Book Title: Sajjanshreeji Maharaj Abhinandan Granth
Author(s): Shashiprabhashreeji
Publisher: Jain Shwetambar Khartar Gacch Jaipur

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Page 14
________________ ( १० ) का प्रतिनिधि अन्य शब्द शायद हो नहीं सकता था । मुझे विश्वास है यह शब्द ग्रन्थ की सम्पूर्ण गरिमा को स्वयं अभिव्यक्ति दे रहा है । ग्रन्थ के पाँच खण्ड -' - 'गुरु' जिस प्रकार रत्नत्रय का मध्यबिन्दु है, उसी प्रकार पाँच-परमेष्ठी का भी - अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु पद में केन्द्रीय शक्ति है । पाँच पदों का प्रतिनिधित्व गुरु में मूर्तिमन्त है, इस कारण इस ग्रंथ को पांच खंडों में विभक्त करने का निश्चय किया गया । पाँचों ही खण्ड अपने-अपने विषय की सुन्दर, सारपूर्ण तथा मौलिक सामग्री से युक्त है । यह सामग्री इतनी गहन भी नहीं है, कि आम आदमी इसे पढ़कर समझ न सकें और इतनी सामान्य भी नहीं है कि ग्रंथ की गुरुता का अहसास न हो । मेरे विचार में संपादक मंडल ने काफी सन्तुलित दृष्टि से सामग्री का चयन किया है, जिसका सामयिक महत्व तो है ही, स्थायी और सार्वदेशिक मूल्य भी है, और युग-युग तक एक मापदंड बनकर रहेगा । क्षमा याचना एवं आभार - दर्शन ग्रन्थ के लिये निबन्ध आदि सामग्री भी विपुल मात्रा में आई जिसमें श्रेष्ठता के आधार पर चयन करना पड़ा। जिन मान्य लेखकों ने हमारे आग्रह को स्वीकार कर लेख भेजने का सौजन्य पूर्ण श्रम किया, मैं उनके प्रति भी आभारी हूँ तथा जिनके लेख उत्तमकोटि के होते हुए भी ग्रन्थ की पृष्ठ संख्या, समय सीमा आदि को ध्यान में रखकर, हम छाप नहीं सके, उन मान्य लेखकों के प्रति भी आभार व्यक्त करते हुए उनसे क्षमा भी चाहती हूँ कि उनके श्रद्धा - सौजन्यपूर्ण श्रम का यथोचित सम्मान नहीं कर सके । अस्तु, श्रद्धार्चना, संस्मरण भेजने वाले बन्धुओं से तो विशेष रूप में क्षमा चाहती हूँ कि उनकी भक्तिपूर्ण विस्तृत शब्दावली को बहुत ही संक्षेप देना पड़ा । यदि प्राप्त सामग्री को उसी रूप में प्रकाशित की जाती तो संभव है यह ग्रन्थ एक हजार पृष्ठ का बन जाता । यद्यपि श्रद्धा सुमन प्रेषित करने वाले सभी श्रद्धालुजनों का नामोल्लेख यथास्थान अवश्य हुआ है, अतिविलम्ब से प्राप्त होने वाले कुछ अनेक वरिष्ठ नाम सबसे अन्त में देने पड़े, फिर भी सामग्री कम करने या भूल से कोई नाम रह जाने के कारण किसी के श्रद्धालुमन को आघात लगा हो, तो वे भी सम्पादन-मर्यादा को समझकर क्षमा करेंगे । इस ग्रन्थ के मुद्रण प्रकाशन के समय हमारे श्रद्ध ेय गणी श्री मणिप्रभसागरजी म. की जयपुर में उपस्थिति तथा उनका सूझबूझ पूर्ण मार्गदर्शन, कुशल संयोजन हमें प्राप्त हो सका यह भी हमारे लिए कर सिद्ध हुआ, मैं आपश्री के प्रति किन शब्दों में कृतज्ञता व्यक्त करूँ । आज इस ग्रंथ की सम्पन्नता पर आत्म-विभोर हूं, अपनी उत्कृष्ट हार्दिक इच्छा को साकार होते देखकर पूर्ण सन्तुष्ट भी पुनः सभी सहयोगी सज्जनों का व विशेषकर विद्वत्न बंधु श्रीचन्दजी सुराना व भाई पुखराज जी लूणिया का हृदय से आभार मानती हूँ, कि मुझ जैसी संपादन कला में अनुभव रहित साध्वी के सत्संकल्पों को उन्होंने अपने ज्ञान अनुभव व साधनों का बल देकर एक सुन्दर भव्य रमणीय ग्रन्थ का स्वरूप प्रदान कर दिया । पुन: पूज्य गुरुवर्या के चरणों में वन्दना के साथ उनके आरोग्यमय दीर्घजीवन की मंगलकामना ! Jain Education International For Private & Personal Use Only - साध्वी शशिप्रभाश्री www.jainelibrary.org

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