Book Title: Purn Vivaran
Author(s): Jain Tattva Prakashini Sabha
Publisher: Jain Tattva Prakashini Sabha

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Page 20
________________ ( १८ ) या । कृपया सर्व सज्जन प्रवश्यमेत्र पधारकर लाभ उठावें । लिम् । प्रार्थी: घीसूलाल अजमेरा मंत्री - श्री जैन कुमार सभा, अजमेर ता० ३० जून १९१२ पंडित दुर्गादत्त जी से हमारे पाठक अपरिचित न होंगे। आप पंजाब प्रदेशान्तरगत रोहतक जिले के महिम ग्राम के नित्रामी पंडित श्रीधर जीके पुत्र और प्रार्य समाज के भूतपूर्व सुप्रसिद्ध दार्शनिक विद्वान् पंडित गणपति जी शर्मा के निकटस्थ बन्धु गोड़ ब्राह्मण हैं। आपने आर्य समाज में कई व षों तक उसके तत्वों का मनन और उपदेशको का काम किया पर जब झाप को उससे सन्तोष और शान्ति की प्राप्ति न हुई तब आपने सहर्ष जैनधर्म ग्रहण किया और वैशाख कृष्ण द्वितीया वीर निर्वाणाब्द २४३८ के बारहवें अङ्क के जैन मित्र पत्र में बारहवें पृष्टपर उसकी निम्न सूचना प्रकाशित करायी । मैंने जैनधर्मकी शरण क्यों ली । उद्योगेन सर्वाणि कार्याणि सिद्धयन्ति ॥ मनुष्य संसार में पुरुषार्थ से कठिन से कठिन कार्य कर सकता है । यहां तक कि यदि वह खोज करे तो प्रात्मिक शान्ति या उन्नति भी कर सकता है मुझको धार्मिक बातों से प्रेम विद्यार्थी अवस्था से ही था और वास्तविक अर्थ को पाना चाहता था। लेकिन खोज करने पर भी वह वास्तविक अर्थ उपलब्ध न होने से मैंने आर्यसमाजिक ग्रन्थों को देखा और मैं उपदेशक बन गया । भिन्न प्रदेशों में ३ वर्ष तक उपदेशक पदवर रहा, लेकिन इतने काल मार्य समाज में रहने पर भी मेरी श्रात्मा को संतुष्टि न हुई । अतः मैं सौभाग्य वश स्यालकोट के जिले में पिसरूर दो मास पर्यन्त उपदेशार्थं ठहरा । इस रास्ते में मुझको जैनी भाइयों से मिलाप हो गया और इन लोगों ने मुझे जैनधर्म सम्बन्धी पुस्तकें अवलोकनार्थ दीं। मैंने अच्छी तरह से उन्हें पढ़ीं और पुस्तक देखने के अनन्तर मुझे मेरी आत्मा ने साक्षी दी कि मैं यदि सकषी शान्ति प्राप्त कर सकता हूं। तो एक जैनधर्म में ही कर सकता हूं । इस विषय में मैं अपने पिसर के जैनी भाईयों का अत्यन्तः उपकार मानता और वह धन्यवाद के योग्य है ।

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