Book Title: Rajprashniya Sutra Part 01
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 693
________________ ૬૭૮ राजनीयसूत्रे धर्म, इति, अयमेव सत्य सिद्धान्तो वर्तते, देवानां तु जीतव्यवहारो वर्तते, ते तु यथा खङ्गादिशस्त्राणां स्तम्भानाम् पुत्तलिकानाञ्च पूजन कुर्वन्ति तथा किं वयमपि करवाम, अस्माकं तु सर्वमिदं परित्याज्यमेव वर्तते इत्यलम् | अद तत्वम् - यथा रजतत्वेन, शुक्तिमवगाहमाना मवृत्तिः शुक्तिमेव गोचरयति न तु रजतम्, तत् शुक्तौ रजतत्वस्य आरोपात आरोष्यमाणस्य रजतत्ववस्तुनस्तत्रोपलब्ध्यभावः यथा वा रज्जौ सर्पत्वारोपेण जायमाना प्रवृत्तिः निवृत्तिर्वा रज्जुमेव दर्शयति नतु उपलभते च सर्पम्, एवं सूर्य किरणमरीचिकायां मृगस्य जलज्ञानेऽपि सूर्य मरीचिकामनुधावन्नपि मृगो न तत्र जलमासादयति नापि तस्य पिपासा तृष्णाशान्तिः, तज्ज्ञानस्य भ्रममात्रत्वात् एवं 'आज्ञाधर्म' यही सत्य सिद्धान्त है परन्तु देवों का जितव्यवहार होता है, वे तो स्वङ्गादि शस्त्रों की, स्तंभों की और पुत्तलिकाओं की भी पूजा किया करते हैं तो क्या हम भी वैसा ही करने लगें ? नहीं, हमें तो यह सब परित्याज्य ही है, ज्यादा अब और क्या कहा जाय. तात्पर्य कहने का यही है की - रजतरूप से मानकर शुक्ति में हुई प्रवृत्ति शुक्ति को ही विषय करती हैप्राप्त करती है, रजतको नहीं, क्यों कि शुक्ति में रजतपने का आरोप किया गया था, अतः आरोप्यमाण रजतरूप वस्तु की उपलब्धि का वहां अभाव रहता है, अथवा जिस प्रकार रस्सी में सर्पत्व के आरोप करने पर भी 'तत्र अयंसर्पः' ऐसी प्रतीति होने पर वास्तव में वहां तद नुसार प्रवृत्ति करने पर रस्सी ही मिलती है एवं वहां से निवृत्ति होने पर भी रस्सी से ही निवृत्ति होती है, सर्प से निवृत्ति होती हुई नहीं दिखाई देती है इसी प्रकार सूर्यकी दोपहर की धूप में मृग को जलतृष्णा અમારા માટે “આજ્ઞા ધર્મ” એજ સત્ય સિદ્ધાન્ત છે. પણ દેવાના જિતવ્યવહાર હાય છે. તેઓ ખડ્રગ વગેરે શસ્રોની, સ્તંભેાની અને પુત્તલિકાઓની પણ પૂન્ન કરે છે. તે શુ અમે પણ તે પ્રમાણે જ કરીએ ? નહિ અમારા માટે તે આ બધુ ત્યાજય છે વધારે શું કહીએ. રજતરૂપ માનીને શ્રુતિમાં પ્રવૃત્ત થયેલી વૃત્તિ શુકિતને જ વિષય કરે છે, પ્રાપ્ત કરે છે, રજતને નહિ. કેમકે શ્રુતિમાં જ રજતનુ` આરોપણ કરવામાં આવ્યુ છે. એથી આરામ્યમાણ રજતરૂપ વસ્તુની પ્રાપ્તિના ત્યાં અભાવ જ રહે છે. અથવા भल्लूमां सर्पत्वना भारोप श्वाथी "तत्र अय' सर्पः " मेवी प्रतिती थाय છે અને છેવટે ત્યાં તદનુસાર પ્રવૃત્તિ કરવાથી રજજૂથી જ નિવૃત્તિ થાય છે, સર્પથી નિવૃત્તિ થતી નથી આ પ્રમાણે સૂર્યના ખપેારના તાપમાં મૃગને પાણીની તરસ

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