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... १४. लोकपज्जोयगराणं (लोक प्रद्योतक)-तीर्थंकर भगवान लोक में प्रकाश करने वाले हैं। जब धरातल पर अज्ञान अपना साम्राज्य स्था- . . - पित कर लेता है, विश्व मिथ्यात्व के प्रावरण में गिर जाता है, जनता
सत्य धर्म का मार्ग विस्मृत कर जाती है तब तीर्थकर भगवान अपने शुभ्र केवल-ज्ञान का प्रकाश फैला कर, मिथ्यात्व तिमिर का निराकरण कर अपनो ज्ञान प्रभा से लोकत्रयी में धर्मोद्योत करते हैं। . ..
१५. अभयदयारणं (अभयदय)-तीर्थंकर भगवान प्राणी मात्र को अभय देने वाले हैं। विरोधी से विरोधी के प्रति भी वे करुणा भाव ही ... रखते हैं। संसार के मोह मिथ्यात्व रूप सघन वन में भटकते हुए भय
संत्रस्त प्राणियों को सन्मार्ग पर लगा कर वे उन्हें चार गति के भय से भयमुक्त करते हैं। ऐसे अभयदाता तीर्थकर भगवान का कितना महान अनुकम्पापूर्ण कार्य है।
१६. चक्खुदयारणं (चक्षुर्दय)-तीर्थंकर भगवान को नेत्रदाता कहा गया है । वे जनता को ज्ञान नेत्र प्रदान करते हैं। जब हमारी प्रोखों के समक्ष अज्ञान का जाला छाया रहता है और आत्मा के ज्ञान नेत्र सत्यासत्य
की परख में असमर्थ हो जाते हैं, तव तीर्थंकर भगवान ही इस जाले को • दूर कर विवेक शक्ति प्रदान करते हैं। . ...... ... .. ... -. . .१७. मग्गदयारणं (मार्गदय)-हर अात्मा में ऊपर उठने की, मुक्ति
मंजिल प्राप्त करने की चाह है। वह अनेक वार इस हेतु प्रयास कर चुकी है । पर सही मार्ग के नहीं जानने से वह अपने मार्ग से भटक गयी है। 'विपरीत मार्ग पर गमन कर उसने अपनी यात्रा बढ़ा ली है। तीर्थंकर
भगवान इस पथ-भ्रांत यात्री को सही व. लघूतम मार्ग बताते हैं। अतः : उनको मागदाता कहा गया है। ... ... १८. सरणदयारणं (शरणदय)-प्रात्मा के पीछे अनादि काल से कर्म लगे हुए हैं। ये कर्मशत्रु उसे निरन्तर सता रहे हैं। आत्मा उनसे पिंड़ छुड़ाना चाहती है पर उनका कर्म जाल इतना गहन है कि उनसे छुटकारा पाने का कोई चारा शेष नहीं रह जाता। ऐसी विकट दशा में तीर्थंकर भगवान ही उसे अपनी शरण में रख कर कर्म शत्र को पराजित करने का उपाय सुझाते हैं और कर्मपाश से बचाते हैं । अतः वे शरणदाता हैं । . ... ..१६. जीवदयारणं (जीनवदाता) तीर्थंकर भगवान जीवनदाता हैं।
वे मानव को असंयम जीवन से उवार कर संयम का भाव जीवन प्रदान ... करते हैं । ऐसा जीवन ही वस्तुतः सच्चा जीवन है । २०. बोहिदयारणं (सम्यक्त्वदाता)-जव विश्व में मिथ्यात्व तिमिर ..
: सामायिक - सूत्र / ५५ .