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राजप्रश्नीयमुत्रे
'तरणं से' इत्यादि
टीका - ततः -- पूर्वोक्त विकरणानन्तरम् खलु स आभियोगिको देवः तस्य नानामणिमय स्तम्भोपनिविष्टादिविशेषणविशिष्टस्य दिव्यस्य यानविमा नस्य अन्तः - मध्ये बहुसमरमणीयं- बहुसमः अतिसमतलः, अत एव रमणीयो बहुसमरमणीयस्तम् भूमिभागं भूमिप्रदेशं विकरोति वै क्रियशन घोत्पादयति । स भूमिभागः कदृशः ? इत्याह-' से जहाणामए' इत्यादि -मः -पूर्वेको भूमि
प्रश्न परक लगाना चाहिये, अर्थात् शिष्य का ऐसा प्रश्न है कि जिस प्रकार का काला काल का मेघ होता है, अथवा अजन आदि काले हैं तो क्या उसी प्रकार से कृष्णमणि भी काला होता है ? इनके उत्तर प्रभु कहते हैं - (गोगट्टे लमट्टे) यह अर्थ समर्थ नहीं (ओत्रम्मं समगाउ पो ) हे आयुमन ! श्रमण ! यह तो केवल उपमा है. ( नेणं हि कडा मणी वृत्तीत्तराचे कंततराय चेव, मणामनगर चैत्र, त्रणेणं पण्णत्त ) क्योंकि वे कृष्णमणी इन उक्त जीमूतादिमेघकों से भी इष्ट तरक - अति जय रूप से इष्ट कहे गये हैं । कान्त कहे गहे हैं, एवं मनो मतरक तथा मनोज्ञतरक कहे गये हैं ।
टीकार्य-पूर्वोक्त वैक्रिय करने के बाद उस आभियोगिक देवने सनी मणिमयस्तम्भों के महारे रहे हुए आदि विशेषणों वाले दिव्य यान विमान के मध्यभाग में अः रमणीय ऐसे भूमिभाग की भूमि प्रदेश की - त्रिकुर्वणा की अर्थात् अपना विक्रियशक्ति से उसे उत्पन्न પરક હાવું જોઇએ એટલે કે શિષ્યના પ્રશ્ન છે કે જે જાતના કળેા વર્ષા કાળાના મેઘ હોય છે અથવા અજ વગેરે કાળા હોય છે તે શુ' તેવા જ કૃષ્ણ નિણું પણું કાળા होय है ? सेना उत्तरमा प्रभु डे छे उ ( गोइझाई मनडे) आ. अर्थ समर्थ नथी. (ओवम्मं समणाउयो) से आयुष्मन श्रमभु ! आ तो उभा है. ( तेणं हि frontमणी इत्तो इतराए चैत्र कंतवरार के मणुण्णवराप चेत्र, मणामतराए चैत्र वणे पण्णत्ता) भई ते मृणुभणि ते सिमित भेध वगेरे रतां पशु ईष्ट त२४-त्रधारे—४ष्ट हेवामां भाव्या. छ. अंततर: डेवामां आव्या छ भने મનાંમ તરફ તેમજ મનેાણ નરક કહેવામાં આવ્યા છે.
ટીકાઃ—લિખિત વિધ્રુણા ખાદ તે અભિયોગિક દેવે અનેકાનેક મણિજિત ચાંભલાઓના આધાર વાળા વગેરે વિશેષણાથી ભિત દિવ્ય યાનવિમાનના મધ્ય ભાગના અતિશય સમતલવાળા અત્યંત રમ્ય એવા ભૂમિભાગની—ભૂમિપ્રદેશની વિકુંણા' એટલે કે પાતાની વિક્રિયાશક્તિ વડે તેને ઉત્પન્ન કર્યાં, તે ભૂમિભાગ કુવા