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कमल हैं । उनके अहिंसा, सत्यादि सद्गुणों की सौरभ उनके अपने समय में नहीं, वरन् हजारों लाखों वर्षों बाद आज भी जन-मानस को आन्दोलित करती रहती है, हजारों भावुक हृदयों को अपनी महक से महका रही है। उनका जीवन पूर्ण वीतराग, निर्मल, शुद्ध और शुभ्र होता है । .......
६. पुरिसवर-गंधहत्थोरणं (पुरुषवर-गंधहस्ती)-तीर्थकर , भगवान मानव जाति में गंधहस्ती के समान हैं । गंधहस्ती वीरता एवं सुगन्ध दोनों का ही धनी है । रणक्षेत्र में गंधहस्ती के आते ही अन्य हाथी भयभीत हो पलायन कर जाते हैं । वैसे तीर्थकर भगवान भी असीम वल व अनन्त गुणों के निधान हैं । उनका पदार्पण होते ही मिथ्यामतियों का जोर समाप्त हो जाता है।
१०. लोगुत्तमारणं (लोकोत्तम)-तीर्थंकर भगवान तीनों लोकों में उत्तम-श्रेष्ठ रत्न हैं । सुर, नर, किन्नर कोई भी उनकी वरावरी नहीं कर सकता। उनके परम औदारिक शरीर के आगे देवताओं का वैक्रिय शरीर. भी तुच्छ है । उनके ऐश्वर्य के आगे हजारों हजार इन्द्रों का ऐश्वर्य भी नगण्य है।
११. लोग-नाहारणं (लोकनाथ)-तीर्थंकर भगवान लोक के नाथ हैं। उनके ऊपर कोई नाथ नहीं है, अतः वे ही इस लोक के. नाथ होने योग्य.. हैं । वे प्रेम, क्षमा और शान्ति के बल से अपने असीम प्रेम साम्राज्य में विश्व का शासन करते हैं ।
१२. लोग-हियारणं (लोक-हितकारी)-तीर्थकर भगवान समस्त विश्व का हित करने वाले हैं। उनके मन में न तो राग-द्वेप की भावना है
और न ही किसी जाति, धर्म या पक्ष के प्रति व्यामोह की भावना । यद्यपि उन्होंने अपना कार्य सिद्ध कर लिया है, तथापि वे संसार दावानल में जलते हुए प्राणियों को देख कर असीम करुणा करते हैं तथा उन्हें सन्मार्ग दिखा कर बचाते हैं। तीर्थंकर भगवान ही ऐसे व्यक्ति हैं जो बिना किसी स्वार्थ या कामना के अन्यों का हित साधन करते हैं।
१३. लोग-पईवारणं (लोक प्रदीप)-तीर्थंकर भगवान लोक में दीपक के समान हैं । दीपक के समान ही वे प्रकाश करने के साथ ही अन्यों को. भी प्रकाशदाता बनाने वाले हैं। दीपक अपने संसर्ग में आये हए सहस्रों दीपों को अपने समान बना देता है। यह उसकी निजी विशेषता है। तीर्थंकर भगवान भी वे प्रदीप हैं जो भक्त को सदा भक्त ही नहीं रखना चाहते । वे भक्त को भी भगवान याने अपने समकक्ष बना लेते हैं। उनकी सेवा में पाकर सेवक भी सेव्य और पुजारी भी पूज्य वन जाता है। .
सामायिक - सूत्र / ५४