीवनकाल में ही नहीं वरन् उनके निर्वाणोपरान्त भी अन्य तीर्थंकर के जन्म तक उन्हीं का शासन चलता है । समस्त धार्मिक अनुष्ठान उनकी आज्ञा से ही किये जाते हैं।
२४. धम्मसारहीरण (धर्म रथ के सारथि)-तीर्थंकर भगवान धर्म रथ के सारथि हैं। धर्म रूपी रथ के साधू, साध्वी, श्रावक और श्राविका सवार हैं तथा तीर्थकर भगवान इसके कुशल चालक हैं । रथ-संचालन सारथि की कुशलता पर ही निर्भर करता है। तीर्थंकर देव से अधिक कुशल सारथि और कौन हो सकता है। ..
२५. धम्मवर चाउरत-चक्कवट्टीण (धर्मवर-चतुरंत-चक्रवर्ती) तीर्थंकर भगवान ने नरक, तिथंच, मनुष्य व देव इन चारों गतियों का अन्त कर सम्पूर्ण विश्व पर अपनी अहिंसा सत्य रूप धर्म साम्राज्य स्थापित किया है अतः वे धर्म के चतुरंत चक्रवर्ती कहलाते हैं। यह धर्मचक्र ही विश्व में सच्ची शान्ति स्थापित कर संसार को एक सूत्र में प्राबद्ध कर सकता है। वस्तुतः तीर्थंकर भगवान चक्रवर्तियों के भी चक्रवर्ती हैं। चक्रवर्ती सम्राट भी उनकी पदधूलि में मस्तक नवां कर अपने आपको गौरवान्वित समझते हैं।
सामायिक-सूत्र | ५६