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विवेक धर्म का मूल है । 'धम्मो विवेग माहिए'। ऐपिथिको सूत्र जहाँ एक अोर विनय-भावना का स्वतः स्फूर्त रूप प्रकट करता है, वहाँ दूसरी ओर जैन धर्म की विवेक प्रधान सूक्ष्म-भावास्पंदित दयालुता की पवित्र भावना से ओत-प्रोत भगवती- अहिंसा का मूर्त रूप भी प्रस्तुत करता है। इसमें गमनागमन के समय सूक्ष्म जीव से लेकर वृहत्तम जीवों की सूक्ष्मतम हिंसाजन्य पापों के लिए प्रायश्चित कर अपनी आत्मा को स्वच्छ निर्मल बनाने का पवित्र सन्देश है । सभी दर्शनों, धर्मो एवं सूत्रों में यह अपने आप में अनूठा है।
जरा गौर से देखें । सूत्रकार की दृष्टि कितनी पैनी है ? पाठों का उच्चारण करते-करते सहज ही हृदय अहिंसा की मंगलमयी भावना से अनुपूरित हो जाता है। ___'इच्छाकारेणं संदिसह भगवं, इरियावहियं पडिक्कमामि'
वाक्यांश में साधक भगवान से या गुरु महाराज से गमनागमन में लगे हुए पापों की विशुद्धि हेतु आज्ञा लेने का उपक्रम करता है। विनय और नम्रता का कितना उदात्त भाव है कि यदि आपकी इच्छा हो तो मार्ग में चलने की क्रिया रूप पाप से निवृत्त होने के लिये प्रायश्चित करूं ? अपने पापों की आलोचना करने हेतु भी गुरुजन की स्वीकृति । कितना उदात्त आदर्श है ? 'इच्छं' इच्छामि, मडिक्कमिडं, इरियावहियाए' विराहणाए वाक्यांश में भगवान की प्राज्ञा शिरोधार्य कर इस इच्छा को पुनः दोहराया गया है । ___ 'पाणक्कमणे....मकडा संताणा संकमणे' वाक्यांश में सूक्ष्म जीवों का उल्लेख है जैसे बीज, वनस्पति, अोस, कीड़ी, काई, जल, मिट्टी और मकडी के जाले आदि ।
फिर 'जे मे जीवा विराहिया' में जीवों के प्रति हुए विराधना-उन्हें दी गयी पीड़ा की ओर संकेत है । ये जीव कौनसे ? प्रत्युत्तर में सूत्रकार ने सम्पूर्ण जीवों को एक साथ लेने की दृष्टि से पांच जातियों में जीव को बांटा है । ये हैं-एकेन्द्रिय, वेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चउरद्रिय और पंचेंन्द्रिय । . जीवों की हिंसा-विराधना किस प्रकार ? इसका समुत्तर तो अत्यन्त सूक्ष्म व पैनी. दृष्टि से देखने योग्य है। 'अभिहया............ववरोविया' सूत्रांश में जीवहिंसा के दस प्रकार वर्णन किये गये हैं। इतनी सूक्ष्म हिंसा के लिये भी हार्दिक अनुताप । अहिंसा की कितनी बारीकी। किसी को मारना ही पाप नहीं वरन् किसी के साथ टकराना, उसे पीड़ा पहुँचाना भी पाप है। किसी भी जीव की स्वतन्त्रता में किसी भी तरह की बाधा
सामायिक-सूत्र / २६