Book Title: Rajprashniya Sutra Part 01
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 645
________________ राजप्रश्नायस खलु चन्द्र ममान वैयविमलदण्ड काञ्चनमगिरत्न प्रतिचित्र कालागुरुपवरकुन्दरुकतुरुकधूमप्रसरद्गन्धोत्तमानुविद्धां च धूपति विनिर्मुञ्चन्न चट्टर्यमयं कटुन्छु ; प्रगृह्य प्रयन्नेन पूरा दत्वा जिन परेभ्यः अाशनपिशु द्वग्रन्थयुक्तः अर्थ युक्तैः अपुनरुक्तः । संस्तांति, सस्तुन्य सप्ताष्टपनि प्रत्य. बाकते. प्रत्ययश्य नाम जान पनि । कृष्ट्वा दक्षिणं जानु धाणितले प्रतिमाओं के समक्ष शुभ्र, चिकन. र जलमय, ऐसे शुद्धता में उत्पन्न हुए तन्दुलों से आठ आठ स्वस्तिकादिक मंगलको लिंग्वा (त जहासोस्थिय जाव दप्पण) वे मंगलक इस प्रकार से हैं-स्वस्तिक यावत् दर्पण. (तयाणंतर च णं चंदप्पभवइश्देरुलियविमल ड, कवणमणिरयाणभत्ति चित्तं, कालागुरुपवरकुदकतुझकधुवमघमघतग धुत्तमाविद्धं च धूवष्टि विणिम्मुयंत वेरुलियमय कटुच्छुयं पडिग्गहिन पयत्तेणं प्रपदाऊ1) इसके वाद चन्द्रपत्र-चन्द्रकान्तमणि बन्न और वैडूर्यमणि नथा रत्न, इन से निर्मित है निर्मल दण्ड जिसका तथा कांचन की एवं मणियों और पत्नी की विशिष्ट रचना से विविधरूपसंपन्न, कालागुरू, प्रवरकुन्दरुक और तुमक तथा धूप इन की फैलती हुई गंध से युक्त एवं धूपयनिका को छोडते हुए ऐसे वेड्र्यमय धूपकडच्छुक को अच्छी तरह से ले करके प्रयत्नाकि जिनबरों के समक्ष उसने धूप दी अर्थात धूप जलाई-धूप जलाकर (जिजाणं अट्ठसयविसुद्धगयजुरोहि अत्यजुत्तेहि अपुणहत्तेहि महाविनाहि शुणड) फिर उसने जिनवरों की १०८ विशुद्ध--काव्यदोपरहित, श्लोकोक, आर्य से . अर्थ संपन्न, अपुनरुक्त-पुलरुक्तिदोग से रहित एवं दण्डकादिना महात्तथाले તે જિનપ્રતિમાઓની સામે શુભ્ર, ચીકણ, રજતમય, શુદ્ધ ભૂમિમાં ઉત્પન્ન થયેલા ghथी मा3 18 वस्ति मग नाव्या. (न जहा साथिय जाय दप्पणं) ने मी ! प्रभा-यात यावत ए. (नयागंतरं च णं चप्पभकहरवेरुलियविमलाइंड वागमणिरयगभत्तिचित्तं. कालागुझा हुंदक्क तुरुषक धुवमघमपंतग धुत्तमाणुविद्धच धुववहि विमियत वलियमय कडुन्छुय पडिग्गहियः पयत्तेणं धुवदाऊण) त्या२५०ी यन्द्रप्रस-sinuteace, वैडूर्य भने નથી જેની નિર્મળ દાંડી બનેલી છે, કાંચન, મણિ અને રત્નોની વિશિષ્ટ રચનાથી જે. સંપન છે, કાલાગુરુ, પ્રવર, કુંટુરુષ્ક તુર્ક અને ધૂપની સુગંધી જેમાંથી પ્રસરી રહી છે એવા વિડૂર્યમય ધૂપકડુક્ષુકને-ધૂપદાનીને-સરસરીતે લઈને પ્રયત્નપૂર્વક તેણે જિન-. परी : सामे ५५ ४. (जिणाराणं अट्ठसयविमुद्धगयजुत्ता, अत्थजुनहि, अपुणस्तहि, महावितहि संथुणई) पछी तेरे नवनी १०८ विशुद्ध व्योपहित, કરૂપ થથી ચુંકત, અપૂર્વ અર્થસંપન્ન, અપુનરુકત-પુનરુકિતદોષ રહિત, અને .

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