Book Title: Samayik Sutra
Author(s): Gyanendra Bafna
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal

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Page 22
________________ उनकी श्रद्धा युक्त भक्ति ही संसार के बन्धनों से मुक्त कराने में समर्थ है। सांसारिक देवी-देवता जो स्वयं चौरासी के चक्कर में भव-भ्रमण कर रहे हैं, जो हमारी ही भांति अष्टकर्म से युक्त हैं तथा अपूर्ण ज्ञानी हैं, वे वन्धन से मुक्त करने में सक्षम नहीं होते। फिर भी मिथ्यात्वी इनके जाल में फंस कर इनसे आशा रखते हैं और ये तथाकथित भक्तों से भेंट चाहते हैं। कंसी विडम्वना है ? "कु देवता पास जावे, हाथ जोड़ आडियां खावे, रगड़ २ नाक उन सारे दिन सेवता । __ धूप लावो, दीप लावो,नेवेद नारेल लावो, मेवा मिष्ठान लावो लावो ही लावो वे केवता । तूं तो जावे देव पास, देव करे थारी मास, मन में विचार मूढ, ये देवता है के लेवता । कहे मुनि रिखवचन्द मन में विचार कर, प्रांधला की नाव को ये आंधला ही खेवता ।। • गुरु निम्रन्थ देव की भांति गुरु का पद भी आध्यात्मिक प्रगति में प्रमुख सहायक है । आत्मिक विकास में गुरु का स्थान अत्यन्त महत्यपूर्ण है। जैन धर्म का अनुयायी गुरु के मात्र वेश का नहीं पर त्याग, तप और सद्गुणों का भक्त होता है। यहाँ गुरु किसी वेश या नाम से नहीं वरन् गुणों से माना गया है। जो महापुरुष किसी प्रकार की गठरी व गांठ नहीं रखते, जिनके पास न धन, न माया की गठरी है और न ही राग-द्वेष की अन्तर्मन में गांठ। ऐसे समभावी, पांच महाव्रतों के पालक सन्त ही सच्चे गुरु हैं। समकिती हमेशा ऐसे निर्ग्रन्थ मुनिराज को ही गुरु समझता है न किसी सम्प्रदाय या वेश को । वह किसी सम्प्रदाय विशेष या वेश विशेष का मोह नहीं रखता। वेश को व्यवहार में चिन्ह मानता है। बोध प्राप्ति में किसी सन्त विशेष का उपकार मानते हुए भी सब संयमी साधुओं की नेवा करता है। • धर्म केवली प्ररूपित . .आत्मिक गुणों को धारण करना ही धर्म है । सच्चा धर्म वही है जो पूर्ण ज्ञानी, केवल-ज्ञान, केवल-दर्शन के धारक अरिहंत भगवान द्वारा बताया गया है । जिनवाणी के अनुसार दया ही धर्म का मूल है। जहाँ दया है वहाँ धर्म है। जहाँ हिंसा है वहाँ अधर्म है । चाहे हिंसा धर्म के नाम पर ही क्यों न हो फिर भी वह धर्म रूप नहीं हो सकती। धर्म तो स्व पर की रक्षा में है न कि भक्षण में, हत्या में। स्पष्ट है कि यज्ञादि कार्य धर्म के अंग नहीं कहे जा सकते । विश्व में एक मात्र जिनेश्वर देवों द्वारा प्ररूपित सामायिक-सूत्र | २२

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