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- अभिनन्दन ग्रंथ संकल्पना की लम्बी कहानी है, किन्तु यहाँ उसकी चर्चा न करके, सिर्फ मुख्य बिन्दु पर ही आती हूँ । इस आयोजन के लिए सर्वप्रथम सहयोगी मिले-भाई पुखराजचन्द जी लूनिया । प्रवर्तिनीधीजी के संसार पक्षीय सहोदर श्री केसरीचन्दजी लूणिया के सुपुत्र-पुखराजजी प्रतिभाशाली उत्साही युवक हैं । देश-विदेश में व्यापार कार्य का विस्तार होने से उनको समय बहुत कम मिलता है, फिर भी हमारी भावना जानकर के एकदम भाव-विभोर हो उठे, और हर प्रकार के सम्पूर्ण सहयोग के लिए संकल्पबद्ध हुए । उनकी धर्मपत्नी श्रीमती रत्ना लूणिया तो और भी अधिक उत्साहित और भावनाशील थीं । दोनों ही पति-पत्नी समान विचार व समान रुचिसम्पन्न होने के कारण उनका सर्वथा प्रकारेण सहयोग सहज ही प्राप्त हो गया और हम योजना को मूर्तरूप देने में संलग्न हुए । पुखराजजी की भावना को उनकी माता तथा भाइयों ने पुष्ट किया तथा ग्रंथ प्रकाशन के कार्य में सहयोग प्रदान किया, विशेषकर माणक लूणिया तथा सायर लूनिया ने ।।
मेरी सहयोगिनी साध्वी प्रियदर्शनाश्री जी, साध्वी सम्यग्दर्शनाश्रीजी इस कार्य में जुट गईं, और साथ ही जैन साहित्य के प्रसिद्ध विद्वान, अनेक अभिनन्दन-ग्रन्थों के अनुभवी संपादक आत्मबन्ध श्री श्रीचन्द जी सूराना "सरस" का भी सहयोग प्राप्त किया। इसी के साथ श्री सुरेन्द्रकुमार ज्योतिकुमार कोठारी, मदनलालजी शर्मा, महेन्द्र जैन, श्रीविनयसागर जी व श्रीमती शान्ता भानावत, पवन सुराणा आदि अनेक विद्वान, कार्यकर्ताओं का सहकार प्राप्त होता गया और यह योजना मूर्त रूप लेने लगी।
खरतरगच्छ संघ, जयपुर के मंत्री श्री उत्तमचन्दजी बड़ेर तथा संघ के मान्य श्रेष्ठी सौजन्यमुर्ति श्रीविमलचन्दजी सुराणा आदि सभी कार्यकर्ताओं का अनुकूल सहयोग इस "मणी" ग्रन्थ की सफलता का मूलाधार हैं।
हाँ, अब प्रस्तुत ग्रन्थ के विषय में दो शब्द कहना चाहूँगी।
पूज्य प्रवर्तिनी श्रीजी का जीवन धर्म-समन्वय का एक दुर्लभ किन्तु प्रकृति प्रदत्त संयोग ही है, कि आपश्री का जन्म-जयपुर के एक सम्पन्न, प्रतिष्ठित तेरापंथी परिवार में हुआ, आपका पाणिग्रहण स्थानकवासी समाज के प्रमुख गोलेच्छा परिवार में हुआ, और फिर एक शुभ संयोग मिला, कोटा के भारत प्रसिद्ध बाफना परिवार में आपश्री का विवाहोपरान्त निकट सम्बन्ध रहा । सेठानी साहिबा गुलाब सुन्दरीजी बाफना की देखरेख में एक प्रकार से आपके धार्मिक संस्कारों को जल सिंचन व नया सम्पोषण मिला, जो श्वेताम्बर मूर्तिपूजक आम्नाय से आपको सम्बद्ध कर सका, इस प्रकार प्रकृति ने ही आपके जीवन में धार्मिक सद्भाव, समन्वय का ऐसा संगम बनाया है, जो आज भी “त्रिवेणी संगम" की भाँति संपूर्ण जैन समाज में आदरास्पद है, यही कारण है कि आपश्री के अभिनन्दन उपलक्ष्य में सम्पूर्ण जैन समाज के श्वेताम्बर, स्थानकवासी, तेरापंथी समाज के श्रद्धेय आचार्यों, विद्वान, मुनियों तथा प्रमुख श्रावकों की तरफ से आशीर्वचनात्मक सन्देश व शुभकामनाएँ प्राप्त हुई हैं, इस प्रकार का समन्वय जैन एकता की दिशा में “मील का पत्थर" कहला सकता है। हमें इस विषय का गौरव है कि एक आम्नाय विशेष की प्रवर्तिनी श्रमणी के लिए सम्पूर्ण जैन संघ अपनी शुभकामनाएँ प्रेषित करता है।
नामकरण-प्रस्तुत ग्रन्थ के नामकरण के विषय में भी बहुत गंभीर चिन्तन के पश्चात् "श्रमणो" नाम का चयन किया गया है । "श्रमणी" शील-साधना-संयम-शुचिता की प्रतीक है । पवित्रता और परम वत्सलता की प्रतिनिधि है, श्रमण संस्कृति की गंगोत्री हैं । मेरे विचार में पूज्य प्रवर्तिनी श्रीजी के सम्पूर्ण व्यक्तित्व का अभिवचन यही एक शब्द कर सकता है । "श्रमणी" से अधिक अर्थवान और परम्परा
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