Book Title: Rajprashniya Sutra Part 01
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 707
________________ राजप्रश्नीयसूत्रे चतुर्मुखेषु महापथेषु प्राकारेषु अट्टाल केषु चरिकामु द्वारपु गोपुरेषु तोरणेषु आरामेषु उद्यानेपु वनेषु वनराजिपु कानने वनपण्डेषु अर्चनिका कुर्वन्ति, यत्रैव सूर्याभी देवो यावत् प्रत्यर्प यन्ति । ततः वल्लु स मर्याभो देवो यत्रैव नन्दा गिक देवोंने (मूरियाभेणं देवेणं एवं वुत्ता समाणा) जो कि, मूर्याभदेव द्वारा इस प्रकार कहे गये थे (जाव प्रडिसुणित्ता) यावत् इसके पूर्वोक्त कथन को स्वीकार करके (पृरिया विमाणे) सूर्याभविमान में (सिंघाड एम तिएमु चउ. कएस चचरेसु चउम्मुहेसु, महापहेसु, पागारेसु, अट्ठालएY; चरियास्तु दारेसु, गोपुरेमु, तोरणेतु, आरामेसु, उजाणेसु, वणेसुं, वगराईमु, काणणेमु, वंण : संडेसु अचणिय करेंति) शङ्गाटको में, त्रिकों में, चतुष्को में चत्वरों में, चतुर्मुखो में, महापथों में, प्राकारों में. अट्टालिकाओं में, चरिकाओं में, द्वारों में, गोपुरी में, तोरणों में, आरामों में, उद्यानों में, वनों में वनराजियों में कोनना में, एवं बनएंडों में मार्गों की अथवा वृक्षादिको की पूजा की, (जेणेव मरियाभे देवे जाव' पञ्चप्पिण ति) फिर इस बात की खबर जहां मर्याम देव, था. वहां जाकर दो. यहां (एवं वुत्ता समाणा जाव पडसुणिना) में जो यावत् पद आया है उससे यहां हृष्ट तुष्ट चित्तानंदिताः प्रीतिमनसः, 'परमसौमनस्थिताः, हर्षवश विसप वृदया करतलपरिगृहीत शिर आवर्त मस्तके • अंजलि कृत्वां एवं देवस्तथेति आज्ञायाँ विनयेन वचन प्रतिश्रृण्वन्ति' इस 'हवाग (मरियाभेणं देवेण एवं वुत्ता समाणा) या सूर्यामदेव५3 ज्ञापित थयेा हुता (जार पडिसुणित्ता) यावत् तेना पंडित 32-1ने 2ीशन (मरियाभे 'विमाणे), सूर्यान, विमानमा (सिंघाडएसु.तिएसुः चउक्कएसु चच्चरेसु चउम्मुहेसु महापहेसु, पागारेसु, अटालएस्सु, चरियासु, दारेसु, गोपुरेसु,'नोरणेसु, आग. मेसु उज्जाणेसु, वणेसु, वणराईसु, काणणेसु, वणस डेसु, अच्चणिय करेंति) 'અંગારકમાં, ત્રિકમાં, ચતુષ્કમાં ચરેમાં, ચતુર્મુખોમાં, મહાપથમાં, પ્રાકારમાં, ટ્ટાલિકાઓમાં, ચરિકાએમાં માં, ગેપુરામાં, તોરણોમાં; આરામમાં, ઉદ્યાનેમા વનમાં, વનરાજિઓમા, કાનમાં અને વનખંડમાં માર્ગોની અથવા વૃક્ષાર્દિકેની, ना ४२. (जेणेव म्ररियाभे देवे जाव पञ्चप्पिण ति) त्यार पछी आय सपन्न थपानी म५२ सूर्यालय ने पडयाsी. मह (एवं वुत्ता समाणा जाव पडिमणित्ता' मा २ यावतू ५४ छ तेथी मही हटतष्टचित्तान दित्ताः प्रीतिमनसः परमसौमनस्थिताः, हर्षवशविसर्पदयः करतलपरिगृहीत शिर आवत मस्तके अंजलिं कृत्वा एवं देवस्तथेति आज्ञाया विनयेन वचन .. पतिथण्वन्ति " म पानी संग्रह थयो छ मा पहनी व्याच्या द्वितीय सत्रमा . .

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