Book Title: Samayik Sutra
Author(s): Gyanendra Bafna
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal

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Page 32
________________ सूत्र के अग्रभाग 'तस्स उत्तरी...........ठामि काउस्सगं' में कायोत्सर्ग के उद्देश्य बताये गये हैं। संस्कार (अशुद्धि निवारण) के तीन प्रकार वताये गये हैं-दोष मार्जन, हीनांगपूत्ति एवं अतिशयाधायक । प्रत्येक पदार्थ इन तीन संस्कारों से अपनी सत्य दशा में पहुँच पाता है। प्रथम दोप-मार्जन संस्कार, दोषों को दूर करता है । दूसरा हीनांगपूर्ति संस्कार (शेप दोपों को सर्वथा समाप्त करने) में हीनताओं को मिटा पूर्णता का प्रतिष्ठापन करता है। तीसरा संस्कार दोष रहित हुए पदार्थ में विशेष गुण उत्पन्न करता है । व्रत-शुद्धि के लिये भी ये तीन संस्कार माने गये हैं। आलोचना एवं प्रतिक्रमण के द्वारा स्वीकृत व्रत के आलस्य व असमर्थतावश लगे दोषों, अतिचारों की विशुद्धि की जाती है । यह कार्य पालोचनासूत्र द्वारा किया जाता है । इसके बावजूद भी कुछ पाप मल शेष रह ही जाते हैं। कायोत्सर्ग द्वारा इन्हें भी दूर करने का प्रयास किया जाता है । यह संकल्प हम इस 'तस्सउत्तरी' सूत्र के पाठ से करते हैं। ___'अन्नत्थ..........दिद्विसंचालेहि' में इस कायोत्सर्ग में लगने वाले दोषों के लिये कुछ प्रागार रखे गये हैं । यद्यपि कायोत्सर्ग का अर्थ ही शरीर की ओर से ध्यान हटा कर इसे पूर्णतया स्थिर कर आत्मिक प्रवृत्तियों में लगाना है । इसके द्वारा मन, वचन व शरीर में दृढ़ता का संचारण होता है, तथापि शरीर के कुछ व्यापार ऐसे हैं जिन्हें कि दृढ़ से दृढ़ साधक भी वन्द नहीं कर सकता । इन क्रियाओं से भी ध्यान में विक्षेप होता है । अतः इस विक्षेप के लिये व्रत व प्रतिज्ञा धारण करते समय इसमें कुछ. आगार (छूटें) रखना आवश्यक है । एतदर्थ इन अागारों का उल्लेख किया गया है । ये सभी शरीर सम्बन्धी क्रियायों से सम्बन्धित है जो कि रोकी नहीं जा सकती। ___ 'एवमाइएहिं अागारेहि' शब्दों द्वारा इन शारीरिक क्रियाओं के अतिरिक्त भी अन्य सम्भावित विशिष्ट कमणों के लिये छूट का विधान किया गया है, जैसे राजा द्वारा बल प्रयोग या देव द्वारा वल प्रयोग और जल, अग्नि आदि का उपद्रव । .. 'अभग्गो अविराहियो हज्ज. मे काउसग्गो' द्वारा साधक यह स्पष्ट करता है कि इन उपर्युक्त क्रियाओं से जो कि मैंने आगार रूप में रखी हैं; ध्यान न तो टूटा हुआ ही माना जाय और न ही दूषित । 'जाव अरिहंताणं............वोसिरामि' पाठ में साधक कायोत्सर्ग की . प्रतिज्ञा स्वीकार करता है। साथ ही वह इस प्रतिज्ञा की समाप्ति के लिये भी शब्दों का उल्लेख करता है कि जब तक मैं 'नमो अरिहंतारणं' न कहूँ सामायिक - सूत्र / ३२

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