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- २६: दीवोतारण सरण गई पइठ्ठा-तीर्थकर भगवान इस संसार समुद्र में द्वीप-टापू के समान हैं जहां आकर प्रत्येक प्राणी सुरक्षित रहता है। वे त्राण रक्षक हैं। ऐसे परम उपकारी तीर्थंकर देव दूसरों के लिये शरण रूप हैं । वे गति एवं प्रतिष्ठा रूप हैं। ..
२७. अप्पडिहय - वर - नारण - दसवधराण- (अप्रतिहतज्ञानदर्शनधारक)-तीर्थंकर भगवान अप्रतिहत ज्ञान दर्शन के धारक हैं। उनका ज्ञान निर्वाध है। उनके ज्ञान की कोई सीमा नहीं है । वह सर्वोत्कृष्ट, असीम व अनन्त हैं । विश्व के प्रत्येक रूपी अरूपी पदार्थ को वे हस्तीमलकवत् देखते हैं। उन्हें ज्ञान के लिए प्रयास कर जान की आवश्यकता नहीं है। प्रत्येक पदार्थ उनके ज्ञानचक्षं के समक्ष ज्ञात होते हैं। वे प्रत्येक समय की प्रत्येक बात (भूत, भविष्यत व वर्तमान सम्बन्धी) जानते हैं। स्पष्ट है कि जैन धर्म. उसे ही अपना पाराध्य स्वीकार करता है जो पूर्ण है । जिसमें अपूर्णता है वह आराध्य नहीं हो सकता, भले ही आराधक हो। तीर्थंकर का ज्ञान दर्पणवत् ज्ञेय का प्रतिविम्ब ग्रहण करता है । . . . " .. २८. विप्र छउमाणं (छद्म रहित) तीर्थंकर भगवान को सूत्रकार ने छद्म रहित कहा है । छद्म के दो अर्थ हैं-आवरण व छल । ज्ञानावरणी यादि घनघाती कर्म आत्मा के अनन्त गुरणों पर आवरण करते हैं। तीर्थंकर भगवान ने इस आवरण को सर्वथा हटा दिया है। दूसरे उनके जीवन में न तो कोई छल-कपट है और न ही कोई दुराव-छिपाव । वे सबके लिए एक समान निश्छल हैं । वे स्व को प्राप्त परम सत्य निश्छल हृदय से आबाल. वृद्ध सबके समक्ष प्रकट करते हैं । कपट की तरह उपलक्षण से क्रोध, मान, लोभ, कषाय से भी वे रहित हैं । अतः उन्हें छद्म रहित कहा गया है। .
२६. जिरगाणं जावयाणं (जिन व जापक)-तीर्थकर भगवान स्वयं राग-द्वेष के विजेता हैं व दूसरों को भी इन राग द्वषादि शंत्रों पर विजय प्राप्त करवाते हैं। वे पहले स्वयं विजयी होकर जनता को विजय का मार्ग बताते हैं।
. ३०. तिन्नाणं तारयाणं (तीर्ण व तारक)-तीर्थंकर भगवान स्वयं इस संसार समुद्र से पार हो गये हैं व दूसरों को भी संसार सागर से पार करते हैं । ... ........
३१. बुद्धारण बोहयारण (बुद्ध व बोधक)- तीर्थंकर भगवान ने स्वयं ..। सही बोध प्राप्त कर लिया है और वे दूसरों को भी यह सम्यक् वोध देते हैं। ....३२. मुत्तारणं मोयगारणं (मुक्त व मोचक)-तीर्थकर भगवान स्वयं . कर्म बन्धनों से मुक्त हैं व दूसरों को भी इन बन्धनों से मुक्त करते हैं। ...
.. . सामायिक-सूत्र / ५७