Book Title: Ritthnemichariyam Part 1
Author(s): Swayambhudev, Ramnish Tomar, Dalsukh Malvania, H C Bhayani
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad

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Page 31
________________ [30] णिय-कतिए असुरपरायणेण कालिय ण दिदछु णारायणेण उप्पण्ण भंति णउ गाउ गाउ विष्फुरिउ तासु फणमणि-णिहाउ उज्जोएं जाणिउ परम चारु को गुणेहि ण पाविउ बंधणारु तो समर-सहासेहिं दुम्मुहेण भुय-दंड पसारिय महुमहेण पंचंगुलि पंचणहुज्जलंग णं फुरिय फणामणि वर-भुअंग तहो तेहिं धरिज्जइ फण-कडप्पु णउ णावइ को कर कवणु सप्पु लक्खिज्जइ णवर विणिग्गमेग्ग उज्जलउ लइउ सिरि-संगमेण विहडप्फडु फड फड-झडउ देइ गारुडियही विसहरु कि करेइ घत्ता णत्थेप्पिणु महुमहेण कालिउ णहयले भामियउ । भीसावणु कंसहो णाई काल-दंडु उग्गामियउ ॥ 'अपनी श्याम कान्ति से नारायण कालिय को देख न पाए । उनको भ्रान्ति हो गई इससे नाग चीन्हा न गया । इतने में कालिय के फन के 'मणिगण' झलमलाएं । इस उद्द्योत से उन्होंने नाग को अच्छी तरह पहचान लिया । गुणों से कौन भला बन्धन नहीं पाता । तब सहस्रों संग्रामों के वीर मधुमथन ने पांच नखों से उज्जवल बनी हुई पांच ऊंगली वाले अपने भुजदण्ड पसारे । मानों वे फलामणि से स्फुरित बडा भुजंग हो । इनसे उन्होंने कालिय के फणामण्डल को पकड़ लिया । अब कौन-सा हाथ है और कोन-सा सर्प इसका पता नहीं चलता था ।...कालिय व्याकुल होकर फणों से फटफट प्रहार करने लगा। मगर विषधर ‘गारुडी' को क्या कर सकता था। कृष्ण ने कालिग को नाथ कर आकाश मे घुमाया । मानों कस के प्रति भीषण कालदण्ड उठाया ।' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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