Book Title: Purn Vivaran
Author(s): Jain Tattva Prakashini Sabha
Publisher: Jain Tattva Prakashini Sabha

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Page 123
________________ (१२१ ) णता मागम (वेद)द्वारा होगी और वेदमें प्रमाणता ईश्वरके वाक्य हैं इस से होगी अतः आगन में प्रामाण्य नहीं हो सक्ता ॥ अभीतक आपने हमारे दिये हुये दोषों का परिहार नहीं किया हमने पांच दोषों को उद्भावन किया है प्रथन कार्यत्व हेतु को सत्प्रतिपक्षित किया था अर्थात् पृथिवी अङकुर मेरु मादिक किसी कर्ताके बनाये हुये नहीं है क्योंकि शरीरके द्वारा बने हुये ये प्रमाणित नहीं होते जैसे कि आकाश । दूपरा कार्यत्व हेतु से कर्ताको सिद्ध करने का अनुमान जो किया सो हो नहीं सक्ता क्योंकि अनमान व्याप्ति ज्ञान से होता है व्याप्तिज्ञान तुम्हारे यहां मिथ्याज्ञानों में गर्भित है संशय, विपर्यय, तर्क येतीन आपने मिथ्या ज्ञान माने हैं तर्क ज्ञान कहिये अथवा व्याप्ति ज्ञान ये दोनों पर्यायवाची शब्द हैं। मिथ्या ज्ञान रूप व्याप्तिज्ञानसे सम्यगन. मान रूपी कार्य हो नहीं मक्ता कारण मिथ्या है तो कार्य भी मिथ्या हुआ करता है। तीसरा कर्तामानने में पिताके विना पुत्र की उत्पत्ति नहीं होती यह दृष्टान्त मापने दिया था सो भी ठीक नहीं है क्योंकि सष्टिकी श्रादिमें उछलते कूदते सैकड़ों युवा पुरुष उत्पन्न हो जाते हैं स्वयं आप उनके माता पिता नहीं मानते अतः यह दृष्टान्ताभास है। चौथा कार्यत्व हेतु व्यभिचरित है जगलमें पैदा हुई घास जड़ी बूटीका कोई कता प्रमाणसे सिद्ध नहीं होता अतः संदिग्धव्यभिचारीभी है। पांचवां कर्म करने में जीव स्वतन्त्र है और फल भोगने में परतन्त्र है इसमें चोरका दृष्टान्त जो दिया था अर्थात् किसी सेठने ऐसा कर्म किया जिसका कि फल सेठका सब धन चराया जाय ऐसा मिलना है अब ईश्वर तो खयं चुराने नाता नहीं चोर उसका धन चुराता है। यदि ईश्वर चोर से चरवाता है तो चोरको जेलखाना क्यों होता है तथा ईश्वर कुकर्म कारक भी ठहरा और यदि चोर स्वतन्त्र चोरी करता है तो ईश्वर में फन दातृत्व क्या रहा । अतः पापके “कर्म करने में खतन्त्रजीव है फन भोगने परतन्त्र है,, इस प्रतिज्ञा तथा नियम का व्याघात होगया। इन पांच दोषों का निवारण करके भागे चलिये अन्यथा न्याय सिद्धान्त को नियमानसार आपका पराजय होजायगा।। रात्रि विशेष हो जानेके कारण सर्वसाधारणकी आज्ञानुसार जय जय. कार ध्वनिके साथ सानन्द सभा समाप्त हुई। चन्द्रसेन जैन वैद्य, मन्त्री श्री जैनतत्व प्रकाशिनी सभा-इटावा

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