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सृष्टि और प्रलय यह परस्पर विरोधी होनेके कारण ईश्वरको क्रियाके फल नहीं क्योंकि ईश्वर स्वभावतः एक ही प्रकारको क्रियाका कर्ता हो सकता है । यदि ईश्वरको क्रियामें सर्वजीव अपने कमौके व्यवधानसे अन्यथा (विरुद्ध) परिशमन कर सकते हैं तो जीवोंके कम्मों का व्यवधान ईश्वरकी क्रियासे प्रवल है ऐसा मानना पड़ेगा।
स्वामी जी-मनुष्य पदार्थों की गतिको बदलता है रोकता नहीं । सूर्य: की किरणे प्रति दिवस निकलती हैं कोई उनको रोक नहीं सकता । पानीके तेज़ बहावको मनुष्य पत्थर श्रादि लगाकर बदल देता है। क्या कोई कह सकता है कि किसीने पानीके कहावको रोक दिया। बदलना भी तो क्रिया है।जीव ईश्वरको प्रना है न कि प्रतिपक्षी। पाप पुण्य करती हुई प्रगा राजाको शत्र नहीं होती। प्रलयमें भी एक क्षण क्रिया स्थिर नहीं रहती।
वादि गज केसरी जी-जिस प्रकार पानीका स्वभाव ढाल जमीनको ओर बहनेका होता है और यदि उसके मार्गमें कोई प्रबल प्रतिबन्धक न भावे तो बरावर वह जिस ओर नीची जमीन पाता है उधर बहता ही चला जाता है। पानीका वहाव भी अपने प्रतिवन्धकको ( यदि वह उसके बहाव की तेजीसे निवल है ) कभी कभी नष्टकर बरावर ढालू जमीनकी ओर बहता रहता है। प्रापका पानीके बहावका दृष्टान्त आपके पक्षमा पोषक नहीं घरन विघातक होकर हमारे पक्षको ही पुष्ट कर रहा है। क्योंकि जिस प्र. कार मापके दृष्टान्तमें पानीका स्वभाव बहनेका है और उसका फल ढालू जमीनकी ओर बहना है उसी प्रकार आपके दान्तिमें ईश्वरका स्वभाव क्रिया और उसका फल सृष्टि कर्तृत्व है। जिस प्रकार दृष्टान्त में कोई मनुष्य पत्यर श्रादि लगाकर या उस मोरको ढाल जमीनमें ही कोई चहान, टोला, पर्व. तादि प्रवल प्रतिबन्धक श्राकर पानीके उस बहाषको दूसरी ओर बदल देते हैं उसी प्रकार द्राष्टन्तिमें जीवोंके कमौके न्यवधान ईश्वरके सृष्टि कर्तृत्वको दूसरी
ओर प्रलय कर्तृत्त्व रूपमें बदल देते हैं । जिस प्रकार दृष्टान्तमें पानीके बहावकी तेजीसे प्रबल प्रतिबन्धक ही पानीकी गतिको बदल सकते हैं उसी प्रकार दाष्टन्तिमें ईश्वरके सृष्टि कर्तृत्व रूप क्रियाके फलको प्रबल प्रतिबन्धक रूप जीवों के कम्मौके व्यवधान प्रलय कर्तृत्त्व रूप क्रियाके फल में बदल देते हैं। अतः हमने जो पूर्व ही यह दोष दिया था कि जीवोंके कम्मों का व्यवधान ईश्वर की क्रियासे प्रवल है वह ज्यों का त्यों कायम रहा और आपके दृष्टान्तसे भी