Book Title: Purn Vivaran
Author(s): Jain Tattva Prakashini Sabha
Publisher: Jain Tattva Prakashini Sabha
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SAAAAAAAL १५ 64 * बन्देजिनवरम् श्री जैन तत्वप्रकाशिनी सभाका अहोरवा दीर्य, १ शास्त्रार्थ अजमेरका पूर्वरङ्ग और दो मौखिक शास्त्रार्थंका पूर्ण विवरण | --C STE जिसको चन्द्रसेन जैनवेद्य मन्त्री श्रीजैनतत्त्वप्रकाशिनी संभाने सर्वसाधारणके हितार्थ छषाकर प्रकाशित किया ॥ -* प्रथमावृत्ति } UB श्रीवीर निर्वाणाब्द २४३८ की० = ) || ढाई खाना सैकड़ा १४) रु० Printed by B. D. S. at The Brahm Press -- -Etawah. Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैनतत्त्व प्रकाशिनी सभाको बिकाऊ पुस्तकें। ॥आर्योंका तत्त्वज्ञान ॥ इसमें ईश्वरके सष्टि कर्तृत्त्व और वेद प्रकाशकत्व पर विचार तथा सरकाश और उसके शब्द गण होने पर विचार ऐसे दो लेख हैं। कीमत)॥ श्राध माना । सै० २) ॥ ईश्वरका कर्तृत्व ।। इस में ईश्वर के सृष्टिकर्तृत्व का खण्डन है। की० एश पाई । सै० ।) ॥ कुरीति निवारण ॥ इस में वालविवाह, वृद्धविवाह, कन्याविक्रय, वेश्यानत्य, भातशवाजी, फलवारी और अश्लील गानको खराबियां दिखाई हैं। को०)। एसपैसा । सै०१) भजनमण्डली प्रयमभाग। जैनतत्वस्वरूपप्रदर्शन और कुरीतिनिषेधक नवीन सामयिक भजन हैं। की सै०२ ॥ जैनियों के नास्तिकत्त्व पर विचार ॥ यथा नाम तथा गुणाः। की०)। एक पैसा सै०१) ॥ धर्मामृत रसायन ॥ संसार दुःखसे संतप्त पुरुषों को सुख शान्ति दाता महौषधि। को०-) एकमा० सै०५) प्रायमत लीला ॥ इस में आर्य वेदों और सिद्धान्तोंकी पोल है। की० =) छः आना । सै०२४) ॥भजनमण्डली द्वितीय भाग। उपर्यक्त प्रकारके उत्तमोत्तम भजन हैं । की)॥ आध माना। सै०२) . ॥ भजन स्त्रीशिक्षा ॥ इसमें स्त्री शिक्षाके उत्तमोत्तम भजन हैं । को0 )। एक पैसा । सै०१) रुष्टिकतृत्व मीमांसा ॥ इसमें सृष्टिक तत्व पर उत्तम विवेचन है । को0-) एक माना। सै०५) ॥ भूगोल मीमांसा ॥ कीमत )॥ माध माना । सै२२) ॥पार्योकी मलय ॥ इसमें आर्यों के प्रलय सिद्धान्त की पोल है। को०-) एक माना । सै०५) ॥ कंवर दिग्वजय सिंह का सचित्र जीवन चरित्र और व्याख्यान॥ कीमत की पुस्तक )॥ श्राध माना । स०३) पता:-मन्त्री चन्द्रसेन जैनवैद्य-इटावा। Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * वन्दे जिनवरम् ** श्रीजैनतत्व प्रकाशिनी सभाका अठ्ठारहवां दौरा । और शास्त्रार्थ अजमेरका पूर्वरङ्ग । 2 अजमेरमें कुछ दिनोंसे वहांके उत्साही और साक्षर जैन नवयुवकोंने एक श्रीजैन कुमारसभा अजमेर नामक संस्था स्थापित कर रक्खी है और उसके द्वारा वह निज ज्ञान और चरित्र की वृद्धि करते हुए जैन धर्म की सच्ची प्रभावना कर स्वपर कल्याण करनेका सदैव उद्योग किया करते हैं । विशेषतः अङ्गरेजी शिक्षा प्राप्त या प्राप्त करने वाले नवयुवकोंको काम करनेका बड़ा उत्साह हुआ करता है और जहां कहीं वे काम होता हुआ देखते हैं उस में जाकर सम्मिलित हो जाते हैं। वर्तमान में कालदोष तथा अन्य भी कई का रणोंसे इमारा जैनसमाज अपने सत्यधर्म के प्रचार करनेके उद्योग और तद्द्वारा संसारको लाभ पहुंचाने के कार्य में बहुत पिछना हुआ है, अतः जैमसमाजके होनहार और साक्षर नवयुवकों में से बहुत से जैन समाज में कुछ काम होता हुआ न देखकर उससे उदासीन हो जाते हैं और उन आर्यसमाजादि संस्थाओं में ( जो कि प्रचार आदिके करने के अर्थ प्रसिद्ध हैं जैसा कि उनकी कार्यप्रणाली व नित्यप्रति वृद्धिंगत होती हुई संख्या से किसीको शम्रगट नहीं हैं ) जाकर सम्मिलित हो काम करने लगते हैं । इसी नियम के अनुसार श्री जैन कुमारसभा अजमेर के कई होनहार व शिक्षा प्राप्त करने वाले सभासद ( विशेष कर उसके कार्यपरायण और धर्मप्रचारका बड़ा उत्साह रखने वाले सुयोग्य मन्त्री बाबू घीसूलालजी अजमेरा ) अजमेर की आार्यकुमार सभा में जाकर सम्मिलित हो गये थे और वहां पर उन्होंने अच्छा काम किया । इटावह में श्रीजैन त प्रकाशिनी सभाकी स्थापना और उसको स्थान स्थानपर जाकर व्याख्यान लेख तथा शङ्कासमाधानादि द्वारा जैनधर्मके प्रचार करनेके कार्यको देखकर तथा उसके प्रकाशित श्रार्यमतली लादि ट्रैक्टोंको पढ़कर अन्य अनेकोंके साथ हमारे इन अजमेर के नवयुवकों को भी बोध हुआ और उन्होंने भलीभांति जान लिया कि यद्यपि शार्यसमाज प्रत्यक्षमें शारीरिक सामाजिक और नैतिक - छति में जैनसमाजसे बहुत चढ़ा बढ़ा प्रतीत होता है परन्तु उसमें श्रात्मा के यथार्थ कल्याण करने वाली प्रात्मिक उन्नति विल्कुल नहीं है जिससे कि वह Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२) गन्ध रहित टेशू के फल समान व्यर्थ ही है। जिस प्रकार अन्न का वोने वाला पुरुष अन्नके साथ ही तृणादि भी प्राप्त कर लेता है ठीक उसी प्रकार जैन धर्म द्वारा भात्मिक कल्याण के साथ ही हमारी सांसारिक उन्नतियां भी वरावर होती रहती हैं । ऐना जाग और मानकर हमारे ये नव युवक भार्य्य धर्म और भार्या कुमार सभा अमेर को तिलाञ्जलि देकर जैन धम्न में दृढ़ हुये और उन्होंने स्वपर कल्याणार्थ श्री जैन कमार सभा अजमेर नामक संस्था खोली। इसी सभाका बार्षिकोत्सव अजमेर में तारीख २८ जून से १ जुलाई सन् १९१२ ईस्वी ता होना निश्चित हुआ और उसके अर्थ यह निम्न विज्ञापन प्रकाशित किया गया । ॥ बन्देजिनवरम् ॥ अहिंसा परमो धर्मः * यतो धर्म स्ततो जयः श्रीजैन कुमार सभा अजमेर का प्रथम वार्षिकोत्सव । प्यारे सज्जनों ! जिस प्राचीन सर्व व्यापी जैन धर्मके नवयुवकोंकी यह सभा है वह धर्म किसी समयमें तीर्थ करादि महर्षियोंके सिंहनिनादसे समस्त भमण्डल पर बिस्तरित हो रहा था और उसकी विजय पताका चहुं ओर फहरा रही थी परन्तु कालदोषसे उसही धर्मके मार्तण्ड संचालकोंके अभावसे और इन दिनों अनेक मतमतान्तरों के घोर आच्छादन के कारण सारा संसार अन्धकारयुक्त होरहा है, ऐसी दशा देखकर हमारी परम भादरणीय ( श्रीमती जैनतत्त्व प्रकाशिनी समा इटावा ) ने पुनः सर्व सभ्य समाजके समक्ष सार्व भौम जैन धर्मका डंका बजाकर स्थाबाद गर्भित अनेकान्त नयसे तथा सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र रूपी रत्नोंके प्रकाशसे उस अन्धकारको नाश करनेका वीड़ा उठाया है। आज हम लोग सहर्ष आप लोगों के समक्ष यह हर्षोत्पादक शुभ समाचार सुनाते हैं कि हमारे इस वार्षिकोत्सवके समय ( ता० २८ जनसे १ जुलाई सन् १९१२ ई० तदनुसार मिती आषाढ़ प्रथम शुक्ल १४ शुक्रवारसे मिती भाषाढ़ द्वितीय कृषण २ सोमवार संवत् १९६९ तक ) उपर्युक्त श्री जैन तत्त्व प्रकाशि: नी सभा यहाँ पधार कर हम लोगोंके उत्साहको बढ़ावेगी और इसही अ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३ ) वसर पर और भी अनेक विद्वज्जन उपस्थित होकर भिन्न २ विषयोंपर अनेक रोचक और सुनने योग्य व्याख्यान सुनावेंगे और शंका समाधानादि करके अज्ञानांधकार का नाश करेंगे । अतः सर्व साधारण सज्जन महानुभावोंसे सविनय निवेदन है कि इस उत्सव पर अवश्य मेत्र पधारकर इस महोत्सवको शोभा बढ़ावें । कार्यक्रम | प्रातःकाल सायंकाल ता० २८ जून सन् १९१२ शुक्रवार - रथयात्रा नगर कीर्तन, भजन व उपदेश, 9 बजे से ११ बजे तक । 9 बजे से १० बजेतक । ता० २७ जून सन् १९१२ शनिवार - भजन व उपदेश, भजन व उपदेश १० बजे से १ बजे तक । 9 बजे से १० बजेतक | ता० ३० जून सन् १९१२ रविवार--शंका समाधान, भजन व उपदेश, भजन व उपदेश १० बजेसे १ बजे तक । 9 बजे से १० बजे तक । ता०९ जुलाई सन् १९९२ सोमवार--शंका समाधान, भजन व उपदेश, भजन व उपदेश १० बजे से १ बजे तक । 9 बजे से १० बजे तक । श्रीजैन तत्त्व प्रकाशिनी सभाके शंका समाधानके नियम । ( १ ) शंका समाधान प्राइवेट व पत्रलिक दो प्रकार से होगा । (२) माइवेट शंका समाधान जिज्ञासुओंके अर्थ मन्त्री की आज्ञानुसार उचित समय पर किया जावेगा । ( ३ ) पवलिक शंका समाधानके अर्थ लिखित प्रश्नपत्र म थमवार तारीख २९ जून व द्वितीयवार तारीख ३० जूनको प्रातःकाल १० बजे से १ बजे तक मन्त्रीको देदेना चाहिये । ( ४ ) विद्वानोंके कहे हुए व्यारूपान और दिगम्बर जैनऋषि प्रणीत ग्रन्थों में तत्त्वविषयक ही शंकायें ली जावेंगी । (५) एक दिन में तीन से अधिक प्रश्नपत्र नहीं लिये जावेंगे जिनमें से एक धर्म का एक ही प्रश्नपत्र लिया जावेगा परन्तु हां यदि ग्रन्त समय तक भिन्न २ धर्मावलम्बियों के तीन प्रश्नपत्र न प्राप्त हों तो एक धर्मके अधिक से अधिक दो प्रश्नपत्र लिये जा सकेंगे । ( ६ ) एक प्रश्नपत्र में तीन से अधिक प्रश्न व एक प्रश्न में एक से अधिक प्रश्न न होना चाहिये । ( 9 ) प्रथम दिवसके प्रश्नकर्त्ता महाशयों को दूसरे दिवस नवीन प्रश्न करनेका अधिकार न होगा । यदि उनको अपने प्रश्नों के उत्तरोंसे सन्तोष न हो तो वे उसी दिन ५ बजेके भी - Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४) तर उनपर पुनरपि शंकायें लिखकर दे सकते हैं जिनका कि उत्तर द्वितीय दिवस दिया जावेगा । (८) प्रश्न के लिखित उत्तर प्रश्नकर्ताओंको सभामें व्याख्यानके साथ सुनाकर देदिये जायंगे और यदि उनके प्रश्न नियम विरुद्ध ! होंगे तो जिस समय लिये जावेंगे उसी समय लौटादिये जायेंगे । (८) प्रश्न. कर्ता महाशयों को अपना माननीय धर्म वा नामादि स्पष्ट अवश्यमेव लिखना चाहिये। (१०) सभामें कोई अनचित व असभ्य व्यवहार नहीं कर सकता और न सभापति की प्राज्ञा विना कोई बोल ही सकता है ॥ ___ नोट--समयानुसार प्रोग्राम बदला भी जासकेगा ॥ प्रार्थी-घीसूलाल अजमेरा, मन्त्री-श्रीजैन कुमारसभा अजमेर, आर्यसमाज अजमेरसे श्रीजैनतत्त्वप्रकाशिनी सभा छिपी हुई न थी। उस ने उसके प्रकाशित भार्यमतलीलादि ट्रैक्ट पढ़े थे। सभाके कार्यक्रम, दौरोंकी रिपोर्ट, शंका समाधानके पत्र और कई आर्यों को जैत्र बनालेने आदिका वि. वरण भी आर्यसमाज अजमेरसे अप्रगट न था उसके कृष्णलाल गुप्त आदि स. भासदोंने अपने आर्यमित्रमें प्रकाशित "नास्तिक मतके नमूने” श्रादि लेखोंका मुंह तोड़ उत्तर जैनमित्र श्रादि पत्रों में पढ़ा था । संक्षेपमें आर्यसमाज अजमेर को श्रीजैन तत्त्वप्रकाशिनी सभाको चढ़ी बढ़ी शक्ति सर्वथा प्रगट थी । उसको भय हुआ कि जब वही श्रीजैनतत्तत्र प्रकाशिनी सभा अजमेरमें श्रीजैन कुमार सभाके वार्षिकोत्सवमें आती है तो वह अवश्य ही प्रार्यसमाजका खयडन कर उसकी पोल सर्वसाधारणको दिखलावेगी जिससे कि बहुत सम्भव है कि पर्व ही चंगुल में आये हुए जैनकुमारोंकी भांति हमारे सत्यासत्य खोनी कई निष्पक्ष सभासद आर्यसमाजको तिलाञ्जलि दे जायं। इस भयसे अपनेको र. क्षित रखनेके अर्थ उसको बड़े सोच विचारके वाद एक चाल सूझी और वह यह थी कि प्रथमसे ही जैनियोंका ऊटपटांग खण्डन प्रारम्भ करदो जिससे कि उस खण्डनके खण्डन करने में ही जैन विद्वानों का सारा समय व्यतीत हो जाय और उनको आर्यसमाजका खण्डन करनेके अर्थ समय ही न मिले। प्रार्यसमाज इस युक्तिको सोचकर अतिहर्षित हुआ और उसने इसीके अनुसार स्वामी दर्शनामन्द जी सरस्वती आदि अपने विद्वानों को बुलाकर जैनधर्मका जिस तिस प्रकार खण्डन निम्न विज्ञापन निकलवा कर प्रारम्भ करवा दिया। Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ! ( ५ ) * श्रोइम् * व्याख्यान ॥ सर्व साधारणको सूचित किया जाता है कि श्रीमान् स्वामी दर्शनानन्द जी महाराजने कृपापूर्वक यहां ठहर कर नीचे लिखे अनुसार व्याख्यान देना स्वीकार किया है, अतः आप अपने इष्टमित्रों सहित अवश्य पधारकर लाभ उठावें तारीख २१-६- १२ वृहस्पतिवार सायंकाल के ८ बजे, विषय - " जैनियोंकी मुक्ति" स्थान - श्रार्यसमाज भवन, जयदेव शर्मा, मन्त्री - आर्यसमाज, अजमेर A सभाका वार्षिकोत्सव प्रारम्भ होनेके एकदिन पूर्व ही तारीख २१ जूनको उपर्युक्त विज्ञापन के अनुसार स्वामी दर्शनानन्द जी सरस्वतीका “जैनियोंकी मुक्ति" पर एक व्याख्यान हुआ जिसमें कि उन्होंने उसको विना समझे हुए ऊटपटांग खण्डन किया । व्याख्यान समाप्त हो जानेपर एक अल्प वयस्क जैन नवयुवकने शंशा करनेकी आज्ञा चाही जो कि दी गयी । परन्तु उस न वयुवकका विना भलीभांति समाधान किये ही उसकी शंकाओंका समाधान कार्य वन्द कर दिया गया जिसका कि बहुत बुरा प्रभाव सर्वसाधारणपर पड़ा। शुक्रवार २८ जून १९१२ईस्वी । प्रातःकाल श्री कुंवर दिग्विजयसिंह जी, श्री जैन सिद्धान्त पाठशाला मोरेना- ( ग्वालियर ) के विद्यार्थी मक्खनलाल जी, विद्यार्थी देवकीनन्दन जी, विद्यार्थी उमरावसिंह जी, चन्द्रसेन जैन वैद्य आदि सज्जन इटावा की भजन मण्डली सहित मुम्बई जाने वाली डाकगाड़ीसे अजमेर पहुंचे । कुंवर साहव व मण्डलीका स्वागत बड़े धूम धाम से अजमेर में हुआ । स्वामी दर्शनान्द जी सरस्वती के कल २७ जून के दिये हुये “जैनियोंकी मुक्ति" वाले व्याख्यानकी यथार्थ समीक्षा कर सर्व साधारण में उसके द्वारा फैले हुये अज्ञानको दूर करना निश्चित हुआ अतः निम्न विज्ञापन समाकी ओर से प्रकाशित किया गया । Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ बन्दे जिमवरम् ॥ स्वामी दर्शनानंद जी के व्याख्यान की समीक्षा । सर्व साधारण सज्जन महोदयोंकी सेवा निवेदन है कि प्राज सायंकाल - को ८ बजेसे स्थान गोदोंकी नशियां में आगरे दरवाजेके बाहर श्रीमान् कंवर दिग्विजयसिंदगी साहिब स्वामी दर्शनानंदजीके कलके दिये हुये जैनियों की मुक्ति विषयक व्याख्यानको समीक्षा करेंगे । अतः सर्व सज्जन महाशय उपर्युक्त समय पर अवश्यमेव पधारें और व्याख्यान श्रवण कर लाभ उठावें । विशेष्वलम् ॥ प्रार्थी-घीसूलाल अजमेरा मंत्री-श्री जैन कुमार सभा अजमेर । ता० २८ जून १९१२ सन्ध्याको प्रागरे दरवाजे के बाहर गोदोंकी नशियों के विस्तृत और सुसज्जित पौष्ठालमें सभाको प्रथम वैठक हुई। भजन व मङ्गलाचरण होने के पश्चात् माष्टर पांचाल जी काला ने स्वागत कारिणी कमेटी के सभापतिकी हैसियतसे एक धक्तता दी जिसमें कि आपने सर्व भाइयों का स्वागत करते हुये जैन धर्मको सच्ची प्रभावनाको वड़ी आवश्यकता दिखलायो । सर्व स. म्मतिसे राय बहादुर सेठ नेमीचन्द जी सोनीके सुपुत्र कुंवर टीकमचन्द जी उत्साही और धर्मात्मा सज्जन सभापति निश्चित हुये और आपने अपनी पुस्तकाकार छपी हुई वक्तृता पढ़ी जिसकी कि मुद्रित प्रतियां सभामें वांट दी गयीं । सभापतिका भाषण यह थाः.. ॥श्रीः ॥ श्री जैनकुमार सभा अजमेर के प्रथमाधिवेशन के समय सभापति श्रीयुत कवर टीकमचन्द्र जीका भाषण । ... ..( मंगलाचरण अकलङ्कस्तोत्रका वां श्लोक) __ मान्यवर महोदय ! भाज अत्यन्त हर्ष का समय है कि आप जैसे परोपकारी धर्मात्मा सज्जनोंने अजमेर नगर में पधार कर हम लोगों को प्राभारी किया है, मैं इसके लिये माप लोगोंको हार्दिक धन्यवाद भेट करता हूं जो पद सना मुझे देना चाहती है उसके योग्य यद्यपि मैं नहीं हूं तथापि प्रापके कहनेको टाल भी नहीं सकता, अतः मैं इस पद को सहर्ष स्वीकार करता हूं Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७) और आशा करता हूं कि अगर मेरी ओरसे इस कार्य में कोई त्रुटि रहेगी तो विद्वज्जन मुझे क्षमा करेंगे। प्रिय सज्जन पुरुषी ! इस स्थानपर हम लोगोंके उपस्थित होने का मुख्य | कारण यह है कि प्रापम के सम्मेलनसे धार्मिक तथा लौकिक उन्नति पर वि. चार किया जावे, इस प्रकार सभा मोंका स्थान २ पर बार बार होना बड़ा लाभकारी है। मेलों में दूर दूरसे हज़ारों स्त्री पुरुष पाते हैं और धार्मिक लाभ उठाते हैं। यद्यपि आजकल जैसा चाहिये वैसा मेलोंसे लाभ नहीं है क्योंकि जिम कार्यके अर्थ मेलों की स्थापना कीगई थी उसका परिवर्तन अन्यरूपसे होता जाता है और धर्मोन्नति व जात्योन्नतिपर कोई विशेष विचार नहीं होता। इस बातपर विचार कर विद्वानोंने सभाओं द्वारा इस त्रुटिको दूर करने की चेष्टा की और वे इसमें फलीभूत हुए, भाजको सभा इस फलप्राप्तिका एक खास नमूना है। प्राचीनकाल में जाति व धर्मसम्बन्धी समस्त कार्य पंचायतों द्वारा दी सम्पादित होते थे, परन्तु कई एक कारणोंसे अब पंचायतें इस उन्नतिकी मोरसे मौनस्य हैं। संसारका काम रुका नहीं रहता किमी न किसी सूरतमें अपना मार्ग बना ही लेता है। सभा सुसाइटियोंके स्थापन होनेसे जातिसु. धारमें लाभ पहुंचा है पर खेदके साथ कहना पड़ता है कि अनेक स्थानोंमें सभाओंकी स्थापना ही नहीं हुई और जहां कहीं हुई है उनमें से कई सभाभोंने तो बातोंके सिवाय अधिक कार्य नहीं किया। जव मैं "तत्वप्रकाशिनी सभा इटावा की ओर लक्ष्य डालता हूं तब मुझे खुशी होती है। यह सभा अवश्य कार्य करने में तत्पर है और जो कुछ कार्य अबतक किया वह प्रशंस नीय है। धन्य है उन महाशयोंको जो अपने गृहकार्यों से छुट्टी पाकर इस प्रकार दूर देशान्तरों में धार्मिक उन्नतिके अर्थ प्रयत्नशील हैं। पदार्थ विज्ञानको प्रबन्न शिक्षा प्रचारके कारण भमंडल के अनेक मतमतान्तरोमें खलबली पड़ी हुई है, परन्तु इस खलबली में जैनधर्म दृढ़ताक सांप प्रदान किया जारहा है। जिन नांगल भाषाके उच्च वेत्ताभोंने जैनधर्मका अध्ययन किया वह इस धर्मको फिलासोफ़ी तथा तत्त्व विज्ञानपर मुग्ध हो गये । सत्यको ऐसा कुछ महात्म्य है कि वह असत्यतासे कितनी ही क्यों न दबाई जाय समय पाकर अपने आप प्रकाशमें भाजाती है। अमेरिका इंगलैंड भादि देशों में जहां हिंसाका अत्यन्त प्रचार है अहिंसा धर्मको शिक्षा Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (=) देने को कौन उपस्थित हुआ था, परन्तु विज्ञानको शिक्षा के कारण Soul and matter की विवेचना हुई तो अपने आप आत्माका महत्व श्रात्मापर जम गया और अनेक पुरुषोंने मांसादि अभक्ष्य पदार्थोंका त्याग अहिंसा धर्मको धारण किया, जो जैन धर्मका एक मुख्य अंग है । कुछ दिन हुए अंग्रेज़ी के लीडर नामक पत्र में यह बात पढ़कर अत्यन्त आनन्द हुआ कि अमेरिका के प्रेसीडेन्टने एक नियम निकाला है कि जानवरोंके आपस में युद्ध कराकर हास्यविनोद प्राप्त करना उन जानवरोंको अत्यन्त कष्टदाई है । इस प्रकार अबस देश में राजनियम द्वारा कारगृह वा आर्थिक दंडसे इस प्रकारका विनोद बंद किया गया। मांसाहारी पुरुषोंके चित्त में जो इस बारीक हिंसा से हानिका लक्ष्य हुआ है यही सत्यता की विजय है। लंडनकी विजिटेरियन सोसाइटी शीघ्रता से मांस भोजन का देशसे निष्काशन कर रही है, यह अहिंसा धर्मके प्रचारका दूसरा नमूना है । पत्रोंके पढ़नेसे ज्ञात हुआ है कि कुछ लंडन निवासी महाशयोंने जैनधर्मका उपदेश सुना और वे जैनधर्मानुयायी हुये । कहमेका सारांश यह है कि सर्व जीव हितकारी जैनधर्मके तत्वोंकी शिक्षा काप्रचार वैज्ञानिक देशों में पत्रादि द्वारा किया जाय तो बिना कठिनता के स फलता प्राप्त होना सम्भव है । यह कार्य उन महाशयों से हो सकता है जो इंगलिश भाषा के साथ २ धर्मकी तात्विक शिज्ञाके भी जानकार हैं ॥ यहांके कतिपय उत्साही योग्य कुमारोंने एक सालसे “जैनकुमार" नामक सभा स्थापित कर रक्खी है जिसके द्वारा अपनी उन्नतिका मार्ग बढ़ा रहे हैं ध्यान उक्त जैनकुमार सभाका वार्षिकोत्सव है । मेरी प्रान्तरिक इच्छा है कि जैसी कुमारसभा यहां है वैसी जैनजातिमें प्रायः हर जगह हों, क्योंकि वाल्यावरथा से जो विचार स्थिर होते हैं वे भविष्य में बड़े लाभकारी होते हैं । सभा सोसायटी के मेम्बर होने तथा उनमें योग देनेसे अतुल लाभ होते हैं; वासी की चतुरता मालूमहतका कोष, कामका उत्साह, वात्सल्यता, देशहित, धर्मकी ढूंढ़ता, विचारोंकी तथा शुद्धाचरणों की उच्चता आदि अनेक महत् गुण केवल एक सभा सत्संगसे प्राप्त होते हैं जिनकी नवयुवकों के लिये मुख्य 'करको अत्यन्त जावश्यकता है । वृटिश सुराज्यमें हर मनुष्यको अपनी उन्नति करनेकी स्वतंत्रता है, इस स्वतन्त्रता में भारतको प्रायः सबही समाज उन्नति के मैदान में छारूढ़ हैं । Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐसे समयमें जैनियोंने भी कुछ उद्योग किया है; परन्तु अन्य कई समाजोंकी अपेक्षा जैनजाति अभी उन्नति के मार्ग से कोसों दूर है, इसका मुख्य कारण यह है कि विद्याकी उन्नति पर हर प्रकार की उन्नति निर्भर है जिसकी भ. भी समाजमें बड़ी प्रावश्यशता है । धन्य है सरकार गवर्नमेन्टको कि जिसके सुपबंधसे स्थान २ पर स्कूल कालेजोंकी स्थापना है, परन्तु समाजका कर्तव्य है कि गातीय पाठशालाओं द्वारा धार्मिक, लौकिक वा प्रारम्भिक शिक्षाका प्रचार अधिकताके साथ करे और फिर अपनी सन्तानोंको सरकारी कालिगों में उच्चकक्षाकी शिक्षा दिलाये। क्या अच्छा हो, अगर पञ्चायत अपने सन्तानों के लिये बलात् शिक्षाका नियम पास करे, क्योंकि इस प्रकारका विल भारत सरकार की कौन्सिल में पास होनेको उपस्थित है यह एक दिन अवश्य पास होगा। यदि हम लोग पहिलेही से इसको कार्यमें लावें तो अति उत्तम हो। अगर सबसे प्रथम किमी स्थानकी पंचायत इस प्रकारके मियम प्रचारमें प्रारूढ़ हो तो अन्य समाज के लिये अनुकरणीय हो सकता है। अब मैं भारत सम्राट श्रीमान् पञ्चम जार्ज तथा श्रीमती महारानी मेरी साहिवा व यहां के सुयोग्य शासनकर्ताओं की सेवा में धन्यवाद भेंट करता हूं और यहां पर उपस्थित सज्जनों का ध्यान उपरोक्त विषयों पर आकर्षित करता हुआ अपने भाषण को समाप्त करता हूं और भाशा रखता हूं कि आप धार्मिक तथा लौकिक उन्नतिके अर्थ उत्तम २ विचार प्रकट करेंगे तथा उनको वर्ताव में लाने की चेष्टा भी करेंगे, यही मेरी प्रांतरिक अभिलाषा है। इति ॥ ___ सभापतिका भोषण समाप्त होते ही कंवर साहवका परिचय सर्व साधारण को कराया गया और आप तालियों की गड़गड़ाहट व हर्ष ध्वनि के साथ स्वामी दर्शनानन्द जी के जैनियों के मोक्ष विषयक व्याख्यान की स. मीक्षा करने को सड़े हुये । आपने अपने व्याख्यानमें प्रथम ही जीव और उस के बन्ध की सिद्धि करते हुए मोक्ष की विस्तृत व्याख्या की और उन सर्व आक्षेपों का यथोचित उत्तर दिया जो कि २७ जून को स्वामी जी ने उस पर किये थे। कंवर साहव के व्यापान में ही अजमेर के आर्य समाजी भाइयों ने अपना निम्न विज्ञापन अर्थात् ॥ ओ३म् ॥ . कुंवर दिग्विजयसिंहकी समीक्षाका खण्डन ॥ - Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (go) सर्व साधारण को सूचित किया जाता है कि कल ता० २९-६ – १२शनिवारको सायङ्काल के ६ बजे आर्य समाज भवन कैसरगंज में श्रीमान् स्वामी दर्शनानन्द जी महाराज, कुंबर दिग्विजय सिंहजी के प्राजके व्याख्यानका खं डन करेंगे कृपा कर अवश्य पधारें ॥ जयदेव शर्मा मन्त्री -६-१२ आर्य समाज अजमेर "} { ता० २८ »£C1o3« बांटना प्रारम्भ कर दिया था जिससे कि हमारे सुज्ञ भाई भली भांति स मझ सक्ते हैं कि उनको सत्यासत्य से कुछ प्रयोजन नहीं केवल उनके सिद्धा: न्त के विरुद्ध जो कुछ कहा जाय उस पर जिस तिस प्रकार कुछ कहकर पवलिक को यह दिखला देना मात्र इष्ट है कि हमने उसका खण्डन कर दिया । कुंवर साहब के व्याख्यान समाप्त हो जाने पर द्वितीय दिवस के कार्यक्रमकी दे जय जयकार ध्वनि से सभा समाप्त हुई । सूचना शनिवार २ जून १८१२ ईस्वी । प्रातः काल से मध्यान्ह तक श्री जी की रथ यात्रा और नगर कीर्तन बड़े साज सामान और धूम धाम से हुआ । श्रीजी के रथके आगे कई मंजन मण्ड लियां कुरीति निवारक और जैनतत्त्व प्रदर्शक भजन व्याख्या और ताल स्वर से गाकर सर्व साधारण पर बड़ा प्रभाव डालती थीं । ब्राज़ प्रातःकाल की डाक गाड़ी से श्रीमान् स्याद्वाद्वारिधि वादिगजकेसरी पंडित गोपालदासजी वरैय्या श्रौर न्यायाचार्य्य पंडित माणिकचन्द जी पधारे और झाप लोगों से कुछ पूर्व बाबू अर्जुन लाल जी सेठी वी० ए० आदि । कुछ समय हुआ कि स्वामी दर्शनानन्द जी सरस्वती ने अपने “जैनी पंडितों से प्रश्न" शीर्षक उर्दू पैम्फलट में बीस प्रश्न जैन विद्वानों से किये थे जिस का कि उत्तर श्री जैन तत्त्व प्रकाशिनी समाके तृतीय वार्षिकोत्सव पर ता० 9 अप्रैल को कुंवर दिग्विजय सिंह जी ने दिया था। वह प्रश्नोत्तर वाद श्री जैन तत्त्व प्रकाशिनी सभा की ओर से पैम्फलट रूप में तारीख १ जून को प्रकाशित किये गये जिनपर कि स्वामीजी महाराजने जैनी पण्डितों के प्रश्नो त्तरों की समीक्षा" शीर्षक समीक्षा लिखने का कष्ट किया और श्रीजैन तत्त्व प्रकाशिनी सभाके “सृष्टि कर्तृत्व मीमांसा, नामक ट्रैक्ट नम्बर १२ के मारम्भ के कुछ भाग को लेकर "जैनमत समीक्षा, नामक छोटासा ट्रैक्ट उस के Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९) खण्डन रूपमें लिखा । उक्त दोनों उनके ट्रैक्टोंका उत्तर देना उचित समझा गया प्रतः सभाकी ओर से निम विज्ञापन प्रकाशित किया गया। .. ॥ बन्दे जिनवरम् ॥ स्वामी दर्शनानन्द जी की समीक्षा” की समालोचना सर्व साधारण सज्जन महोदयोंकी सेवामें निवेदन है कि आज सायंकाल के ८ बजेसे स्थान गोदोंकी नशियां में प्रागरे दरवाजे के बाहिर श्रीमान कुं. वर दिग्विजयसिंह जी साहिव स्वामी दर्शनानन्द जी की “जैनी पंडितोंके प्रश्नोत्तरों की समीक्षा, शीर्षक पुस्तकको समालोचना करेंगे तथा उनकी “जैन मत समीक्षा', नामक पुस्तक की भी समालोचना होवेगी ॥ अतः सर्व सज्जन महाशय उपरोक्त समय पर अवश्य मेव पधारें और व्याख्यान श्रवण कर लाभ उठावें विशेष्वलम् ॥ प्रार्थीःअजमेर घीसूलाल अजमेरा ता० २६ जून १९१२ मंत्री-श्रीजैनकुमार सभा, a>सन्ध्याको सभाके पैराडाल में सभाको द्वितीय बैठक हुई । भजन व मङ्गलाचरण समाप्त होने पर कुंवर साहन स्वामी दर्शनानन्द जी के "जैनीपगिहतोंके प्रस्नोत्तरों की समीक्षा शीर्षक ट्रैक्ट को समालोचना करने को उठे और मापने उस समीक्षाका भली भांति शान्ति पूर्वक खण्डन और अपने दि. ये हुये उत्तरों को प्रमाणा और युक्तियों से मण्डन किया । कुंधर साहबका यह खबहन मखन "समीता वीक्षण" के नामसे शीघ्र ही प्रकाशित होगा। पूर्व नियमानसार ही आर्यसमाजी भाइयों ने कुंवर साहब के व्याख्यान में ही अपना निन्न विज्ञापन वांटा। ॥ प्रोम् ॥ कंवर दिग्विजयसिंहजी की समालोचना की प्रत्यालोचना ॥ __सर्व साधारणको सूचित किया जाता है कि कल ता० ३०-६-१२ रविवार Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२) को सोयङ्कालके ६॥ बजे आर्यसमाज भवन कैसरगंज में श्रीमान् स्वामीदर्शनान्दजी महाराज, कंधर दिग्विजयसिंहजी के श्राजके व्याख्यानका खंडन करेंगे। कृपा कर अवश्य पधारें। " र ता० २९-६-१२ जयदेव शर्मा मन्त्री आर्यसमाज, अजमेर ॥ ....स्वामी दर्शनानन्दजी ने अपने "जैनी पण्डितों के प्रश्नोत्तरों की समीना" शीर्षक ट्रैक्ट के अन्तमें यह चेलेज छपवा रक्खा था। चेलेज। ___ हमने जैनी पण्डितोंसे २० प्रश्न किये थे, जिनका उत्तर किसी जैनी पण्डित ने तो नहीं दिया, परन्तु जैनतत्त्वप्रकाशिनी सभा इटाबा ने श्रीमान् कंवर दिग्विजयसिंह जी बोधपुरा इटावा द्वारा उनका उत्तर दिलाया। कंवर दि. ग्विजयसिंहजी जैनधर्म के प्रतिष्ठित विद्वान् न होने के कारण सम्भव है कि उनके दिये यह उत्तर जैनियोंके लिये प्रामाणिक अथवा सर्वमान्य न हों, पर• न्तु जैनतत्त्वप्रकाशिनीसभा इटावा द्वारा प्रकाशित किये जानेसे यह उत्तर प्रा. माणिक भी समझे जासकते हैं। क्योंकि प्रत्येक मनुष्य का कर्तव्य है वह सत्या सत्य की परीक्षा करे कि जिससे असत्य को त्याग सत्यको ग्रहण करता हमा वह अपने जीवन को सत्याश्रित कर सफल करसके । हम हिन्दुस्तानके समस्त जैनधर्माबलम्वी विद्वानोंको चेलेज करते हैं कि यदि वे कुंवर साहिब के उत्तरों को, जो हमारी समझ में असत्य और भ्रममूलक हैं, सत्य समझते हों तो सत्य सिद्ध करने के लिये शास्त्रार्थ करें। यदि इन उत्तरों को असत्य श्री. र अप्रामाणिक समझते हों तो ऐसा किसी पत्र द्वारा प्रकाशित करदें और इमारे किये प्रश्नों का सत्य उत्तर प्रदान करें। इस शाखार्थको सूचना शाखार्थ की तिथिसे एक मास पूर्व “दयानन्द वेदप्रचारक मिशन लाहौर' के पते से मेरे पास पहंचनी चाहिये, इस कारण कि किसीको असुविधा नही। शाखार्थ देहली, भागरा, अजमेरमेंसे किसी स्थानपर हो सकता है। जैन विद्वानों का इन उत्तरों को सत्य मिद्ध करना और हमारा पक्ष उन को असत्य सिद्ध करना होगा और जो आक्षेप जैनधर्मावलम्बी विद्वान् वैदिक धर्मपर करेंगे, उनका उत्तर हम देंगे ॥ वैदिकधर्मका सेवकदर्शनानन्द सरस्वती, Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - (१३) श्री जैन तत्व प्रकाशिनी सभाको ओरसे स्वामी जीके इस चेलेञ्जपर निम्न मुद्रित चेलेञ्ज कुंवर साहवकी समालोचना समाप्त होते ही वांट दिया गया। ॥ वन्दे जिनवरम् ॥ __.. आर्यसमाजी स्वामी दर्शनानन्दजीको उनके. चेलेञ्जपर चेलेज ॥*.. श्री जैनतत्त्व प्रकाशिनी सभा कुंवर दिग्विजयसिंहजीके आपके प्रश्नों पर दिये हुये उत्तरोंको अक्षर प्रत्यक्षर सत्य समझती है और उसपर शास्त्रार्थ करनेके लिये सर्वथा उद्यत है यदि आप उन्हें असत्य और भ्रममूलक समझते हो तो हम आपके चेलेञ्जानुसार शास्त्रार्थ करनेको अभी अजमेर में ही ता० १ जौलाई १९१२ ई० तक (जब तक कि हम लोग यहां ठहरेंगे ) उद्यत हैं । यदि आप इस समय असमर्थ हों तो आपके लेखानुसार ही हम आजसे एक मास पश्चात् इटावा या मुरैनामें सहर्ष शास्त्रार्थ के लिये सम्बद्ध हैं । पूर्ण माशा तथा दृढ़ विश्वास है कि आप शास्त्रार्थ से पीछे न इटकर हम लोगोंको अनुग्रहीत करेंगे। विशेष्वलम् । चन्द्रसेन जैन वैद्य, मन्त्री श्री जैनतत्त्व प्रकाशिनी सभा इटावा। . तारीख २९ जून १९१२ "सृष्टि कर्तृत्व मीमांसा” वादिगजकेसरी जीको लिखी हुयी है अतः उसके खण्डनमें लिखी हुयी स्वामीजीके "जैन मत समीक्षा” नामक ट्रैक्टकी समालोचना करनेका भार वादिगजकेसरी जीके एक छोटे विद्यार्थी देवकी नन्दनजीने अपने ऊपर लिया और बड़ी योग्यतासे स्वामीजीकी समीक्षाका खखन और मीमांसामें प्रतिपादित विषयका मण्डन किया। यह खगडन मगडन शीघ्र ही पुस्तकाकार प्रकाशित होगा। विद्यार्थी . देवकीनन्दनजी की समालोचना समाप्त होते ही श्री जैनतत्त्व प्रकाशिनी सभाकी ओरसे निम्न चेलेञ्जका मुद्रित विज्ञापन वांट दिया गया। .. .. ॥ वन्दे जिनवरम् ॥ , विज्ञापन । सर्व साधारण सज्जम महोदयोंको सूचित किया जाता है कि स्वामी द- | Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नानन्द्रजीने हमारे सृष्टिकर्तृत्वमीमांसा नामक ट्रेक्ट नं० १२ के प्रारम्भके कुछ भागको लेकर जैनमतसमीक्षा नामक पुस्तकमें विना समझे ऊटपटांग खं. डन किया है। अतः हम उपर्युक्त स्वामीजीको चेलेज देते हैं कि यदि आप को अपने संडनपर अभिमान हो तो आप इस विषयमें यहां अभी अजमेर में। ही ता०१ जुलाई सन् १९९२ ई० तक ( जब तक कि हम यहां ठहरेंगे) शा. त्रार्थ करलें। यदि आप ऐसा न करेंगे तो आपको असमर्थता समझी जावेगी। चन्द्रसेन जैन वैद्य मन्त्री श्री जैनतत्त्व प्रकाशिनी सभा इटावा । ता० २९ ६-१९९२ - -::--- उपर्युक्त कार्यवाहीके ,पश्चाद् प्राजको समाका कार्य मानन्द जय जयकार ध्वनिसे समाप्त हुआ। रविवार ३० जन ११२ ईस्वी। कल रातको जो दो चैलेज ( एक स्वामी दर्शनानन्द जी के चैलेजपर चै| लेज और दूसरा अपनी प्रोरसे स्वामी दर्शनानन्द जी को चैलेज) श्री जैन तत्त्व प्रकाशिनी सभाकी श्रोरसे स्वामी दर्शनानन्द जीको दिये गये थे उनके उत्तरमें आज प्रातःकाल ८॥ वजेके लगभग स्वामी जी की ओरसे निम्न विज्ञापन प्राप्त हुआ। ॥ श्म् ॥ ... जैनियोंका चैलेज मंजर। जैन सभाको विदित हो कि जहां कहीं वह बुलाया चाहे वहाँ मैं शाखार्थ करने के लिये तय्यार हूं। कृपा कर स्थान, समय, विषय और प्रबन्धके लिये मध्यस्थ नियत करके सूचना दे। ता०-३०-६-१२ दर्शनानन्द, प्रातःकाल के अजमेर स्वामीजी के इस विज्ञापन का निम्न लिखित उत्तर प्रर्यात ॥ वन्दे जिनवरम् ॥ शास्त्रार्थ की स्वीकारता पर हर्ष । सर्व-साधारण सक्लान: महोदयोंको विदित हो कि मार्यसमाजी स्वामी | Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - दर्शनानन्दजीके चेलेञ्जानमार हमको शास्त्रार्थ करना मंजूर है और उनकी जिज्ञासानमार प्रगट करते हैं कि यह शास्त्रार्थ स्थान गोदोको नसियों में आज ही दिनके २ वजेसे ५ बजे तक विषय "जगतका कर्ता ईश्वर है या नहीं - थवा हमारे पूर्व प्रकाशित विषयपर होगा। और प्रबंधके लिये मध्यस्थ पुलि. स मौजूद ही है। चन्द्रसेन जैन वैद्य, मंत्री श्री जैनतत्त्व प्रकाशिनी सभा इटावा अजमेर ता० ३० जून १९९२ प्रातःकाल सबसे प्रथम पत्र द्वारा स्वामीजीको भेज दिया गया और पश्चाद् यही छपाकर सर्वसाधारणमें वितीर्ण कर दिया गया। इसके उत्तर में बारह बजेके लगभग स्वामी जीका निम्न पत्र भर्थातः॥श्रो३म् ॥ . नं. ३१३ . श्रीमन्-नमस्ते! आपका पत्र त०३० जन १९१२ का अभी ह॥ वजे प्राप्त हुआ उत्तर में निवेदन है कि वैदिक धर्मावलम्बियोंके लिये इससे अधिक प्रसन्नताकी बात और क्या हो सकती है कि मतं मतान्तरों के लोग सभ्यता पूर्वक पारस्परिक प्रेममावसे लक्षण प्रमाणोंकी दार्शनिक मर्यादानसार स्वमन्तव्यामन्तव्य पर विचार करके सत्यके ग्रहण और असत्य के त्याग करने में तत्पर हों। दो से५ बजे तक गोदों को नंसियां नामक स्थान में नियम पूर्वक शास्त्रार्थ करना स्वीकार है तदनुसार उपस्थित रहूंगा । कृपया एक ऐसे प्रधानका प्रबंध करें जो नियमादि पालन करानेका यथावत् प्रबंध कर सके। 'भवदीय-दर्शनानन्द सरस्वती . ३०।६। १२ । ११ बजे प्रातः और एक बजेके लग भग भार्यसमाजकी ओरसे निम्र विज्ञापन प्राप्त हुआ। ॥ प्रोम् ॥ - जैनियों से शास्त्रार्थ । सर्व साधारणको सूचना दीजाती है कि आज तारीख ३०-६-१२ ई० को दुपहरके २ बजेसे गोदोको मसियम जैनियों की मिनासानुसार श्रीमान् खानी Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६ ) दर्शनानन्द जी शास्त्रार्थ के लिये पधारेंगे । जयदेव शर्मा मंत्री आर्यसमाज अजमेर ता० ३०-६-१२ समय १२ बजे, । . दो पहरको सभाका प्रारम्भ ठीक समय पर हुआ और भजन व मङ्गलाचरण होने के पश्चाद् वादिगजकेसरी जी को श्री जैन सिद्धान्त पाठशाला के विद्यार्थी मक्खन लाल जी ने स्वामी दर्शनानन्द जी के उस व्याख्यानका जो कि उन्होंने कल २९ जनकी सन्ध्याको कुंवर साहबके २८ जूनके रात्रिको स. मीक्षाके खण्डनमें दिया था भली भांति युक्ति और प्रमाणों से खण्डन किया। विद्यार्थी मक्खनलाल जी ने २८ जून की रात्रिको ही ( जब कि वह प्रार्यसमाज भवनमें भाऱ्या विद्वानों के व्याख्यानोंके नोट लेने गये थे) स्वामी जीका खण्डन समाप्त हो जाने पर उसपर शङ्का समाधानकर कंबर साहब की समी. क्षा सत्य सिद्ध करनेको मात्रा मांगी थी पर हमारे प्रार्य पमाणी भाई तो २७ जूनके शङ्का समाधानसे सीखे हुये थे अतः उन्होंने किसी प्रकार आज्ञा न दी। स्वामी दर्शनानन्द जी स्वामी सर्वदानन्द जी के साथ १॥ वजे के लग भग सभा, पधारे और उनके पीछे ही सैकड़ों आर्यसमाजी भाई । स्वामी जी के लिये अपने प्लेटफार्म के सामने ही दूसरा प्लेटफार्म बहुत बढ़िया वना दिया गया और उसपर दोनों स्वामी जीके लिये दो कुर्सियां व उनकी ढेर की ढेर पुस्तके ( जो कि वह अपने साथ लाये थे ) रख दी गयीं । सभाका पैगडाल आज खचाखच भरा हुआ था और उसमें कई हजार आदमी थे। सभा के सभापति थे सेठ ताराचन्द जी रईस नसीरावाद । खामी जी की इच्छानुसार ही शास्त्रार्थ मौखिक रक्खा गया और पांच पांच मिनिट दोनों ओरके वक्ताओं को बोलने का समय निश्चित हुमा । यद्यपि स्वामी जी की इच्छा यह थी कि शाखार्थ तो मौखिक ही होय परन्तु दोनों ओरके तीन तीन रिपोर्टर उसको अक्षर प्रत्यक्षर लिखते जांय और एक एक वक्ताके बोल चुकने पर उन सबके लेख सुनकर और जांचकर दोनों पक्षके हस्ताक्षर होजांय पर इस पर इस कारण इन्कार कर दिया गया कि यहांके रिपोर्टर लोग संक्षिप्तलिपिप्रणाली में दक्ष नहीं है अतः वह दोनों वक्ताओं के शब्दोंको अक्षर प्रत्यक्षर नहीं लिख सकते और एक भी शब्द या अक्षर के इधर उधर हो Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७ ) जाने से अर्थका विषय हो सकता है। यदि प्रत्येक रिपोर्टर के लेखपर आच जांचकर हस्ताक्षर किये जांय तो सारा पब्लिकका समय यों ही नष्ट हो जा यगा। इसपर दोनों ओोस्से यह निश्चय हुआ कि अपने अपने दिए लिखें। शास्त्रार्थका विषय यह था कि ईश्वर इस जगतका कर्ता है। श्री जैनतत्त्व प्रकाशिनी सभाकी ओर से श्रीमान् स्याद्वाद्वारिधि बादि गज केसरी पंडित गोपालदास जी वरैया बोलने वाले थे और उधर से स्वयम् स्वामी द नानन्द जी सरस्वती । शास्त्रार्थका प्रारम्भ ठीक दो बजे दिन हुआ श्रीमान् स्याद्वादवारिधि वादि गज केसरी पंडित गोपाल दास जी व रैय्या द्वारा श्री जैन तत्त्व प्रकाशिनी सभा और श्रार्य्य समाजी स्वामी दर्शनानन्द जी सरस्वती में ईश्वर के सृष्टि कर्तृत्व के विषय में जो मौखिक शास्त्रार्थ हुआ वह इस रिपोर्ट के अन्त में परिशिष्ट नम्बर "क,, में प्रकाशित किया जाता है । शास्त्रार्थ समाप्त हो जाने पर आर्य समाज की ओर से बाबू मिटूनलाल जी बकील और जैन समाज की ओर से चन्द्रसेन जैन वैद्यने सम्राट पंचम जार्ज व वृटिश गवर्म्यण्टको (जिन के निष्कष्टक राज्य में यह शास्त्रार्थ इस प्रकार शान्ति और प्रेम से समाप्त हुआ ) धन्यवाद दिया और अन्त में सभापति की सर्व उपस्थित सज्जनों को धन्यवाद देने प्रादि को उपसंहार संक्षिस वक्ता होकर मानन्द सभा समाप्त हुयी । आज रात्रिको पंडित दुर्गादत्त जो शास्त्री जैन भूतपूर्व उपदेशक श्रार्य्य समाज का "जैन धर्म और वैदिक धर्म की तुलना तथा दयानन्द कृत वेद भाष्यों की पोल,, पर व्याख्यान होना निश्चित हुआ था अतः निम्न विज्ञापन काशित किया गया । * वन्दे जिनवरम् * जैन धर्म और वैदिक धर्म्मकी तुलना तथा दयानंद कृत वेद भाष्यों को पोल । सर्व साधारण सज्जन महोदयोंकी सेवा में निवेदन है कि ब्राज ता० ३३ .६० २०१२ ई० रविवार सायंकाल को श्रीमान् पण्डित दुर्गादत्त जी शास्त्री जैन भूतपूर्व उपदेशक जाट समाज का "जैनधर्म और वैदिक धर्म की तुलना तथा छा वेदों की पोल,, पर स्थान गोदों की नसियां में व्याख्यान होवे.. Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८ ) या । कृपया सर्व सज्जन प्रवश्यमेत्र पधारकर लाभ उठावें । लिम् । प्रार्थी: घीसूलाल अजमेरा मंत्री - श्री जैन कुमार सभा, अजमेर ता० ३० जून १९१२ पंडित दुर्गादत्त जी से हमारे पाठक अपरिचित न होंगे। आप पंजाब प्रदेशान्तरगत रोहतक जिले के महिम ग्राम के नित्रामी पंडित श्रीधर जीके पुत्र और प्रार्य समाज के भूतपूर्व सुप्रसिद्ध दार्शनिक विद्वान् पंडित गणपति जी शर्मा के निकटस्थ बन्धु गोड़ ब्राह्मण हैं। आपने आर्य समाज में कई व षों तक उसके तत्वों का मनन और उपदेशको का काम किया पर जब झाप को उससे सन्तोष और शान्ति की प्राप्ति न हुई तब आपने सहर्ष जैनधर्म ग्रहण किया और वैशाख कृष्ण द्वितीया वीर निर्वाणाब्द २४३८ के बारहवें अङ्क के जैन मित्र पत्र में बारहवें पृष्टपर उसकी निम्न सूचना प्रकाशित करायी । मैंने जैनधर्मकी शरण क्यों ली । उद्योगेन सर्वाणि कार्याणि सिद्धयन्ति ॥ मनुष्य संसार में पुरुषार्थ से कठिन से कठिन कार्य कर सकता है । यहां तक कि यदि वह खोज करे तो प्रात्मिक शान्ति या उन्नति भी कर सकता है मुझको धार्मिक बातों से प्रेम विद्यार्थी अवस्था से ही था और वास्तविक अर्थ को पाना चाहता था। लेकिन खोज करने पर भी वह वास्तविक अर्थ उपलब्ध न होने से मैंने आर्यसमाजिक ग्रन्थों को देखा और मैं उपदेशक बन गया । भिन्न प्रदेशों में ३ वर्ष तक उपदेशक पदवर रहा, लेकिन इतने काल मार्य समाज में रहने पर भी मेरी श्रात्मा को संतुष्टि न हुई । अतः मैं सौभाग्य वश स्यालकोट के जिले में पिसरूर दो मास पर्यन्त उपदेशार्थं ठहरा । इस रास्ते में मुझको जैनी भाइयों से मिलाप हो गया और इन लोगों ने मुझे जैनधर्म सम्बन्धी पुस्तकें अवलोकनार्थ दीं। मैंने अच्छी तरह से उन्हें पढ़ीं और पुस्तक देखने के अनन्तर मुझे मेरी आत्मा ने साक्षी दी कि मैं यदि सकषी शान्ति प्राप्त कर सकता हूं। तो एक जैनधर्म में ही कर सकता हूं । इस विषय में मैं अपने पिसर के जैनी भाईयों का अत्यन्तः उपकार मानता और वह धन्यवाद के योग्य है । Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१९) मुझे मार्यधर्म में कौन २ सन्देह थे उनका वर्णन मैं दूसरे समय में भेजंगा। मापका हितैषीः___ दुर्गादत्त उपदेशक जैन भूतपूर्व आर्यसमाज। पिसरूर स्यालकोट] ता० ३९-३-१२ भापके इस सूचनाके प्रकाशित होने पर "कार्य मित्र” के तारीख ८ मई सन् १९१२ ईखीके अङ्क में इन्द्रपाल वर्मा मन्त्रीने मापसे कुछ प्रश्न पूछे जिस के कि उत्तरमें आपकी ओर से द्वितीय आषाढ़ कृष्ण द्वितीया वीर निर्वागाब्द २४३८ के अट्ठारहवें अङ्क के "जैन मित्र" पत्र में तीसरे पष्टपर निम्न घोषणा प्रकाशित हुई। आर्यसमाज को घोषणा । आर्यमित्र में मेरे विषय में कुछ झूठ तथा प्रयुक्त वातोंके साथ कुछ प्रश्नादि भी किये हैं। उन्होंने पूछा है कि आपने जैन धर्म क्यों ग्रहण किया है, औ. र भार्यधर्म किस कारण हेय समझा है। इत्यादि महाशप जी, मुझ को यह पूर्ण विश्वास है कि वेदों में मांसादि की स्पष्ट आजा है, मैं उनको निरुक्तादि कोषोंके द्वारा करके बतला सकता हूं। दूसरे वेद ईश्वरोक्त नहीं हो सकते। यथा पुनरुक्ति दोष, बदतोव्याघात् दोषों से रहित वेद नहीं है मैं यह भी प्रतिज्ञा करता हूं कि उपनिषद् प्रश्नोपनिषद् और सांख्यादि दर्शनके कर्ता ईश्वर को सृष्टिकर्ता नहीं मानते। आपने जो यह लिखा है कि, पाप किस समाजके सभासद् रहे हैं, सो पापको नितान्त भल है। क्योंकि इस समयभी जितने प्रार्य पशिडत पार्यसमाज में कार्य कर रहे हैं, वह किसी खास समाज के सभासद नहीं कहला सकते इसीलिये श्रापका यह प्रश्न व्यर्थ समझ के कुछ उत्तर देने की आवश्यकता नहीं समझता । महाशय जी, मैंने आर्यधर्मको प. रित्याग करके जैनधर्म को ग्रहण क्यों किया, इस विषय के प्रारम्भ करनेको मैं तय्यार हूं। यदि आपके अन्दर साहस है तो आप मैदान में निकलें । मैं जैनमित्रमें उपनिषद् जो कि स्वामी दयानन्द जी ने प्रमाणिक मानी हैं और दर्शनादि शास्त्रोंसे भी यह सिद्ध करने को लेख लिखना भारम्भ करूंगा कि वे आचार्य ईश्वर को जगत् कर्ता नहीं मानते थे। फिर दूसरा द्रव्यों की वि. वेचनापर होगा, वैशेषिककार और जैनधर्म का मुकावला, पुनर मोक्ष नित्य Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०) । है,या अनित्य है इस विषय पर लेख होगा इत्यादि । यदि आप लोग चा. हते हैं कि आर्यधर्म की रक्षा हो तो आपका कर्तव्य है कि अपने पार्यमित्रमें हमारे लेखका उत्तर देना प्रारम्भ करें। यह मापको प्रथम ही घोषणा के रूप में जैनमित्र में प्रकाशित किया जाता है। दुर्गादत्त शर्मा उपदेशक जैन . भूतपूर्व आर्यसमाज । सन्ध्याको निश्चित समयपर सभा का कार्य पुनः प्रारम्भ हुआ। भजन व मङ्गलाचरण होने के पश्चाद् पंडित दुर्गादत्त जी का व्याख्यान प्रारम्भ हुआ। आपने अपने सुरीले और मधुर व्य रूपानमें जैन धर्मके विषय में अज्ञानताके कारण प्रचलित नास्तिक, वाममार्गी और वौद्ध धर्म की शाखा होने आदि किम्बदन्तियों का निराकरण कर यह दिखलाया कि सुख और शान्तिको प्राप्ति जैन धर्मसे ही हो सकती है । वेदों के विषयमें आपने कहा कि स्वामी द. यानन्दजी के भाष्यानमार वह ईश्वर कृत कदापि मिद्ध नहीं होते और न उन से सुख शान्ति ही मिल सकती है; उनमें सिवाय भेड़ बकरियों व मामूली संसारी बातोंके और कुछ नहीं। अनेक अवतरणोंसे वेदोंकी पोल दिखलाते हुये आपने यह कहा कि वेदों की पोल मैं कहां तक दिखलाऊं उसमें तो निरी पोल्स ही पोल भरी है। प्राय्यममाज के उत्साह और कार्य की प्रशंसा करते हुये आपने जैन भाइयोंसे सर्व जीवों के कल्याणार्थ जैन धर्मके सर्व को प्रकाशित करने का अनुरोध कर निज व्याख्यान समाप्त किया। पंडितजी के आसन ग्रहण कर लेने पर चन्द्रसेन जैन वैद्यने स्वामीजीके यजर्वेद भाष्यसे अनेक अवतरण पढ़कर सुनाये जिनसे कि वेदोंकी निरर्थकता और उनका ईश्वर कृत न होना सर्वथा झलकता था । इसके पश्चाद् कंवर दिग्विजयसिंहजी ने करताल ध्वनिके मध्य खड़े होकर अनेक अनूठी युक्तियों से वेदोंका ईश्वर कृत न होना और जैन धर्मको ही ईश्वरका उपदेश होना भली भांति सिद्ध किया। भजन व मङ्गल होनेके पश्चाद् जयजयकार ध्वनिसे सभा समाप्त हुई। चन्द्रवार १ जुलाई १९१२ ईस्वी । मध्यान्हको अजन व मङ्गलाचरण होने के पश्चात् सभाका कार्य पुनः प्रारम्भ हुआ। आज सभामें स्त्रियोंके विशेष अनरोधसे उनको भी पर्देके य. थोचित प्रबन्धमें स्थान दिया गया था और उन के अर्थ स्पेशल रीतिपर च. Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - -(.२९ ) न्द्रसेन जी जैन वैद्यका कुरीति निवारण और स्त्री शिक्षापर वीच बीच में भजनोंके साथ बड़ा सुन्दर व्याख्यान हुआ। इस के पश्चाद सर्व लोगोंके अनुरोधसे कुंवर दिग्विजय सिंह जी खड़े हुए और भापने जैन धर्मको सच्ची प्रभावना और उसकी भाबश्यकतापर वाड़ी.गम्भीरता और मार्मिकतासे प्र भावशाली विबेचन किया। भजन होने के पश्चाद् सभा सानन्द समाप्त हुई। आज रात्रिको श्रीमान् स्याद्वाद् वारिधि बादि गजकेसरी. पंडित गोपाल दास जी वरैय्याका व्याख्यान होना निश्चित हुआ था तदनुसार निन्त्र विज्ञापन प्रकाशित किया गया। ॥ वन्दे जिनवरम् ॥ आइये ! .. पधारिये ! लाभ उठाइये !!! एक अपूर्व व्याख्यान । आज ता० १ जौलाई सन् १९१२ ई० को स्थान गोदोंकी नसियां में श्री मान् स्याद्वाद वारिधि वादिगज केसरी पं० . गोपाल दासजी. वरैय्याका जैन सिद्धान्त (Jain Philosophy) पर सायङ्कालके ८ बजेसे एक अद्वितीय मुललित व्याख्यान होगा। अतःसर्व सज्जन महोदयगण अवश्यमेव पधारकर और व्याख्यान अत्रण कर धर्म लाभ उठावें। - प्रार्थी-घीसूलाल अजमेरा मंत्री श्री जैन कुमार सभा मजमेर ता०.१ जुलाई १९१२ कज्ञ तारीख ३० जनके मध्यान्हको ईश्वरके सूष्टि कर्तृत्वके विषय में, जो मौखिक शास्त्रार्थ वादिगज केसरी द्वारा श्री जैन तत्त्व प्रकाशिनी सभा और स्वामी दर्शनानन्द जीसे जैन धर्मको बड़ी सफलता और बड़ी संभावनासे हुश्रा था और उसका जो उत्तम प्रभाव सर्व साधारमा पर पड़ा था वह खा. मीजी और प्रार्यसमाजियोंको असह्य हुआ। उन्होंने उस प्रभावको नष्ट करने और अपने खोये हुये मानको पुनः प्राप्त करने के अर्थ एक प्रपंच ( सर्व सधारण के आंखों में धल डालनेको) रचा। स्वामीजीने पंडित दुर्गादत्तजी को एक मनुष्य द्वारा राय बहादुर सेठ नेमिचन्द . जी सोनीके रङ्ग महलसे अपने मिलने के अर्थ आर्यसमाज भवन में बुलबा भेजा और वहांपर उनको Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ TV (२२) जिस तिस प्रकार जैन धर्म परित्याग शीर्षक एक विज्ञापन निकालनेको बाध्य किया । अनेक दिवशोंके पश्चाद् पंडित दुर्गादत्तजीसे साक्षात्कार होने पर ज्ञात हुआ कि स्वामी जी और पार्यसमाज ने उनको ऐसे बढ़ावे दिये - कि तुम ऐसे योग्य और ब्राह्मणांके पुत्र होकर इन वैश्यों के शिष्य बने और वैदीका खण्डन करने लगे यह कितने शोक और अधः पतनकी बात है। जब तुमसे ही योग्य नाहीस वेदोंका संबंडन करने लगेंगे तो उनकी कैसे रक्षा होगी। देखो अभी हाल में ही तुम्हारे निकटस्थ प्रिय वन्धु गणपति जी शर्मा मर गये उनके स्थानकी पूर्ति तुम्हें करना चाहिये । हम सन्यासी, तुमसे बड़े और तुम्हारे शिक्षक हैं इस लिये हमारा अनुरोध तुमको अवश्य मानना चाहिये। हमारे जीते तुम जैन धम्मैमें नहीं जा सकते। इत्यादि । स्वामी जी और आर्यसमाजकी इन हृदय विदारक बातोंने पंडित जीके हृदयको (जो कि उनके निकटस्थ प्रिय वन्धु पंडित गणपति जी शर्माके अकालिक वियोगके कारण-जिसकी कि सूचना पंडित जी को आज ही प्राप्त हुई थी-प्रत्यन्त शोकाकुल था ) पिघला दिया और वह अपने नैतिक धैर्यसे च्युत हो गये । बहुत दवाव पड़ने पर उन्हें स्वामी जी और आर्यसमाजका डापट किया हुमा निम्न विज्ञापन प्रकाशित करने की अनुमति देनी ही पड़ी। जैनधर्म परित्याग ॥ कल जो मेरा लैक्चर जैनसभा वैदिकधर्म और जैनधर्मकी तुलना इस विषयपर हुमा था और उस विज्ञापनमें वेदोंकी पोल खोलना भी जैन भा. इयोंने प्रकाशित किया था, परंच दिनमें शास्त्रार्थ जोके श्रीस्वामी दर्शना. नन्द जीके साथ जैन पंडित गोपालदासजी बरैय्याका हुआ था उस समय परिणामको देखकर मुझे पूर्व कृत कर्मोंपर अत्यन्त पश्चाताप करना पड़ा और मैंने अपने व्याख्यानमें वेदोंकी पोल खोखनेके स्थानपर वेदोंका महत्व ही दर्शाया आज भी मैं जैन धर्म प्रभावका प्रायश्चित्त करके वेदोंके महत्वपर कुछ वर्णन करूंगा। ... समय-सायंकाल ८ बजे से स्थान-आर्यसमाज भवन अजमेर। ६० दुर्गादत्त शर्मा. ता० १-७-१२ ई० Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आर्य समाज की ओरसे प्रकाशित पंडित दुर्गादत्त जी के उपर्युक्त विद्या पनका सभाकी और से निम्न विज्ञापन द्वारा उत्तर दिया गया। .. वन्दे जिनधरम्॥ ... मानकी मरम्मत। सर्व साधारण सज्जन महोदयोंको यह प्रगठ करने की कोई मावश्यकता नहीं है कि कल जो शाखार्थ जैन और आर्य समाज में श्रीमान् स्याद्वाद वारिधि वादि गज केसरी पं० गोपालदासजी बरैया और स्वामी दर्शनानन्द जी सरस्वती महाराज हुमा था उममें तीन घन्टे विषयसे विषयान्तर होते हुए स्वामीजी महाराज ईश्वरकी स्वाभाविक क्रियामें सृष्टि कर्तृत्व और प्रलय कर्तृत्व मिद्ध न करमके पर भार्यसमाजको किसी प्रकार अपने टूटे हुए मान की मरम्मत करना नष्ट थी इस कारण उसने पं० दुर्गादत्तजी शर्मा ( जिनका कि प्रदान कुछ समयसे आर्यसमाजसे विचलित होकर जैन धर्मपर प्राता हुआ मालूम होता था) को किसी प्रकारका आश्वासन देकर पुनः आर्यसमाजी बनानेकी चेष्टा करके अपने मानकी मरम्मत की है पर समाजको विश्वाम रखना चाहिये कि इस प्रकारको कार्रवाइयोंसे उसके मानकी मरम्मत कदापि नहीं हो सकती यदि यथार्थ में पंडित दुर्गादत्तजीको दोपहरके शास्त्रार्थके बाद ही जैनधर्मपर शंकायें होगई थीं तो उन्होंने रात्रिके निज व्याख्यानमें वेदों की पोल क्यों खोली और क्यों यह कहा कि मैं वेदोंकी पोल कहां तक दि. खलाऊ उसमें तो निरी पोल ही पोल भरी है यथार्थ में यदि पंडित दुर्गादत्त जी को जैन धर्मपर शंकायें होगई हैं तो हम उनको उनके कल्यासार्थ पुनः जैनधर्मपर निज समस्त शंकाओंके समाधान और वेदोंके महत्त्व सिद्ध करनेका मौका देते हैं यदि और कोई बात हो तो आप खुशी से मार्यसमाज में सम्मिलित हुजिये पर साथ ही विश्वास रखिये कि इस प्रकारको कारर्वा. इयोंसे जैन मतका कुछ भी नहीं बिगड़ता क्योंकि उसके सिद्धान्त नितान्त सत्य और अटल हैं। प्रार्थी-घीसूलाल अजमेरा मंत्री श्री जैन कुमार सभा अजमेर ता० १ जुलाई १९१२ -::सन्ध्याको सभाका अधिवेशन पुनः प्रारम्भ हुमा रात्रिको वादि गजके. | सरीजीके व्याख्यानका नोटिस होनेसे बड़ी भीड़ थी और अन्य पुरुषोंके Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४ ) साथ ही साथ दीवान बहादुर पंडित गोविन्द रामचन्द्र खांडेकर भूतपूर्व ए. क्सट्रा जुडिशल कमिश्नर, राय बहादुर पंडित सुखदेव प्रसाद जी भूतपूर्व दीवान जोधपुर, राय सेठ चान्दमल जी नरेरी मैजिस्ट्रेट, कुंवर छगनमल जी श्रानरेरी मजिस्ट्रेट, पंडित दामोदर दास जी प्रोफेसर प्राव संस्कृत गवर्नाण्ट कालेज, सेठ बुद्ध करण जी मेहता और आप वहादुर सेठ सोभाग मल जी डड्डा श्रादि सज्जन पधारे थे। भजन व मङ्गलाचरण होने के पश्चात् सर्व सम्मति से राय वहादुर सेठ... सोभाग़ मल जी हड्डा ने सभापतिका प्रासन सुशोभित किया। घोर करताल और हर्ष ध्वनिके मध्य श्रीमान वादि गजकेसरी जी व्याख्यान देनेको उठे और आपने लगभग दो घण्टे तक जैन तत्त्वोंका स्वरूप ऐसी योग्यता और विद्वत्तासे सरल भाषामें वर्णन किया कि लोम सुनकर दङ्ग रह गये और पंडितजीके विद्या, बुद्धि और व्याख्यान, शैलीको प्रशंसा सहस्त्र मुखसे करने लगे। भजन होने के पश्चाद् जयकार ध्वनिसे सभा समाप्त हुई। । मङ्गलवार २ जलाई ११२ ईस्वी। । यद्यपि पूर्व निश्चित प्रोग्रामके अनुसार सभाका अधिबेशन कल ही समाप्त हो जाना चाहिये था परन्तु सर्व साधारण के अनुरोधसे प्राजका दिवस और बढ़ाया गया । मध्यान्हको नियत समयपर सभाका कार्य पुनः प्रारम्म हुमा । भजन व मङ्गलाचरण होने के पश्चाद् विद्यार्थी देवकी नन्दन जी ने शिमरधो निवामी शम्भुदयाल जी तिवारी वर्तमान निवास स्थान वाबू हरि पदो मुकर्जी पीरभिट्टांगली गांछान अजमेरको शङ्कामोंका निम्न पत्र पढ़ कर सुनाया ॥ मो३म् . . . - श्रीमान मंत्री... . .. जैन कुमार सभा अजमेर ::कृपया मेरे दो प्रश्नों के उत्तर जो निम्न लिखित हैं और जिनकी मुझे शंका है जैनतत्वप्रकाशिनी सभाके किसी योग्य सञ्चालक से सर्व साधारण के सा. महने प्रगट करा कर मेरे पास शीघ्र भेजने की कृपा करें। श्रीयुत ठाकर दिग्विजय सिंह जी ने जो व्याख्यान ता० २९-६--१२ की रात्रि को दिया था उसी में जैनधर्मके सम्बन्ध में ये शंकाएं उद्भत हुई हैं। (१) अभव्य राशिको पायमात्र बदलने पर श्री जैन धर्म मुक्ति नहीं दे सक्ता। हां स्वर्गादि मुख उसे भी प्राप्त हो सक्त है। Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका-जब प्रभव्य राशिको रुपान्तर करने पर भी जैन धर्म मुक्ति प्रदान नहीं कर सक्ता और स्वर्गादि मुख ही दे सक्ता है तो ऐसे धम्म से क्या फायदा है जो सबका भला न कर सके। अगर भष्य राशि वाला कोई जि. ज्ञासु इस धर्मसे मुक्ति चाहने की कला करे तो वह उसे कहां प्राप्त हो सकती है ऐसा धर्म जब जिज्ञासु जनोंकाही कल्याण नहीं कर सक्ता तब इसे कोई क्योंकर दृढ़ धर्म समझे। "कीरति भूत सुलभ गति सोई. "सुरसरि सम सब कर हित होई,,. ...... (२) परोपकार-इस शब्द का अर्थ जैन धर्म में क्या है और वह राग में है या राग से वाहिर है। जैनतत्व प्रकाशनी सभाका चिरपरिचित. . , शंभुदयाल तिवारी - तिवारी जी के उपर्युक्त दोनों प्रश्नों के उत्तर. श्रीजैनतत्व प्रकाशिनी सभा की ओरसे निम्नलिखित लेखबद्ध दिये गये थे जिमको भी देवकीनन्दनजीने पढ़कर सुनाये और उनपर नियमानुमार ऐकी व्याख्या की कि सर्व धाधारण उनके भावको भलीभांति समझ गये। .. . . वन्दे जिनवरम् ।:: श्रीमान् शम्भुदयाल जी शम्र्मा तिवारी के प्रलोके उत्तर । २. १जैनधर्म प्रात्माका स्वभाव है और वह प्रत्येक ही जीवमें अनादि काल से कर्मबश विकृत रहता है । भव्यजीव उसको कहते हैं जो कारण सामग्री मिलने से धर्मको स्वाभाविक अवस्थाको प्राप्त हो मार मोक्षको पा लेता है। परन्तु अभव्य जीवमें एक ऐसी प्रतिवन्धक शक्ति है जो धर्मकी स्वाभाविक अवस्था नहीं होने देती। जैसे जोसी बन्ध्या नहीं है उसके पुरुषसंयोग होने पर सन्तानोत्पत्ति हो सकती है परन्तु वन्यासी के एक ऐसी प्रतिवन्ध शक्ति कि जिससे उस के सन्तानोत्पत्ति नहीं होती। ससकार भव्य और अभव्यका स्वरूप जानना , अभय जीव अपने कर्मों का नाश कर स. बने के कारण कहीं भी कभी मोक्षको प्राप्त नहीं हो सकता ? २ परोपकारका अर्थ दूसरे को लाभ पहुंचाना है और वह राणरहित या राग सहित दोनों अवस्थानों में होकरके पहुंचाया जा सकता है । यथा मेष Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ mune. .. " सर्वको बिना राग ही लाभ पहुंचाता है और हम लोग अपने कुटुम्ब प्रादि को माग भहित हो कर लाभ पहुंचाते हैं । " __चन्द्रसेन जैनवैद्य मन्त्री श्री जैनतत्त्व प्रकोशिनी सभा.. इटावा ।स्थान अजमेर ता०१।७ । १२ - - - प्रश्न और उत्तर सुनाये जाने के पश्चात् तिवारीजी की सभामें खोज कीगयी पर श्राप उपस्थित न थे इस कारण यह निश्चय हुआ कि उत्तर पत्र श्री जैन. कुमार सभाके मन्त्री वाबू घीसूलालजी अजमेराके पास रहे और वह उसको तिवारीजीसे मिलनेपर उनको देदें। इसके पश्चात् विद्यार्थी मक्खनलालजीने पण्डित दुर्गादत्तजीके उस व्याख्यानका खगहन किया जो कि उन्होंने मार्यसमाज भवन में तारीख १ जुलाईको रात्रिको दिया था। यद्यपि अपने व्या. ख्यान में पविडत दुर्गादत्तजीने जैनधर्मके खगडम और वेदोंके महत्त्व प्रदर्शन में कुछ नहीं कहा था-क्योंकि उनको यथार्थ में जैनधर्मपर अश्रद्धा और वेदोंपर श्रद्धा तो थी नहीं.-और जो कुछ उनको कहना पड़ा था वह सब ऊपरी भयसे सामान्य बातें थीं पर तो भी सर्व साधारसके भम निवार्य उसका खण्डन किया गया। सर्व सभाको इच्छानुसार न्यायाचार्य पण्डित माणिकचन्दगीने बड़ी योग्यतासे मूर्तिपूजन पर विवेचन किया और उसके पश्चात् कंवर दिग्विजयसिंहजीने प्रतिनिधि होकर श्रीजेनतत्वप्रकाशिनी सभाका सन्देशा श्री जै. मकुमार सभा अजमेरको सुनाया जिसमें कि अपने ज्ञान और चारित्रकी वद्धि करते हुए जैनकुमारोंको जैनधर्मकी सच्ची प्रभावना करनेका हृदयग्राही शब्दोंमें उपदेश था । वादिगज केसरीजीने कुंवर साहवका समर्थन करते हुए उ. पसंहार वक्तृता दी जिसमें कि जैनियों को बड़े जोर शोरसे जैनधर्म का प्रचार कर स्वपर कल्याण करनेका उपदेश था । अन्त धन्यवाद और बधाई प्रादि के भान होकर जैनधर्मको बड़ी प्रभावना के साथ जयजयकार ध्वनिसे सभा का उस्म समाप्त हुआ। सन्माको श्रीजीको रथयात्रा बड़े ठाट-बाट और धूमधामसे हुयी और इस प्रकार प्रोग्रामानुसार श्री जैनकुमार सभा अनमेरका प्रथम वार्षिकोत्सव बड़े भूमधाम और सपाहतासे समाप्त हुआ। मान सन्ध्याको प्रार्यसमाजकी ओरसे निम्न विज्ञापन प्रकाशित हुमा। . Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अब हठधर्मीसे काम नहीं चलेगा। Bi a talee जिन निर्पक्ष विद्वानोंने परमों के शासार्थको सुना होगा, उनको, भली भांति प्रकट होगया होगा कि श्रीमान् स्वामी दर्शनानन्दजी महाराजके कई बार गुदी जदी दलीलें व अनेक प्रकार की मिसालें देकर ईश्वर कर्ता सिद्ध करने पर भी जैन पंडित गोपालदास जी अपनी कमजोरी प्रकट न होने देने व भोले भाले लोगों पर अपना प्रभाव डालने के लिये उछल ९ कद २ कर यही कहते रहे कि "मेरे प्रश्नका उत्तर नहीं मिला यह चाल इन्होंने पहिले से ही सोच ली थी इसी कारण वार २ कहने पर भी लेखबद्ध शाखासे इनकार किया, परन्तु सत्य छिपाये कब छिप सकता है ! यह तो चालवाजी के 9 पदै फाहकर भी प्रकट होजाता है। चुनांचे स्वामी की शान्तपत्ति और अखगड शास्त्रोक्त दलीलोंका प्रभाव अनेक प्रात्माओं पर पड़ा जो स्वामी जीके पास कर अपने संसय मिटाते रहे, इनमें से मुख्य पं० दुर्गादत्तजी पूर्व जैन उपदेशक हैं, जिन्होंने शुद्ध हदय से जैन धर्म को तिलांजलि देकर वैदिकधर्मकी शरण लेने का अपने भाप विज्ञापन दिया और दूसरे शंभुदत्तनी नामी महाशय ने भी जैनमत से अपनी घृणा प्रकट की, इससे घबराकर हमार जैनी भाइयोंने अपनी शर्म उतारने के लिये पंडित जी के शुद्ध भावों पर व्यर्थ लांछन लगाया, शायद उन्हों ने सब लोगों को बेवकूफ ही समक रक्खा है, परन्तु लोग भले प्रकार समझ गये हैं कि अगर परिडत जी ऐसे ही होते जैसा कि जैनी अब चिड़कर लिखते हैं तो काहे को जैन लोग एक दिन पहलेली विद्वत्ता का लम्बा चौड़ा विज्ञापन देते और सभा में बड़े जोर शोर से इनकी तारीफ करते । अब ज. ब इन्होंने जैनमत की पोल खोलदो तो खिसियाने होकर भार्यसमाज और पविडतजी पर झठे दोष लगाने लगे। मन्त्रीजी ! यदि पण्डित जी ने अपने व्याख्यान में (जो कि जनसभामें ३० जूनको हुवा था) वेदों की पोल ही खोली थी तो मापने व्याख्यान के बीच मैं काग़ज़के टुकड़े पर क्या लिखकर दिया था और उसके उत्तर में पण्डितजीके इन शब्दों का क्या प्राशय था कि "कि वेदों में निरी पोल ही पोल है जिसमें भाप सब समा जायेंने,, । Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ mine (२८) महाशय ? इन झूठी बातों से अब कुछ नहीं बनेगा अच्छा हो कि हठ को छोड़कर सत्यको ग्रहण करें और सबके मालिक ईश्वस्पर विश्वास लायें, इसी में कल्याण है। ----अविडतजी हर समय आप लोगों के संशय मिटाने को तय्यार हैं। तारीख - जयदेव शम्मी मन्त्री२-७-१२ .." मार्यसमाज, अजमेर १. व्यावर के कंवर रामस्वरूप जी रानी वाले, वहां के दिगम्बर जैन सभा के सभ्यों और पञ्चों के अनुरोध से श्री जैन तत्त्व प्रकाशिनी सभा माग रात को व्यावर पधारी। बुधवार ३ जुलाई १८१२ ईस्वी। कलके "अब हट धमी से काम नहीं चलेगा,, शीर्षक भार्य समाज के विज्ञापन का उत्तर निन्न विज्ञापन द्वारा दिया गया। वन्दे जिनवरम् * आर्य समाजी ढोलकी पोल और उसको शास्त्रार्थका पुनःचैलेन्ज । .. सर्व साधारण प्रजनन महोदयोंकी सेवा में निवेदन है कि कल एक वि. जापन "अब हठ धर्मी से काम नहीं चलेगाशीक आर्य समाज की श्रोरसे निकला है जिनमें कि उसने सत्यको बिलकुल पास भी नहीं फटकने दिया है। पपा मार्य समाज प्रा उत्तर देकर अपने स्वामीजीके बिषय से विषयान्तर होते हुए अपलंग करत जाने को ही प्रश्नाला उत्तर देना समझती है। यदि उसकी समझमें वादि गज केसरीजीके ईश्वरकी स्वाभाविक क्रिया में सष्टि कर्तृत्व और प्रलय कर्तृत्वके परस्पर विरोधी गुणाके दूषण का समाधान हो गया था तो क्यों नहीं उसने प्रवलिक के पापनार्थ "मानको मरम्मत,शीर्षक हमारे विज्ञापन में प्रकाशित उक्त का निराकरण हापा । छापती कैसे उसके छपते ही उसकी सारीपोल खुल जाती। स्वामी दर्शनानन्द जी की इच्छानुसार ही शास्त्रार्थ मौखिक रक्खा गया - Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - (२९) था। यदि समाजको भबभी लिखित शाखार्थ करनेका हौसला और बाकी रह गया है तो हम उसको फिर भी बैलेख देते कि वह प्रति शीनही लि. खित भी शास्त्रार्थ करके अपने मनके हौसले निकाल ले। .. समाजको विश्वास रखना चाहिये कि लता कदता वही जिसका कि पत ठीक होने का उसके हदय में निश्चय होता है और जिसका पक्ष ठीक नहीं होता वह घबड़ा जाया करता है। . पं० दुर्गादत्त जीको पूर्व जैन उपदेशक बतलाना सरासर लोगों को प्रां खों में धन फेंकना है क्योंकि वह पहले भार्यसमाजी थे और उन्होंने समा. जमें ३ वर्ष तक उपदेशनीका काम किया था। जब समको समाज में शान्ति प्राप्त न हुई तब सम्म सि महीने में जैन धर्म की शरण ग्रामीची जैसा कि जैन मित्र, के इ अप्रेल सन् १९९२ ई० के अंक १२ वें में पृष्ठ पर प्रकाशित "मैंने जैनधर्म की शरण क्यों ली, शीर्षक उमके लेख से प्रगट है। वह जैनधर्मके सिद्धान्तोंको अच्छी तरह नहीं जानते थे पर उनका बिर जैन | विद्वानोंसे जैन सिद्धान्तोंके अध्ययन करने का था कि इतने में ही तार ३० जूनके शास्त्रार्थ में भारी पछाड़ खाने से अपने टूटे हुए मानको मरम्मत करनेके अर्थ समाज ने उनको जितिस प्रकार पुनः प्रार्य समाजी बनाने का प्र. यास किया है। :: तारीख ३० जूनके शास्त्रार्थका क्या परिणाम हुमाया पं० दुर्गादत्त जी ने वेदोंके विषय में क्या कहा यह हमारे और समाजले कहने की बात नहीं हैस को तो वि पबलिक खयंही जानती है अब उसके अन्यथा कहनेसे क्या हो सक्ता है। जो हो। हमको अब इस प्रकार कागज़ी घोड़े दौड़ा कर अपना व प. बलिकका अमूल्य समय नष्ट करना इष्ट नहीं है अतः हन समाजको लिखित शावार्थ करके भी अपने मनका हौसला निकाल लेनेका मौका देते हैं। ". पूर्ण पाशा तथा दूढ़ विश्वास है कि समाज इस चैलेखको पाते हो तो. रन शालार्थ करने की स्वीकारता प्रदान कर इन लोगोंको पस्न अनगृहीत करेगी। .. ..... . . . . 7. यदि इस विषय में समानका कोई समुचित उत्तर तारीख ४ जुलाई सन् र की शाम तक [जब तक कि हमारी श्री जैन तत्व प्रकाशिनी समा Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समान बादकी साज रिनी निटानेको यहां उपस्थित है। न प्राप्त हुआ तो यह सपना जायेगा कि समालो शाखार्थ करना इष्ट नहीं केवल धमकी देकर के ही पलिकको पोझमें डाल रही है। तो-३-७-१९१२ अजमेर : : घीसूलाल अजमेरा मन्त्री श्रीजनकुमार सभा अजमेर भान सन्ध्याको व्यावरमें सेठ ताराचन्द जी रईस नसीरावादके सभापतित्वमें सभा प्रारम्भ हुई । भाम विज्ञापन वांटे जानेके कारण सभामें खूब भीड़ थी। भजन व मङ्गलाचरण होने के पश्चाद् न्यायाचार्य पंडित मासिक चन्द मी "अनेकान्त पर विद्वचा पूर्व व्याख्यान दुचा। कंबर दिग्विजमसिंहबी ने "जैन धर्मके सौन्दर्य पर प्रभावशाली भाषच किया । वादि गजकेसरी जीने "सम्यकत्व" पर अपूर्व विवेचन कर सर्व साधारणको मुग्ध कर दिया । भजन व मङ्गल होकर जय जयकारयमिसेसमा सानन्द सना. बृहस्पतिवार ४ जुलाई १८१२ ईस्वी। नसीराबादके सेठ ताराचन्द जी, लाला प्यारेलाल जी, सेठ लक्ष्मी चन्द जी और दिगम्बर जैन सभाके सभ्यों और पच्चोंके अनुरोधसे आज सभा मसीरावाद पथारी। .... मार्चसमाजकी ओरसे प्राज निम्न विज्ञापन श्री जैन कुमार सभाके "मामाली ढोलकी पोल और उसको शास्त्रार्थका पुनः चैलेख शीर्षक विज्ञापन के उत्तर में प्रकाशित हुआ। ... ॥ो३म् ॥ .. । सराबगियोंकी नंगी पोल, भीतर तांबा ऊपर झोल। सर्व साधारणको विदित हो कि जैनियोंसे जब हमारे सीधे सच्चे विज्ञापनका कुछ उत्तर न बन पड़ा तो गालियोंपर उतारू होगए हैं और एक विज्ञापन "ढोलकी पोल" नामक निकाला है जिसके शब्द २ से झूठ टपक रहा है. स्वामीजीकी अखण्ड दलीलोंका प्रभाव जैसा विचारशील पुरुषों पर पड़ा, वह उसके भतीजेसे ही प्रकट है शक्ति तो मोक्षके समान और नाम एक्सें वादिगजकेशरी डीक, शांखोंके अंधे और नाम नैनसुख, अपने मुंह नि. Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३९ ) यांमिट्ठू बनना इसी को कहते हैं परन्तु इस थोथे ब्राडम्बरोंसे भोले भाले लोग भले ही धोखा न जायें, समझदार तो खूब समझते हो हैं "मानकी म रम्मत" नामक विज्ञापनका हरएक बातका उत्तर होते हुए भी यह लिखना कि उसका निराकरण क्यों नहीं दापा, कितनी धर्ती है। दरवाजे तक पहुंचाने श्रीखामीजीने अनेक दलीलों व विपालोंसे भली प्रकार मिठु कर दिया या कि चैतन्य शक्तिको क्रिया अनेक परिणाम वाली होती है इससे ईश्वर में • कुछ विरोध नहीं प्रांता, परन्तु हमारे सरावगी भाइयोंने तो एक मंत्र सीख: रक्खा है कि हरएक बात के पीछे कह देना कि "इसका उत्तर नहीं हुआ यह तो वही मसल हुई कि मुझांजी ! तुमने हराया तो बहुन पर हमने हार नाभी ही नहीं यह लिखना कितना असत्य है कि श्रीखानी दर्शनानन्दनी की इच्छानुसार ही शास्त्रार्थ मौखिक रक्खा गया था । श्री स्वामीजी तथा बाबू मिटुनलालजी वकीलने सभामें कई बार कहा कि शास्त्रार्थ लेखबद्ध हो ताकि किसीको अपनी बात से पलट जामेशा मौका न रहे, परन्तु इन लोगों ने माना ही नहीं, उधर श्रीस्वामी जीने झूठेको उपके का दृढ़ संकल्प कर लिया था, इसी कारण इन लोगोंकी हर एक बातको हो मंजूर कर लिया, इससे बढ़कर निडरता व वैदिक सत्यतापर ढूंढ़ विश्वास पा • होगा कि इन्होंका स्थान, इन्होंका दिया हुआ कुवत, इन्होंका सरावगी प्रधान, इन्होंका रटा हुआ विषय और इन्होंकी सभा में जाकूदे ताकि यह लोग किसी प्रकार भी टालमटोल न कर सकें। अब हारकर लिखते हैं कि लिखित शास्त्रार्थ फिर कर लो, सो हमारा तो चैलेज पहिलेसे ही मौजूद है कि जब चाही सत्यासत्य निर्णयके लिये शास्त्रार्थ करलो । यह लोग लिखते हैं कि उहलता कूदता वही है जिसका पक्ष ठीक हो और जिसका पक्ष ठीक नहीं हो तो वह घबरा जाता है तो यह तो कहर से कहर जैनी भाई भी क हते हुए सुनाई दिये कि स्वामी जो कैसी शान्ति और धीरज से अन्त तक उत्तर देते रहे, परन्तु पंडित गोपालदासजी की तरह उन्होंने धैर्ध्वको नहीं डोड़ा । उखलना कूदना सत्यकी निशानी नहीं, दम्मको है, क्योंकि पीचा माजे पंचा बदि do दुर्गादत्त जी जैम उपदेशक नहीं थे और जैन सिद्धांतों को शब्दो तरह नहीं जानते थे तो उनके द्वारा जैनमतको वैदिक धर्मसे तुलना कर का: विज्ञापन क्रिस बिरले पर दिया गया था । यह विज्ञापत्र झूठेके मुंहपर e Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३२) कोलस लगानेके लिये सर्वदा मीजद रहेगा। पण्डितजी जब तक जैनी थे तब तक ती शास्त्री और विद्वान् थे और अश्व जैनमतको तिलाञ्जलि देते ही कमलियाकत होगये, परन्तु इस मिश्याप्रलापको पलिक भली प्रकार समझती है। इन लोगोंने हरएक बातमें चालाकी सीखली है, पहिले भी शास्त्रार्थ को टाजनके लिये ॥ बजे चिट्ठी भेजी और विना उत्तर पाये ही दो बजे महत गर्मीका वक्त यह समझ कर मुकर्रर कर दिया कि न तो ऐसी कड़ी शर्त मंजूर होमी और न शाखार्य होगा। अब भी चालबाजी से विज्ञापन व्यावर में छपवाकर ३ तारीख की रातको बांटा और शास्त्रार्थके लिये ४ थी. ता. रोखका समय दिया है। यदि ऐसा ही होसला था तो शास्त्रार्थके पीछे जब स्वाभीजीने सभामें कईवार शास्त्रार्थ कई दिनों तक जारी रखनेके लिये कहा था तो इन लोगोंने क्यों इनकार कर दिया, खैर । यदि अब भी स्वामीजी के चले जानेके पश्चात् कुछ हौसला प्रागया हो और ३ वर्षको अबला जैनतत्त्व. प्रकाशिनी सभा, ३० वर्षके प्रौढ आर्यसमाजके वादको खाज मिटानेकी श. क्ति पैदा होगई है तो भार्यसमाजके लिये हमसे बढ़कर और खुशी क्या हो सकती है। हम डंके की चोट कहते हैं कि लेखबद्ध शास्त्रार्थके लिये हम घरवक्त तय्यार हैं श्राप शीघ्र ही प्रारम्भ करें, परन्तु इस जिम्मेवरीके लिये किसी योग्य प्रतिष्ठित अजमेर निवासीको ओरसे जिम्मेवरीका विज्ञा. पन होना चाहिये, लौंडों के द्वारा ऐसे काम पूरे नहीं हो सकते। जयदेव शर्मा मन्त्री प्रार्यसमाज अजमेर _ तारीख ४.७-१२ सन्ध्याको नसीराबादमें कुंवर रामस्वरूपजी रानी वाले रईस व्यावरके सभापतित्वमें सभोका अधिवेशन प्रारम्भ हुमा । श्राम नोटिस वटजाने और श्रीजेनतत्त्व प्रकाशिनी सभाको ख्याति हो जानेके कारण प्राज सभामें बड़ी भारी भीड़ थी। भजन होने के पश्चात् म्यायाचार्य पखित माशिकचन्दजी का मङ्गलाचरण रूपमें एक संक्षिप्त व्याख्यान हुमा। कंवर दिग्विजयसिंह जी घोर करताल ध्वनिके मध्य "मूर्तिपूजन, पर व्याख्यान देने को खड़े हुए । मापने ऐसी योग्यतासे मूर्तिपूजन सिद्ध किया कि लोग दङ्ग रहगये और वाह वाह करने लगे। इसके पश्चात् वादिगजकेसरीजीका "कर्ताखगडन,, पर ऐसी सरल और मिष्ट वासी उपाख्यान हुछा कि लोगोंके हृदयमें उसकी लीक सिंच. गयी और बड़े २ विद्वान् कवादियों को भी इस विषयमें शङ्कायें हो गयीं। Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । हम लोगों के प्रभावको नष्ट करने के अर्थ अजमेर के आर्यसमाजियों ने म. सीरावादमें पहुंच कर तरह तरह की गप्पं उड़ाकर सर्वसाधारणको भनमें डाल रक्खा था जिनका कि प्रतिवाद करना उचित समझा गया। उसके अर्थ कं. वर दिग्विजयसिंहजीने खड़े होकर सर्व यथार्थ वार्ता कह सुनायी जिससे कि आर्यसमाजियोंका सर्व प्रपञ्च लोगों पर प्रगट हो गया। अपनी पोल इस प्रकार खुलते देखकर पण्डित लालतामसादजी असिष्टेण्ट सेक्रेटरी परोपकारिणी सभा अजमेरसे न रहा गया और अपने सभामें खड़े होकर फिर लोगों को भूममें डालना प्रारम्भ किया पर दो तीन बार उत्तर प्रत्युत्तर होने पर आपको बन्द होकर लज्जित होना पड़ा । अपनी लज्जाको दूर करनेके अर्थ मापने उसी समय लिखित शाखार्य करने की धमकी दी जिसपर हमारी ओर मे हर्ष प्रगट किया जाकर मापसे पल्ला गया कि यह लिखित शास्त्रार्थ भाप स्वयं करते हैं या किसी समाज की ओर से । आपने आर्यसमाज अजमेर का मान लिया जो कि हमारी ओरसे विना उसकी स्वीकारता दिखलाये अस्वी. कार किया गया। इस पर मार्यसमाज नसीराबादने भापको अपनी ओर से शास्त्रार्थ करने का प्रतिनिधि नियत किया । दोनों ओरके निश्चयके अनुमार वहीं सभामें एक एक प्रश्न परस्पर लिखा जाने लगा और हमारी ओरसे निम्न प्रश्न लिखा गया ॥ . . आप ऐसे मूल पदोर्थ कितने और कौन से मानते हैं जिनमें कि सर्व पदार्थ गर्भित हो जाय और वे किसी में ग. मित न हों और उनके लक्षण क्या हैं। प्रमाण से इन प. दार्थों का निर्णय किया जायगा अतः प्रमाण के सामान्य और विशेष लक्षण लिखिये ॥ 1. " - हमारी ओरका उपर्युक्त प्रश्न लिखा जाकर सभामें सुनाया जानेको ही था किपिडित लालतामसादगीने (अपमा प्रश्न लिखना बन्द करके ) खडे सेकर यह कहा कि यह शास्त्रार्थ बहुत दिवस तक जारी रहेगा अतः आप लोग अपनी सभा' वन्द करके प्रथम नियमादि निश्चित कर लीनिये सब कल से शास्त्रार्थ चलाइये। श्रापको वात कईवार हमारे प्रतिवाद करने पर भी AC Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानना ही पड़ी और भजमन अन्तिम मङ्गल होकर जयजयकार ध्वनिसे सभा समान दुबी॥ . .. ..... : अबतक-इन लोग समाप्त करें करें तबतक पण्डित लालताप्रसादजी सभा से अपने मित्रमडल सहित चुपचाप खिसक गये और बहुत ढूंढ़ खोज करने पर भी मापका पता न चला ॥ .. ..शक्रवार ५ जलाई ११२ ईस्वी । ___ प्रातःकाल होते ही नसीराबाद आर्य समाज के मन्त्री बुलाने पर आये और शाखाके विषय में पछे जाने पर कहा कि हमारे पण्डित लोग तो अजमेर चलेगये अब इन पा करें। हमारी ओर से प्रापको वही हमारा कल रातको लिखा हुमा प्रश्न दे दिया गया और कहदिया गया कि इसका उत्तर बादमें जब मापसे हो सके भिजवा दीजियेगा ॥ कल रातको व्यास्पान सुनकर ईश्वरके सृष्टि कर्तृत्व और मूर्जिपूजन के विषय, अनेक सन्देहों को प्राप्त विद्वान् वैष्णव परिहत चुनीलाल जी शर्मा हम लोगोंके खान पर पधारे और न्यायाचार्यजी से संस्कृतमें उपर्युक्त दोनों विषयों पर डेढ़ दो घण्टे तक.वाद विवाद कर सन्तोषको प्राप्त हुये और जैनधम्र्मती प्रशंसा करते हुये चलेगये। .. आज दिनको मध्यान्ह समय सभा पुनः अजमेर लौट भायी । सन्ध्या की वादिंगज केसरीजीको मन्दिरजी शाख सभा हुयी और आपने उसमें कई तत्वों और वातोंका अपूर्व स्वरूप दिखला कर सबको आनन्दित किया । कलके आर्यसमाज विज्ञापनका उत्तर निम्न विज्ञापन द्वारा दियागया । ॥ बन्दे जिनबरम् ॥ आर्यसमाज की खुलगई पोल । शास्त्रार्थ से टालम टोल । सर्व साधारण सज्जन महोदय की सेवा में निवेदन है कि कल एक वि. जापम " सराबगियों की मङ्गी पोल भीतर तांबा ऊपर जोल' शीर्षक मा. र्यसमाज की भोरसे निकला है जिसमें कि नालियों मोर असभ्य बातोंके सिवाय सारवात का खेशमात्र भी नहीं है और यह प्रत्यक्षही है कि जो हीन शक्ति हुश्रा करता है वही इस प्रकार गालियों तथा असभ्य शब्दों का प्रयोग किया करता है। Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ C RILLADI गीदह कौन है और सिंह कीन है यह ठहरने तथा नागजानेके कृत्योंसे ही पलिक को स्वयं प्रगट है। .. समाज का यह लिखना कि उसने "मानकी मरम्मत- शीर्षक हमारे विज्ञापनको समग्र बातोंका उत्तर प्रकाशित कर दिया नितान्त ही मसत्य है क्योंकि उसके "अब हठधर्मी से काम नहीं चलेगा" शीर्षक विज्ञापन में ईश्वर की स्वाभाविक क्रिया में सृष्टि कर्तृत्व और प्रलय कर्वत्व के परस्पर विरोधी गुण के हमारे दिये हुये दूषण का कुछ भी समाधान नहीं है और म इस विज्ञापन में ही कुछ है । इससे भली भांति प्रगट होता है कि समाज के पास उसका उत्तर है ही नहीं। जब कि श्री जैन तत्व प्रकाशनी सभा अपने मामूली से मामूली शङ्का समाधानको भी लिखित प्रणाली से करती है जैसा कि समाजको उसके वि. नापनों और कार्रवाहियों से प्रगट होगा तो इतने बड़े भारी शाखाके विषयको वह कब मौखिक रख सकती थी। क्या समाज इस बात से इन्कार कर सकता है कि स्वामी जीने पाच पांच मिनट मौखिक शाखाके लिये नहीं रक्खे थे और जब उस ने उम की ही बात को स्वीकार कर लिया तो या इससे यह प्रगट नहीं है कि उनकी इच्छानुसार ही मौखिक शाला. च रक्सा गया था। निस्सन्देर श्रीजैन तत्व प्रकाशिनी समाने दोनों पक्षोंकी ओरसे कहे हुए मौखिक शब्दोंकी रिपोर्ट पर जी कि दोनों ओरके रिपोर्टरोंने लिखी थी हस्ताक्षर करनेसे इस लिये इन्कार कर दिया था कि वहां रि. पोर्टर लोग ऐसे संलिप्त लिपि.प्रणाली में चतर नहीं थे जो किक हुए शब्दों को पर प्रत्यार लिख सकें और सभी पाए या शब्द बनानेसे भाव अन्यथा हो जाता है। मदि समाज के प्रस्तावानुपारी दोनों मोरके तीन तीन रिपोर्टरों में से प्रत्येको लेखमांच करके हस्ताक्षर किये जाते तो शास्त्राका सार समय सीमें नष्ट होडावा। समाजको विश्वास रखमाझये कि परामित पुरुष कभी भी बिनमी का सामना करने के लिये मैदान में नहीं ठहर सकता किन्तु शीघ्रही भाग जाता है। विपी पुरुष ही पराजित पुरुषके अपनी पराजयसे इन्कार करने पर उसको पुत्र परास्त करने के लिये मैदान में मानेको ललकारता है। यदि समाजको इस बातका विश्वास है कि "ईश्वर इस सृष्टिका कर्ता नहीं : : Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - । है। यह विषय जैनियोंका रदा हुमाझेने से बहुत प्रवल है जिसका लिहत्तर देनेमें समाज सर्वथा असमर्थ है तो हम उसकी इच्छानुमार ही किसी भी विषय पर जिसमें वह शास्त्रार्य करना है शास्त्रार्थ करनेका चैलेज देते हैं। ... समाजका प्राय लिखना कि उनके सामीजी शान्ति और धीरज से अन्त सक प्रश्नका उत्सर अनेक दलीलों और मिसालोंसे देते रहे ठीक नहीं क्योंकि यदि ऐसा होता तो उनके ही तरफके अग्रेसर वाब मिटुनलालजी वकील स्वा मीजीसे यह क्यों कहते कि "महाराज पण्डित जीके प्रश्नका उत्तर दीजिये पं० दुर्गादत्त जीके पूर्व ही प्रार्य पमाजी होनेके विषयमें इम अपने इस से पर्वके विज्ञापनमें भले प्रकार लिख चुके हैं। हमारा कहना यह नहीं है कि पंडित दुर्गादत्तजी कम लियाकत हैं। निस्सन्देह उनको जैनमतको शरण लिए हुए केबल तीन मास ही हुए थे. इस कारण उनका जैनमत में प्रवेश - चली तरह न होनेसे जैनमतसे फिसल जाना प्रार्थयजनक नहीं है। समाजी उपदेशक होनेसे वेदोंके विषय में तो उसका ज्ञान पर्याप्त ही था और उनके बात थोड़े दिनोंसे जैनी होने पर भी हमने उनसे जैनधर्म और वेदोंकी तुलना इस कारण कराई थी कि इस थोडेसे समय में भी उन्होंने जो कुछ जैन धर्मका महत्व देखा हो उसे पवलिकमें प्रगट करें और वैसा ही उन्होंने अपने व्याख्यान में किया भी । मालूम नहीं कि दूसरे दिन वह भार्यमाजके किन शाश्वासमपर जैनधर्मसे ज्युन होगए। समाजका यह लिखना कि जैनियोंने तारीख. जलाई की शाखाका समय निश्चित कर कड़ी शर्त की है साक्षात् लोगों को धोका देना है क्योंकि हम लोगोंने तारीख ४ जनाई को शाबार्य करना नहीं लिखा था वरन यह प्रगट किया था कि तारीख ४ जुलाईको शाम तक शास्त्रार्थ करनेके विषय में समुचित उत्तर प्राजाना चाहिये, प्रार्यसमाजको उचित है कि वह इस प्रकार मिपा वातोंको प्रकाश कर पलिकको धोखेमें न डाले। तारीख ३० जूनके शास्त्रार्थका परिवान'पलिंक ने भली भांति निकाल लिया है परन्तु अब जब भार्थनमाज यह कहकर पलिकको घोर्लेमें डाल रही है कि जैनियोंने लिखित शाखा करनेसे इनकार कर दिया और इस के सिवाय वह (माये ममाज ) अपने टूटे हुए मानकी मरम्मत करने के अर्थ थोथी कार्रवाइयां कर रही है तब हम को पवलिकके हितार्थ पुनः उसको शास्त्रार्थका चैलेज देना पड़ा। . ... Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 39 ) समाजका यह लिखता काजी सभा में कईबार कई दिनों तक शास्त्रार्थ जारी रखने के लिए कहा था पर जैनियोंने शास्त्रार्थ करने से इनकार कर लिया नितान्त असत्य है क्योंकि जब शाखार्थके अन्त में वादिगज के परीजीके हिस्से के ५ मिनटमा जी ने मांग लिए थे और उ में उन्होंने सबको धन्यवाद दिया और श्रमतत्त्व मकाशिनी सभाको ओर से उसके मन्त्री चन्द्रसेन जी जैन वैद्य ने बेस ही किया और उसके बादमें सभापतिकी संक्षिप्त वक्तता होकर सभा समाप्त होते ही उठकर चले गये तब समाजका चैसा लिखना सर्वथा मिथ्या है । जब कि सिंहका छोटा सा बच्चा हो बड़े २ मदोन्मत्त हस्तियोंके मान भंग करने में समर्थ हो सकता है तो तीन वर्ष से ही स्थापित हमारी श्रीजैनतत्त्वप्रकार्शिनों सभा ३० वर्षके मोड़ या समाजको परास्त कर मान भंग करने में समर्थ हो तो इसमें आश्चर्य ही क्या है ॥ 3: प्रार्थसमाजको विश्वास रखना चाहिये कि लौंडापन या लड़कपन उनके ताल्लुक नहीं हुआ करता बरन अक्ल के ताल्लुक हुआ करता है । किसका लौंडापन है यह कृत्योंसे पबलिकको स्वयं ही प्रगट है । FINA 0 छात्र जो प्रार्थसमाज किसी योग्य प्रतिष्ठित अजमेर निवासीकी भोर से शास्त्रार्थकी जिम्मेवारीका विज्ञापन प्रकाशित होनेपर शालार्थ करना चाहती है सो यह उसकी डूबते हुएको तिनकेकी ग्रस्थ लेने के समान निरर्थक है और इससे उसकी असमर्थता ही प्रगट होती है क्योंकि जब इस कुमारों के प्रबन्ध द्वारा ही श्रीजन कुमार सभा अजमेरका प्रथम वार्षिकोत्सव, प्रार्थसमाजका श्री जैन तत्वप्रकाशिनी सभा से तारीख ३० जनका मौखिक शास्त्रार्थं निविन और शान्ति पर्व समाप्त हो गया तो सब डरनेका कारण प्रगट करना सिर्फ टाल टून ही । विश्वास रहे कि जबतक प्रार्थसमाज लिखित शास्वार्थ न करले या शाखावेसे इन्कार न कर दे तबतक हम उसको उसके किसी भी बहाने या टालमटूलसे बोड़ने वाले नहीं हैं यदि प्रार्थनाको यह भय है कि श्रीजैनकुमार सभाशास्त्रार्थत्रा यथोचित प्रबन्ध नहीं कर सकती तो हम -अबकीवार आर्य समाजके मियत किये हुए स्यान, समय, विषय और प्रबन्ध में शास्त्रार्थ करनेको उद्यत हैं । परन्तु इन अपना बहुतसी समय: इस शास्वार्थकी इन्तजारी में नहीं नष्ट कर सकते छतः समाजको इस विज्ञापनके पाते STRAIN JEAN T 43 2 Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (इ) ही हम यह लिख देना चाहिये कि नारी श्री जैनतत्वमकाशिनी समा कल के बजे उसके समाज मनमें लिखित शास्त्रार्थको थावे ॥ यदि इस विज्ञापन पनि समय १२ घंटे के भीतर आर्यसमाज इस दि का समुचित उत्तर में देंगी तो हमारी खोजनत्वं प्रकाशिनी सभा प्रासमाजको शाखार्थ करने में सर्वथा असमर्थ समक अपने स्थानको चली जावेगी क्योंकि वह अपना समय शाखार्थकी केवल प्रतीक्षा में हो व्यर्थ नष्ट नहीं कर सकती 3 घीसूलाल अजमेरा मन्त्री —— श्रीजैन कुमार सभा अजमेर तारीख़ ५ जीलाई सन् १९१२ ई० आज प्रेतोंमें छुट्टी होने के कारण उपर्युक्त विज्ञापन दिनमें प्रकाशित न सका अतः रातो रात छपवाया गया और प्रातःकालके पांच बजे इस वि अपन को कई कापियां आसमाज भजनमें भिजवा और चिपकवा दी गयीं । A शनिवार ६ जुलाई १९१२ ईस्वी । मध्यान्हको प्रार्यसमाज अजमेरका निम्नपत्र प्राप्त हुआ। श्रीइम् शासन अजमेर ६ जुलाई १९९२ ई० युक्त मन्त्रीजी दिलकुमार सभा अजमेर | ॐ००६ महाशय ! नमस्ते, हुनागया है कि ज्ञान आपकी ओर से कोई विज्ञापन निकला है परन्तु इस वक्त ( मध्यान्हके १२ बजे ) तक हमारे पास उसको प्रति नहीं भाई है 50SE अतः कृष्ण कर १ प्रति इस पत्रके पाते ही शौघ्र भेजदेवें । N भवदीय जयदेव शर्मा मन्त्री प्रार्यसमाज अजमेर । मिनी PRE यद्यपि उनमें बिछापन अब प्रतिफलके पांच बजे ही पहुंच गया था परन्तु समय बढ़ानेके अर्थ जो मन्त्री प्रासमाउने उपर्युक्त पत्र भेजा दो आपकी विज्ञानकी एकप्रति पुनः मेज दी गयी झापाको कुंवर साहबका " मूर्तिपूजन, पर व्याख्यान होना निच- : न वान ा कय गा || Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वन्दे ज़िनवरम् +. मूर्तिपूजन पर व्याख्यान । सर्व साधारण साजन महोदयोंकोसेवा निवेदन है कि प्राण वादन लाई सन् १९१२ ईस्वी शनिवारको बन्ध्यागो, ६ बजेसे स्थान गोदी मशियांमें श्रीमान् कुंवर दिग्विजयसिंहजीका "मूर्तिपूजन, पर व्याख्यान होगा। प्रतः सविनय प्रार्थना है कि भाप सर्व सज्जन महोदय उक्त समय पर सबश्यमेव पधार कर हम सबको परम् अनुगहीत करिये ॥ ___ नोट-हमने भार्यसमाजियों की शाखाका चलेज दे रक्ता है। यदि उ. महोंने हमार मी व्याख्यान समय शाखा करना स्वीकार करलिया तो हम अपने व्यायामती बन्द बरसेगाखारनेको ले जायगे। पीसलाल अजमेरा मन्त्री श्रीजैनकुमारसा अमेर। सम्ध्याको नियत समय पर श्रीमान् स्याद्वादवारिधिवादिगजकेसरी प. विडत गोपालदासजी वरैयाक समापतित्व सभाकामाप्रारम्भ हुमा । न्या. पाचर्य पुस्सिव माणिकचन्दजी मङ्गलाचरणस्वरूप एक संक्षिप्त या दो. नेके पक्षावर साहवर्षध्वनिके मध्य व्याख्यान देने को सड़े हुो। सापने बड़ी योग्यता और सिद्धत्ताने अनेक युछियों और प्रमाखों द्वारा मूर्ति पूजन सिद्ध किया । "कंबर माहवका व्याख्यान हो रहा था कि सिकन्दरावाद गरुकल के अंध्यापक परिडत यावत जी शास्त्रो पार्यभमाजियों को बड़ी भीड सहित सभामें पधारे और मापने माते हो निम्न पत्र सभापतिजीको दिया। म श्रीमती महानुभावाः ॥ समुचित शिष्टाचारानन्तरम्वयं संप्रति श्रीमतः परिषदि शास्त्रार्थ चिकीर्षया समुत्सुकी भूत्वा समा. याताः तदाशां कुर्वासा वयं कथयामः श्रीमद्भिः शाखाः कर्तव्यः । देवमा. पायाँ शाखा स्वादचया भाषायामिति इच्छानुसारख माजापयिष्यन्तीति-- माश पुस्विरया श्रीमानुत्तरपतुतिमार्थयामि। निवेदको-यजदत्त शम्मी शास्त्री प्राधसवका Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ( ४० ) शास्त्रीजीका पत्र प्राप्त होते ही सभापतिजी ने उनको उसी समय शाखार्य करने की माता प्रदान की और कंवर साहब ने अपना व्याख्यान सं. कोच लिया। __म्यायाचार्य परिडत माणिकचन्द जी द्वारा श्री जैनतत्वप्रकाशिनी सभा और कार्यसमाजो शाखी पति यदत्तजीसे जो शास्त्रार्थ संस्कृत भाषा में ईश्वरके सृष्टिकतत्व के विषपमें मोखिक रीति पर हुणा वा इस रिपोर्टके प्र. न्समें परिशिष्ट नम्बर (ख) में प्रकाशित किया जाता है॥ ... रात्रि अधिक व्यतीत हो जाने के कारण सर्व उपस्थित सजान सभ्य महोदयों की प्रामानुसार शाखा बन्द किया गया और जय जयकार ध्वनि से सभा समाप्त हुई। . ... आज रात्रिको मिन विज्ञापन मार्यसमाजकी ओरसे प्रकाशित हुआ। . . ओ३म् . ... ... ..... शास्त्रार्थ को सर्वदातम्यार। . यह कितनी हंसीकी बात है कि इस रोशनीक जमाने भी हमारे कुछ सरावगी भाई यह समझ बैठे हैं कि हम सर्वसाधारणको मांखों में जिस प्र. कार चाहेंगे धूल डाल देंगे, पर यह खयाल उनका सरासर असत्य है। मिथ्या बोलना व लिखना ऐसी खोटी भादत है कि वह मनुष्य को प्रागा पीछा नहीं सोचने देती और एक झूठके सिद्ध करनेके लिये हमार झूठ बुलवाती है, इसी लिये महाकवि श्री स्वामी तुलसीदास जीने लिखा है कि: जाको प्रभु दारुण दुख देही, वाकी मति पहिले रिलेही। छपे हुए विज्ञापनकी मौजूदगी में यह लिखना कि भार्यसमाज शास्त्राच से टालमटोल करता है, कितना सत्य है। सब लोग भले प्रकार जान नये हैं कि शास्त्रार्षसे मुंह सरावगी लोग छिपा रहे हैं, जो वार २ करने वलिखने पर भी राजी नहीं हुए या भार्यलोग जो विना नियम तय किये हुए दी धमसे शास्त्रार्थके लिये जाकदे। अब हज़ार, माइम्बर रचो कि सभाके प. श्चात् स्वामी जीने शास्त्रार्थने लिये नहीं कहा और फिर उदकर चले गये, परन्तु जो लोग वहां मौजद थे वे भले प्रकार जानते हैं कि स्वामीजी और वा० मिट्ठनलाल जी वकीखने एक बार नहीं कई वार शाखार्य जारी रखने के लिये कहा और स्वामीनी वहां एकदम नहीं लाये किन्तु कई मिनट तक जब - Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४१) । तक सारी भीड़ न हट गई, बैठे भी रहे परन्तु जैनतत्व प्रकाशिनी सभा के सम्प शास्त्रार्थ के लिये राजी नहीं हुए-पर नहीं हुए, बल्कि उनके मन्त्री वैद्य चन्द्रसेनजी ने तो अपनी सभ्यताका यहां तक परिचय दिया कि आगे होकर लोगोंसे तालियां पिटवाई और समाके लिये नादान दोस्तका काम किया, क्योंकि इस कामसे सरावगियों की ही गिन्दा हुई ॥ . गोदड़ बह है जो वार २ कहने पर भी मुकाबले के लिये तय्यार नहीं और दूर ३ से भवकियें बताते रहें कि देखो मैं सिंह हूं। ता० ३ की रातको ११ बजे विज्ञापन बांटे जिसका समाजने ४ तारीखको दिनके १० बजे पहिले ही उत्तर पवा दिया और सिंहराजको मन्दिरों में ढूंढा, कन्दिोंमें खोजा, ज्ञान को दुर्वीमसे मुक्ति शिखरको शिला पर दृष्टि फैलाई, परन्तु सर्वत्र पोल ही पोल नजर आई। मंचं दो दिन बाद फिर कुछ होशं सम्भाल ६ तारीखके विज्ञापन पर ५ तारीख़ छपवा कर १२ घंटे की मियाद दे शास्त्रार्थ को टाला है (यह विज्ञापन ६ ता० को १ बजके ९० मिनटपर मन्त्री जैनकुमारसभाको पत्र लिखने पर प्राप्त हुमा ) इसीलिये तो हमने लिखा था कि यह छोकरोंका सा खेल कर रक्खा है किसी ज़िम्मेवर प्रादमी की ओरसे नोटिस होना चाहिये, परन्तु यह प्रा. जतक नहीं किया और मन्त्रीजी अपना छोकरा होना स्वीकार करते हैं। ठीक है महाशय ! आप अभी बालक हैं कुछ दिन संसारकी हवा खाइये यह अभिमान प्रापको गढ़े में गिरायेगा। स्वामीजी क्यों चले गये ?" यही भापको बड़ी भारी सभ्यता का नमना है। इसके विषय में श्राप कुंवर दिग्विजयसिंहनीसे पूछलें कि क्या वे स्वामी[ जीसे बीमों मनुष्यों के सामने यह नहीं कह पाये थे कि "महाराज मन शा वार्थ नहीं हो सत्ता प्राप तो माधु हैं, महीने भर तक ठहर सक्त हैं, परन्तु हमें जाना है, वार २ उत्तर मिलने परभी यह कहे जाना कि "ईश्वरके सष्टि. कर्तृत्व विषय का कछ उत्तर नहीं मिला, इसका क्या इलाज है। - सरावगी लोगों को परिणाम और गुणमें भेद मालूम नहीं है, ईश्वर सत्ता को क्या समझ सक्त हैं "फिर नोट करलें कि प्राय ईश्वरक्रिया का ही फल है उसका विरोधी नहीं,। ईश्वर सबका कर्ता स्वयं सिद्ध है क्योंकि जो चीज़ बनी हुई है वह विना | - - Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४२) कर्ताके हो नहीं सकती । यदि कोई नादान लड़का यह कहे कि मेरा को कोई बाप नहीं तो क्या कोई बुद्विमान् इसको विना बापके पैदा हुमा मान लेगा, ईश्वर जानका विषय है वितण्डाका नहीं, किसी कविने कहा है। हर जगह मौजूद है पर वह नजर माता नहीं। ___ योगसाधनके बिना उसको कोई पाता नहीं। ईश्वरका धन्यवाद है कि इन की कलम से ये तो निकला कि नतत्वप्रकाशिनी सभा ने इसलिये इन्कार किया कि उनके पास अच्छे लेखक नहीं थे परन्तु यह केवल टालने की बात थी. क्योंकि जब लिखा हुआ पढ़कर मुना दिया जाता तो जो कुछ भल होती उसी समय ठीक हो सकती थी। आर्यसमाजने तो इन की चालाकी की पोल खोलने के लिये ईश्वरमष्टि कर्तृत्व विषयका नमूना बतलाया था, नहीं तो इस के लिये सब विषय एकसे हैं जिसमें जब चाहो शास्त्रार्थ करलो ॥ पं० मिट्ठनलालजी वकीलके विषयमें मनघड़न्त करने का सबक तो इन्हों ने घंटीसे ही सीखलिया है। एक दो दूसरे प्रतिष्ठित लोगों के विषय में भी मिथ्या खबरें उड़ादी जि. सका हाल जब उनको मालूम हुआ तो इनको बड़ा डाटा ॥ ___पं० दुर्गादत्तजीके विषय में वे हज़ार बैंचातान करें, यह तो उमभर की शूल उनके लिये होगई और शम्भुदत्तगी पूर्व सहायक सम्पादक जैनमित्र ज्ञान गोली चलाने वाले और खड़े हो गये। सहारनपुर से एक और तीरन्दाज की खबर आई है। अब आपके कृत्रिम सिंहके बच्चेको पिंजरे में रखिये, क्यों कि हाथियों की लड़ाई का समय नहीं है । न ज्ञान गोलेके सामने कृत्रिम खिंह ठहर सकता है न ख़याली लोकशिखर व शिला। पहिले वाला शास्त्रार्थ ॥ वैद्य चन्द्रसेनजी मन्त्री जैनतत्वप्रकाशिनी सभाके हस्ताक्षरी पत्रकी जिम्मेवारी पर हुआ था, न कि कुमार सभाके भरोसे पर। अब जब कि लोग दहीकी माह में हो गये और छोकरों को आगे करदिया तो हमें सारी पोल खोलनी पड़ी। हम फिर भी साफ २ शब्दों में लिखे देते हैं कि भार्यसमान हर समय शास्त्रार्थ करनेको तइयार है परन्तु कोई अजमेर निवासी प्रतिष्ठित जिम्मे. वार सामने आवे, क्योंकि बाहरके आदमियोंने पहिले ही स्वयं तालियां पि. टवा कर अपनी असभ्यता का परिचय देदिया है॥ Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - (४३) . यदि किसी ऐसे प्रतिष्ठित योग्य पुरुषको जिम्मेवरीका प्रबन्ध श्राप नहीं कर सकते हैं तो आप स्वयं ही ( वशते कि आप काननी तौर पर बालिग बों) आकर कल २ बजे दिनके लेखबद्ध शास्त्रार्थ के लिखित नियम तय कर जावें ताकि व्यर्थ नोटिसबाजी में समय नष्ट न हो। यदि कल २ बजे तक आप प्रार्यसमाजमें प्राकर शास्त्रार्थ के नियम आदि न तय कर जायंगे तो समझा जायगा कि आप लोग शास्त्रार्थ करना नहीं चाहते केवल विज्ञापनबाजी करके पलिकको धोखा देना चाहते हैं । जयदेव शर्मा मन्त्री-आर्यसमाज अजमेर .. ता०६-9-१२ इस कारण कि मार्यसमाज ने अपने उपर्युक विज्ञापन में लिखित शा. स्वार्थ करना स्वीकार करलिया था और उस के नियम तय करनेके अर्थ इम लोगों को कल ( दूसरे दिन ) आर्यसमाजभवन में बुलाया था अतः सभके इस विज्ञापनका उत्तर विज्ञापन द्वारा प्रकाशित नहीं किया गया । परन्तु उसके इस विज्ञापनमें कई भामक वातें हैं अतः सर्व साधारण के हितार्थ उनका 3त्तरप्रकाशित किया जाता है । आर्यसमाजका हम लोगों पर मिथ्या बोलने और लिखनेका व्यर्थ ही गुरुतर दोष लगाकर प्रथम आक्षेप यह है कि हम लोग आर्यममाजको शास्त्रार्थसे टालमटोल करनेका व्यर्थ ही दोषारोपण करते हैं वह तो शास्त्रार्थको सर्वदा तैय्यार हैं। परन्तु विचारनेकी बात है कि कोई यह कहदे कि मैं इस कामको तैय्यार हूं और निस्प्रयोजन उसमें अहहे लगावें तो क्या वह उसके अर्थ तैय्यार समझा जा सकता है। देखिये शा. सासे टालमटोल करने का दोष आर्यसमाज पर लगानेके यह निम्न सहेत शब्द हैं और विचारिये कि वे कितने सत्य हैं । "प्रब जो आर्यसमान किसी योग्य प्रतिष्ठित अजमेर निवासी की ओरसे शास्त्रार्थको जिम्मेवारीका विज्ञापन प्रकाशित होने पर शास्त्रार्थ करना चाहती है सो यह उसका डबतेहए को तिनके की शरण लेने के समान निरर्थक है और इससे उसकी असमर्थता ही प्रगट होती है क्योंकि जब कुमारों के प्रबन्ध द्वारा ही श्रीजैन कमार सभा अजमेर का प्रथम वार्षिकोत्सव, आर्यसमाजका श्रीजैनतत्वप्रकाशिनी सभासे तारीख ३० जून का मौखिक शास्त्रार्थ निर्विघ्न और शान्ति पूर्वक समाप्त हो गया तो अब डरने का कारण प्रगट करना सिर्फ टाल टूल ही है।" Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४४ ) - हम पर दूसरा दोष यह आरोपित कियो गया है कि हम लोग बार बार कहने और लिखने पर भी शास्त्रार्थ से मुंह छिपा रहे हैं। पर यह तो विचारिये कि आर्यसमाजने कब हमको शास्त्रार्थ के अर्थ कहा या लिखा और हम लोग उससे मुंह छिपा गये । हम लोग किसीके ललकारने पर सदैव शास्त्रार्थ के अर्थ उद्यत रहे और हैं जैसा कि सबको हमारे कृत्यों और विज्ञापनोंसे स्वयं प्रगट है। यदि आर्यसमाजको हमारे कृत्य और पिछले विज्ञापनों की वात भल गयी थी तो कमसे कम उसे हालके ही प्रकाशित "भार्यसमाजको खलगयी पोल । शाखार्यके टालमटोल' शीर्षक विज्ञापन की वात तो जरूर याद रहनी चाहिये थी। विधारिये कि उसमें प्रकाशित यह निम्न शब्द शा. स्त्रार्थ से हमारा मंद छिपाना प्रगट करते हैं या उस के अर्थ पूर्ण सन्नद्धता । "विश्वास रहे कि जबतक भार्यसमाज लिखित शास्त्रार्थ न करले या शास्त्रार्थ से इन्कार न करदे तबतक हम उसको उसके किसी भी बहाने या टालम टूल से जोड़ने वाले नही हैं। यदि आर्यसमाज को यह भय है कि श्रीजैनकुमार सभा शाखाका पथोचित प्रबन्ध नहीं कर सकती तो हम अबकीवार प्रा. र्यसमाजके नियत किये हुये स्थान, समय, विषय और प्रबन्ध शास्त्रार्थ क. रनेको उद्यत हैं। परन्तु हम अपना बहुतसा समय इस शास्त्रार्थकी इन्तजा. रीमें नहीं नष्ट कर सकते अतः समाजको इस विज्ञापनके पाते ही हमको यर लिख देना चाहिये कि हमारी श्री जैनतत्वप्रकाशिनी सभा कल के बजे उसके समाजभवन में लिखित शास्त्रार्थको भावे ।" ___.. स्वामी जी और बाबू मिट्ठनलालजीका सभा में कईवार शास्त्रार्थ जारी | रखने के लिये कहना लिखकर सरासर लोगोंको धोखा देना है। तीसरा मन्त्री चन्द्रसेनजी जैन वैद्यका प्रागे होकर तालियां पिटवानेका दोष सर्वथा मिथ्या है क्योंकि उन्होंने शास्त्रार्थ प्रारम्भ होनेसे पर्व एकवार नहीं वरन फवार तालियां पीटने और जयकार बोलने की सख्त मनाही करदी थी। तालियां वहां पर उपस्थित कुछ मूर्ख लोगोंने पीटी थीं और उस के अर्थ वह खव धिक्कारे भी गये थे। मालूम नहीं कि कुछ आर्यसमाजियोंके तालियां पीटने में अग्रेसर होने से उनका क्या अभिप्राय था । उन्होंने अपने स्वामीजीकी जीत समझ कर तालियां पीटी थीं या हार समझ कर । चौथो दोष वादिगाकेसरीजी को कार वार कहने पर भी मुकाविले के लिये तैय्यार न होने और दूरसे भभकिये वताकर सिंह बननेका है। मालन Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४५) नहीं कि वह कब समाजका मुकाविला करनेसे हट गये जिस से कि उस को ऐसा भम हुश्रा । तारीख ४.को सिंहराजजी सभाके दौरे पर होनेसे नसीरावाद में गर्ज रहे थे। नहीं जानते कि समाजको उन्हें उस दिन मन्दिरों कन्दिरों और मुक्ति शिषर पर खोजने की ऐसी क्या आवश्यकता पा पड़ीथी जिससे कि उसने ऐसा कष्ट किया। महात्मन् ! उसको जो मन्दिरों, कन्दिरों और मु. क्ति शिषर पर सिवाय पोल ही पोलके और कुछ नजर नहीं भाता उसका कारण उनके दुर्वीनका भट्टापन है । यदि यथार्थ में उसको वस्तुका स्वरूप दे. खना और जानना है तो उसे अपनी पहिलेको रद्दी दुऊनको फेंककर सबसे अच्छी दु:नकी परीक्षा कर खरीदना चाहिये तब उसको सब यथार्थ स्वरूप जात होने लगेगा और हो जायगा ॥ __पांचवां दोष६ तारीखके विज्ञापनपर५तारीख छापनेका है। महाशय वर! निस्सन्देश ५ तारीखको प्रेसोंमें छुट्टी होनेके कारण विज्ञापन रातोंरात ५ता. रीख को बापा जाकर ६ तारीखके प्रातःकाल चार बजे प्रकाशित हुमा । ऐसी दशामें क्या समाज चाहती थी कि हम उस ५ तारीखके लिखे और छापे जाने वाले विज्ञापन पर झूठमूठ ६ तारीख छपा मारते । विज्ञापन तो उसके पास ६. तारीखको प्रातःकाल पांच बजे ही पहुंच गया था, पर हमने उसकी उससे रसीद न लिखायो इससे वह चाहे जैवजे अव उसका पहुंचना प्रकाशित करें। छठवां दोष श्रीजैनकुमार सभा के मन्त्री बाबू घीसूलाल जी अजमेरा के नावालिगपनेका है। मित्रवर ! वाब साहब नावालिग नहीं वरन काननन भी बालिग हैं। अजमेरा जी गवर्नाण्ट कालेज अजमेर में शिक्षा पा रहे हैं और शिक्षा प्राप्त करनेकी कुमार ही अवस्था समझी जाती है अतः वह अपने ही समान अन्य शिक्षा प्राप्त करने वाले प्रादि जैन कुमारोंको सभाके मन्त्री हैं। समाज इस अवस्थामें उनको छोकरा नहीं समझ सकती। फिर भी पूर्व प्र. काशितानुसार ही “श्रार्यसमाज को विश्वास रखना चाहिये कि लौंडापन या लड़कान उनके ताल्लुक नहीं हुआ करता वरन अक्लके ताल्लुक हुआ करता है। किसका लौंडापन है यह कृत्योंसे पवलिकको स्वयं ही प्रगट है॥ सातवां दोष घीसूलाल जी के अभिमानपनका है सो मालूम नहीं कि उन्होंने कौनसी अभिमान की बात लिखी या कही । वह तो बराबर संसार में उच्च शिक्षा प्राप्तकर अनुभव और सभ्यता सीख रहे हैं। Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माठवां दोष हम लोगों के परिणाम और गुण में भेद न समझने का है। परन्तु विश्वास रहे कि हम लोग भली भांति जानते हैं कि गुस के अवस्था से अवस्थान्तर होने को हो परिणमन ( परिणाम होना ) कहते हैं। परि. णमन दो प्रकार का होता है एक स्वभाव रूप और दूसरा विभाव रूप । शुद्ध द्रव्यका परिणमन उभी रूपमें एकसा हुमा करता है और प्रशुद्ध द्रव्य का निमित्तानुसार । आर्य समाज का ईश्वर शुद्ध द्रव्य है अतः उसकी स्वाभाविक क्रि. या में सृष्टि कर्तृत्व और प्रलय कर्तृत्व रूप विरोधी परिणामन कदापि नहीं हो सकता । यदि यह कहो कि जिस प्रकार एक मिल में टीम की शक्ति मि. न भिन्न कार्य करती है उसी प्रकार ईश्वर रूपी ष्टीम संसार रूप मिल में प्र. कृति की भौतिक मशीनों से अनेक प्रकार के कार्य करती है । सो यह दृष्टा. न्त सर्वथा विषम है क्योंकि जिस प्रकार एक लोहे को सब ओरों से समान शक्ति रखने वाले चम्बक पत्थर खोचे तो वह लोहा टससे मस नहीं हो सक्ता । उसी प्रकार जब भार्य समाज का शुद्ध प्रखण्ड, एक रस, सर्व व्यापी और स्वाभाविक क्रिया गुणवाला परमात्मा अपने प्रत्येक प्रदेशसे एमसीह. रकत देता (क्रिया उत्पन्न करता ) है तो कोई भी परमाणु टस से मस नहीं हो सत्ता और इस प्रकार सक गुण गोवर हो जाने से संयोग और वियोग परमायनों में न हो सकने से न तो कोई चीज़ वन ही सकती है और न वि. गड़ ही। यदि दुर्जन तोष न्याय से थोड़ी देर के अर्थ- परमात्मा को किया से ही परमाणुओं में संयोग वियोग होना-मानकर पदार्थों का वनमा क्मिडना माना जाय तो चार अरब बत्तीस करोड़ वर्षों के प्रलय काल में ( जो कि सष्टि काल के समान ही संख्या में है) प्रकृति के परमाण कैसे सूक्षम (कारण) अवस्थामें वेकार पड़े रहैं । इत्यादि । अनेक दूषणों के आने से शुद्ध ब्रह्मकी स्वाभाविक क्रियामें दो विरोधी परिणमन (गुण की पर्याय) कैसे रह सकती है। ___ इस संसारको ईश्वर कृत सिद्ध करने के अर्थ किसी समय में इसका प्र. भाव ( कारण रूपमें होना ) सिद्ध करना होगा क्योंकि जब तका संसार कार्य सिद्ध न हो जाय तव तक इसका कर्ता कोई ईश्वर कदापि माना नहीं जा स. क्ता और कार्य का लक्षण "अभूत भावित्त्वं कार्यत्वम् , है। नवां दोष हम लोगों के पास अच्छे लेखक न होनेके कारण लिखित शा. स्त्रार्थ से इन्कार करने का अपराध स्वयं स्वीकार करने का है पर मालूम नहीं Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४१ ) कि इस विषय में प्रकाशित यह निम्न शब्दों में से किन शब्दों से ऐसा अभिप्राय निकाला गया । "श्री जैन तत्त्व प्रकाशिनी समाने दोनों पक्षों की ओर से कहे हुए मौखिक शब्दों की रिपोर्ट पर जोकि दोनों ओरके रिपोर्टरोंने लिखी थी हस्ताक्षर करने से इम लिये इन्कार कर दिया था कि वहाँ के रिपोर्टर लोग ऐसे संक्षिप्त लिपि प्रणाली में चतुर नहीं ये जोकि कहे हुए शब्दों को अक्षर प्रत्यक्षर लिख सकें और एक भी अक्षर या शब्द चूक जाने से भाव अन्यथा हो जाता है। यदि समाज के प्रस्तावानुसार ही दोनों घोर के तीन तीन रिपोटरों में से प्रत्येक के लेख जांच करके हस्ताक्षर किये जाते तो शा वार्थका सारा समय इसी में नष्ट होजातः” । दशवां दोष हम लोगों के रटे हुये "ईश्वर इस सृष्टिका कर्ता नहीं है,, विषय में चालाकी करने का है। मालूम नहीं कि इस विषय में हमने कौन सी चालाकी की और प्राय्र्यसमाज यों टालम टूज़ करता हुआ कैसे सब विषयों में हम से शास्त्रार्थ करने को उद्यत है । ग्यारहवां दोष हम लोगों का बाबू मिटुनलाल जी बकील और एक दो दूसरे प्रतिष्ठित लोगों के विषय में मनघडन्त बातें लिखने और मिथ्या ख़बरें उठाने का है क्या समाज इस बात से इन्कार कर सकता है कि मौखिक शाखार्थके सम य स्वामी जी से बाबू मिट्टन लाल जी ने यह नहीं कहा था कि "महाराज पंडित जी के प्रश्न का उत्तर दीजिये, और उन्होंने वादगजकेसरी जी के हिस्से के पांच मिनिट धन्यवाद यादि देने के अर्थ मांग लिये थे ? नहीं नह नते कि हम लोगों ने किन प्रतिष्ठित पुरुषों के विषय में मिया ख़बरें हाय जिसपर उन्होंने हम लोगों को डाटा । मालूम नहीं कि हम लोग पण्डित दुर्गादत्त जो के विषय में क्या सेंचतान कर रहे हैं। क्या यह उनके विषय में पूर्व ही प्रकाशित निम्न बात मिश्र है "पं० दुर्गादत्त जी को पूर्व जैन उदेशक बतलाना सरासर लोगों की आंखों में धूल फेंकना है क्योंकि वह पहले आर्यसमाजी थे और उन्होंने समाज में ३ वर्ष तक उपदेशक का काम किया था । जब उनको समाज में शान्ति प्रासन हुई तब उन्होंने सिर्फ ३ महीने से जैन धर्म की शरण ग्रहण की थी जैसा कि जैन मित्रके ३ अप्रैल सन् १९९२ ई० के १२ वें में पृष्ठ १२ पर प्रकाशि त "मैंने जैनधर्म की शरण क्यों लो,, शीर्षक उनके लेख से प्रगट है। वह जैन धर्म के सिद्धान्तों को अच्छी तरह नहीं जानते थे पर उनका विचार जैन वि Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 8 ) द्वानोंसे जैन सिद्धान्तों के अध्ययन करने का था कि इतने में ही ता० ३० जन के शास्त्रार्थमें भारी पछाड़ खानेसे अपने टूटे हुए मानकी मरम्मत करने के अर्थ समागने उनको जिस तिस प्रकार पुनः आर्य समाजी बनाने का प्रयास किया है ।,, शम्भुदत्तजी के पूर्व ही जैन मित्र के सहायक सम्पादक होने का समाज को स्वप्न हुआ होगा और उनकी ज्ञान गोली न मालूम किसपर चल रही है । नहीं जानते कि सहारनपुर के कौन से तीरन्दाज हैं और उनकी तोरन्दाजी किसपर हो रही है । यदि समाज में इस सिंह के बच्चे को बन्द करने की शक्ति है तो सामने मैदान में श्रावे और वन्द करे। हम तो यही क हैंगे कि: रे गयन्द मद अन्ध ! छिनहुं समुचित तोहि नाहीं । वसित्रो अव या विपिन घोर दुर्गम भुहिं माहीं ॥ गुरु शिलानि गज जानि नखनसों विद्रावित करि । • गिरि कन्दर महं लखौ गर्जता रोषित केहरि ॥ समाज के कागज़ी अज्ञान गोलोंसे असली सिंह व लोक शिखर और शिला उड़ा देनेका व्यर्थ प्रयत्न फूलों से पहाड़ उड़ा देने के समान अत्यन्त हास्यास्पद है। वारह दोष हम लोगोंके टट्टी के बाड़में हो जाने और शास्त्रार्थके अर्थ छोकरोंको आगे कर देनेका है । परन्तु यह कहिये कि श्री जैन कुमार सभा ने कब यह कहा और लिखा कि शास्त्रार्थ हम करेंगे । उसके सब विज्ञापनों से शास्त्रार्थ करने वाले का नाम श्री जैन तत्त्व प्रकाशिनी सभा ही प्रगट होता है फिर नहीं जानते कि प्राय्र्यममाज क्यों हम लोगोंके टहीके झाड़में हो जाने और छोकरोंको शाखार्थके अर्थ आगे कर देनेका दोषारोपण करता है । यदि यह कहो कि इस विषय के विज्ञापन श्री जैमकुमार सभा के नाम से प्रकाशित होते थे इनसे ऐसा अनुमान वांधा गया तो क्या किसी पुरुषके ऐसा कहने से कि अमुक पुरुष आपसे शास्त्रार्थ करने को उद्यत हैं श्राय्र्यसमाज यह समझेगा कि कहने वाला पुरुष ही शास्त्रार्थको उद्यत है यदि ऐसी ही समझ है तब तो हो चुका । सज्जनो ! आपने देखा कि किस प्रकार प्रार्थसमाजने मिच्या वातें प्र काशित कर सर्व साधारण को धोखेमें डालना चाहा है पर इसमें आश्चर्य आप बिल्कुल न मानें क्योंकि जब आये नाजके प्रवर्तक स्वामी दयानन्दजी Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ." ..... . (४८ ) सरस्वतीका यह मन्तव्य है कि दूसरेका खण्डन करनेके अर्थ मिथ्या बोलना उचित है तब उनके अनुयायी हमारे समाजी भाइयों ने वैसा किया तो इसमें अनोखापन ही क्या है! रविवार ७ जुलाई १८९२ ईखी। - आर्य समाज के “शास्त्रार्थ को सर्वदा तपार" विज्ञापन के अनुमार लिखितं शास्त्रार्थके नियम तय करने को श्रीमान् स्थाद्वाद्वारिधि वादिगज केसरी पंडित गोपालदास जी बरैय्पा कुंधर दिग्विजय सिंह जी, न्यायाचार्य पंडित माणिकचन्दजी, बाबू घोसूलाल जी अजमेरा मन्त्री श्री जैनकुमार सभा, पडित फल चन्द जी पांड्या मन्त्री जैन सभा अजमेर और चन्द्र सेनजी जैन वैद्य आदि सज्जन आर्यसमाज भवन में निश्चित समयसे आध घण्टे पूर्व ( डेढ़ बजे दिन को) पहुंच गये । अढ़ाई वजे के लग भग नियमादि तप करने की वात चीत प्रारम्भ हुई । आर्यममाजकी ओरसे वैरिष्टर बाबू गौरीशङ्कर जी और वकील वाव मिटुनलाल जी और जैन समाजको मोरसे कुंवर दिग्विजय सिंह जी वोलनेको प्रतिनिधि नियत हुई। • शास्त्रार्थका प्रथम नियम यह हुआ कि “यह शास्त्रार्थ आर्यसमाज अजमेर और श्री जैन तत्त्व प्रकाशिनी सभा इटाबह के मध्य में होगा। . दूमरा नियम स्थान और प्रबन्धके विषय में था। इस कारण कि आर्य समाजने अपने पर्व प्रकाशित विज्ञापनोंमें श्री जैन कुमार सभाके नियत स्थान और प्रबन्धसे अश्रद्धा प्रगट की थी इस कारण हम लोगोंने अबकी वार शास्त्रार्थका स्थान और प्रबन्ध आर्यसमाजका रखना ही प्रकाशित कर दिया था। अतः हम लोगों की ओरसे यह प्रस्ताव हुआ कि शास्त्रार्थ का स्थान आर्यसमाज भवन और प्रबन्ध आर्यममाजका ही रहैं। इसपर आर्य समाजकी ओरसे यह कहा गया कि प्रार्य भवन छोटा और उसमें स्कूल आदि होने से थोष्ठी पब्लिक प्राप्तकेगी अतः कोई विस्कृत स्थान नियत हो और. प्रब आधा आधा दोनों पक्षोंका रहै। जैन समाजकी ओर से प्रथममें स्वीकृति और दूसरे विषय में अस्वीकृति इस कारण प्रकाशित. कोगई कि प्र. वन्ध दो विरोधी पक्षों के बीच होनेसे यह वहुत सम्भव है कि कोई पक्ष दूसरेको दूषित करने या शास्त्रार्थको टालने के अर्थ उल्टा प्रबन्ध करके गह नाही हालै अतः प्रबन्ध अकेले मार्य समाजके ही जिम्मे रहै क्योंकि उसको Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५०) जैनियोंके प्रबन्धसे सन्तोष नहीं । कुछ वाद विवाद होनेके पश्चात् दूसरा मियम इस प्रकार निश्चित हुआ कि "शास्त्रार्थ पछिलक तौर पर ममैयोंके नौहरेमें होगा और उसका यथोचित प्रवन्ध आर्यसमाज करेगा”। इस नियम | के तय हो जाने पर वैरिष्टर साहबने यह कहा कि जब प्रबन्ध हम लोगोंके हाथ है तब हम लोग टिकट निकालेंगे और जिसको चाहेंगे उसको वह दे. कर भीतर आने देवेंगे। इसपर जैन समाजकी ओर से विरोध किया गया और कहा गया कि जब शास्त्रार्थ पब्लिक होना निश्चित हो चुका है तब ऐसा नहीं हो सकता कि आप उसमें किसी को पानेसे रोके और अपने मर्जी के भादमी बुलावें यदि ऐसा ही करना है तो यह शास्त्रार्थ प्राइवेट होगा म कि पब्लिक । वैरिष्टर साहबने कहा कि यदि हम ऐसा न करेंगे तो इस ट्ठी हुई पब्लिकके उपद्रवका जिम्मेवार कौन होगा। कुंवर साहबने कहा कि जब जैन कुमार सभाके लौडोंने इससे पूर्वके दो शास्त्रार्थों में पब्लिकका प्रब. न्ध बड़ी उत्तमता और शान्तिसे कर लिया तब आपसे योग्य वकील वैरिष्टर और सज्जन आर्य पुरुष वैप्ता क्यों न कर सकेंगे। वैरिष्टर साहबने कहा कि लौहोंने जो इन्तिजाम किया उसे हम तसलीम करते हैं और हम लौड़ोंसे भी गये वीते हैं लोड़ों के वरावर हमसे इन्तिजाम नहीं हो सकता जिनको मुनासिव समझेंगे उनको ही बुलावेंगे सबकी जिम्मेवारी नहीं ले सकते । रहा पुलिसका इन्तिजाम सो हमको प्रसन्द नहीं हम लोगोंको खुद अपने पैरों खड़े होकर अपना इन्तिजाम करना सीखना चाहिये। इसपर बहुत वाद विवाद होकर टिकट द्वारा लोगों को भीतर घुसने देने का प्रस्ताव रद्द किया गया । तीसरा नियम शास्त्रार्थ के विषय का था । आर्यसमाज ने "ईश्वर का पष्टिकर्तृत्व" और "मोक्ष' यह दो विषय उपस्थित किये। कंवर साहब ने कहा कि एक विषय के निर्णय हो जाने पर दूमरो लेना चाहिये नहीं तो घ. सड़बा होजाने से एक भी तय न हो सकेगा। कुछ देर तक विवाद होने के पश्चात् यह नियम इस प्रकार निश्चित हुआ कि "शास्त्रार्थ का विषय यह है कि ईश्वर सष्टिका कर्ता है या नहीं जिसमें कि आर्यसमाज का पक्ष यह है कि इस सष्टि का कर्ता ईश्वर है और जैनियों का पक्ष यह है कि ईचर सष्टि का कर्ता नहीं है। चौचा नियम शास्त्रार्थ के समय का था। आर्य समाज का कहना यह Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५१) था कि शास्त्रार्थ परसों से हो और जैन समाज का कहना यह था कि जब आर्यसमाज शास्त्रार्थ को सर्वदा तय्यार है तो एक दिन क्यों नष्ट किया जावे वैरिष्टरसाहब ने कहा कि हमलोग इतना शीघ्र प्रवन्ध नहीं कर सकते क्यों. कि हमको पानी फर्श रोशनी आदि का प्रबन्ध करना होगा। इस पर कहा गया कि यह प्रबन्ध ऐमा प्रबन्ध नहीं जिसमें कि एक दिन व्यर्थ नष्ट किया जावे । वैरिष्टर साहब ने कहा कि एक दिन में यह प्रबन्ध नहीं हो सकता इसपर बाबू प्यारेलाल जी आदि प्रतिष्ठत जैनों ने पानी फर्श रोशनी भादि का प्रवन्ध अपने जिम्मे लेने कहा पर आर्यममाज अपनी ही जिद पर कायम रहा और एक भी बात न सुनी। हम लोगों ने जिस प्रकार आर्य समाज की और सब बातें मान ली और मानते जाते थे उसी प्रकार समय के विषय में उसकी परसों की बात मान लेने पर हमलोगों को विश्वस्तनीय रीति से इस बात का पता लग गया था कि आर्य समाज एक दिन की बीच में मोहलत चाहकर मैजिष्टेट को फिसाद होने से शान्ति भंग का अन्देशा दिखा उसके हुक्म से शास्त्रार्थ बन्द कराना चाहता है। पर हमलोगों को यह बात कदापि इष्ट न थी-हम लोग चाहते थे कि शास्त्रार्थ हो ही जाय इस कारण हम लोग 'शास्त्रार्थ कल से ही प्रारम्भ हो इस बात पर डटे रहे और आर्यस. माज की हर एक बात को जो कि उनका मेम्बर या पैरोकार शास्त्रार्थ परसों से प्रारम्भ होने के विषय में कहता था युक्ति और प्रमाणों से खण्डन क. रते रहे। इस बाद विवाद के समय में अजमेर के आर्यसमाजियों ने अपनी असभ्यता की पराकाष्टा दिखला डाली। वह लोग चाहते थे कि हमलोग उनसे तंग होकर किसी प्रकार भार्यसमाज भवन से उठकर चले जायँ जिससे कि उनको हमारे शास्त्रार्थ से हट जाने की बात प्रकाशित करने का मौका मिले। उन्होंने इसके अर्थ ऊपरके छजजोंसे मिही सिर पर डालना, फर्श उठाना लोगोंसे भिड़ना और अपने प्रधान वैरिष्टर साहवके रोकने पर भी बोलते जाना प्रादि कार्य किये पर शोक कि हम लोगोंके शान्तिता पूर्वक उनके सह लेनेसे वे सब व्यर्थ गये। वैरिष्टर साहवका व्यवहार भी अन्त में प्राक्षेपणीय रहा और उन्होंने कई ऐसी बातें कहीं जो कि किसी सभ्य पुरुषको अ. पने घरपर बुलानेसे आये हुये सज्जनोंसे कदापि न कहना चाहिये थीं । जब इन उपायोंसे काम न चला तव यह कहा गया कि चलो अभी शास्त्रार्थ कर Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । (५२ ) लो इसपर हमारी ओरसे यह उत्तर मिला कि नियम तय कर लीजिये इम: अभी शास्त्रार्थ करनेको प्रस्तुत हैं पर विश्वास रहे कि हम लोग नियम वि. रुद्ध कोई कार्य कदापि नहीं कर सकते । पूर्व निश्चितानुसार बाहर स्वामी दर्शनानन्द जी का व्याख्यान प्रारम्भ हुआ और हम लोगों को बाहर चलकर । व्याख्यान सुनने को कहा गया पर हम लोगोंने साफ कह दिया कि हम लोग नियम तय करने आये हैं न कि व्याख्यान सुनने । हम लोगों को डराने के लिये पुलिस बुलाई गयी और उसने आते ही हम लोगोंसे पूछा कि श्राप लोग कब तक यहां ठहरेंगे । जबाब दिया गया कि जब तक शास्त्रार्थ के नियम न तय हो जाय या मार्यममाज हम लोगों को चले जानेको श्राज्ञा न दे। जब इन किन्हीं तुपायोंसे हम लोग हटते न दिखाई दिये तो वैरिष्टर साह. बने अन्त में प्राज्ञा दी कि "सभा वर्खास्त की जाती है अब आप लोग नि. कल जाइये। निदान प्रधान की प्राज्ञा शिरोधार्य कर हम लोग समाज मन्दिरसे अपने भार्यममाजी भाइयों से प्रेम पूर्वक “जय जिनेन्द्र" "जय जिनेन्द्र" कहते हुये उठ पाये और जयजयकार ध्वनिके मध्य अपने स्थानपर आ पहुंचे॥ चन्द्रवार ८ जलाई ११२ ईस्वी । श्राज आर्यसमाजकी ओरके निम्न दो ( उसकी कमजोरी और दोष छि. पाने वाले ) विज्ञापन प्राप्त हुये। ओ३म् । शास्त्रार्थसे कौन भगा। - जैसा कि हमारा अनुमान था पाखिर हमारे सरावगी भाइयोंने गुलगपाडे और वृथा हठसे शास्त्रार्थ को टाल ही दिया और इन ४ बातों में से एक भी बात मंजूर नहीं की। (१) यदि शास्त्रार्थके प्रबन्धका कायम रखने व हुल्लड़ रोकने के लिये टिकट द्वारा प्रबन्ध मंजर हो तो समाज ता०८ को ही शास्त्रार्थ का प्रबन्ध करनेके लिये तय्यार है। (२) यदि टिकट द्वारा नहीं चाहते और अंधाधुन्ध आदमियों की भीड़ करना मंजर हो तो अपनी जिम्मेवरीपर प्रबन्ध करें प्रार्यसमाजके लोग जहां प्राप कहेंगे शास्त्रार्थ सो चले आयेंगे । .. (३) यदि समाजको जिम्मेवरी पर ही जोर है जो ए तारीख़ को ममइ. यों के नोहरेमें कानगी प्रबन्ध द्वारा समाज शास्त्रार्थ कर सकता है ॥ - Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... (१) यदि "सर्वदा" शब्दपर ही प्राग्रह है तो समाज अभी करनेको तथ्यार है, परन्तु हमारे सरावगी भाइयोंने एक न मागी और जय जिनेन्द्र शादि शब्दोंसे शोर गुल मचाते हुए समाज भवनसे चले गये ॥ इसका व्यौरेवार हाल कल आपकी सेवामें पहुंच जायगा, अफ़सोस है | कि छः घण्टे की मेहनत पर अपनी हठधर्मीसे इन्होंने पानी फेर दिया। . जयंदेव शर्मा, मंत्री आर्यसमाज, अजमेर । ता० ७-७-१८१२ समय १० बजे रात - ओ३म् ॥ नकली सिंहका असली रूप प्रकट होगया । सर्व साधारणको विदित ही है कि कई दिनों से सरावगी भाइयोंने "ईश्वर सृष्टि का बनाने वाला नहीं है" इसपर कोलाहल मचा रक्खा था कि जिसपर स्वामी दर्शनानन्द जी व पं० यज्ञदत्तजी शास्त्री दो बार उनकी ही सभामें जाकर उनके दी नियमों की पाबन्दी करते हुए उनकी सब दलीलों को काटकर पब्लिकमें ईश्वरको सष्टिकर्ता सिद्ध कर पाये, जिसके प्रभावसे दो जैनियोंने जैनधर्म त्याग दिया, इससे चिढ़ कर हमारे सरावगी भाइयोंने कई कठोर विज्ञापन निकाले जिन मबका यथोचित उत्तर समय २ पर दिया गया और जब इन लोगोंने शास्त्रार्थ से इनकार कर दिया तो स्वामी दर्शनानन्द जी पंजाबको चले गये इनके जाते ही मैदान खाली समझ इन्होंने शास्त्रार्थ का चैलेञ्ज फिर दिया, जिसके उत्तरमें इनको नियमानुपार लिखित शास्त्रार्थ किमी मोअजिजज़ जिम्मेवर अजमेर निवासी द्वारा करनेको लिखा गया और अन्त में 9 तारीखकी दोपहरको आकर नियम तय कर लेनेको कहा गया, परन्तु इनको शास्त्रार्थ करना तो मंजूर ही न था केवल वितण्डा और हुल्लड़ मचाना था इस लिये सैकड़ों दुकानदारों को साथ लेकर समाज भवन में चले पाये जैसे तैसे दो नियम तो थोडीसी हुज्जतके बाद तय होगये, परन्तु इतनेमे ही स्वामी दर्शनानन्दजी महाराज पञ्जाबसे आगये बस अब क्या था देखते दीप बसे रह गये और सोचने लगे कि अब शास्त्रार्थ विना किये पीछा नहीं छूटेगा, अतएव प्रबन्धके नियमपर और सारा बोझा पार्यसमाज पर डालने लगे समाजने उसको इस शर्त पर मंजूर किया कि वह उचित प्रब Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - (५४) म्ध करके तारीख को शास्त्रार्थ प्रारम्भ करदे परन्तु इन्होंने शास्त्रार्थ टालनेके लिये यही जिद्द पकडली कि शास्त्रार्थ ८ तारीख को ही हो, ६ तारख हम मंजूर नहीं करेंगे, समाजने साढ़े आठ बजे रात तक बैठे रहकर इनको बहुत कुछ समझाया कि यदि ही तारीखको शास्त्रार्थ करना चाहते हो तो जो स्थान हमारे पास मौजूद है उसमें हुम्बड़ न होने देनेके कारण टिकट द्वारा प्रबन्ध हम कर सकते हैं, इन्होंने कहा कि हमको ऐसा प्रबन्ध कदापि मं. जर नहीं है जितने आदमी भायें आने दो, समाजने इसमें लड़ाई दंगेका भय समझ कर उन्हींसे कहा कि यदि ऐमा मंजूर नहीं है और आपको जल्दी है तो आप प्रबन्ध कीजिये और हमें शास्त्रार्थ के लिये जहां बुलाओगे बहां श्रा जावेंगे। परन्तु इसको भी उन्होंने मंजर नहीं किया समाजने बीचों बार बड़ी नम्रतासे तारीख को शास्त्रार्थ करने के लिये कहा परन्तु उन्होने एक भी नहीं मानी सो नहीं मानी और बहुत शोर गुल मचाते रहे जिमसे सब लोगों को निश्चय होगया कि इनकी मन्शा हुल्लड़ मचा शास्त्रार्थको टालने की है ( जैसा कि उस समय उपस्थित भाइयोंने देखा भी होगा ) उसी समय "राप | सेठ चादमजी साहब जैनी भानरेरी मैजिस्ट्रेट" भी पधारे और उन्होंने बहुत गुण गपाड़ा देखकर यह सलाह दी कि शास्त्रार्थ "शहरसे दूर हो और और टिकट द्वारा ही, नहीं तो हल्ले गुल्लेमें शास्त्रार्थ कभी भी नहीं होसकेगा और आपस में तनागा होने का अन्देशा है, इस पर बाबू मिट्ठमलालजी वकीलने खड़े होकर कहा कि हमें जो कुछ प्रबन्ध सेठ साहब करदें मंजूर है, परन्तु इनारे सरावगी भाई चिल्लाने लगे कि हम सेठ साहबको नहीं जानते जो कुछ हम कहते हैं वही होना चाहिये । इसपर सेठ साहब उठकर चले गये, फिर भी इसी बात ( नियमों) पर वादानुवाद होता रहा और सरावगी भाई बहुत ही सभ्यताका परिचय देते रहे, जब शोर गुल बहुत ही बढ़गया और समाजके विज्ञापनमें लिखे "सर्वदा” शब्दपर बहुत जोर देने लगे तो समाजने बिछौने वगैरहका चौकमें प्रबन्ध कर उसी वक्त शास्त्रार्थ करनेको कहा, परन्तु इसपर भी राजी न हुए ( होते कहांसे उन्हें तो सिर्फ हुल्लड़ मचा कर अपना पिण्ड छुडाना था.) उनको बहुत समझाया गया परन्तु उन्होंने एक न मानी। । जब चिल्लाने लगे कि जिसको सुनकर पुलिस भागई और पछने लगी Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५५) कि यह जलसा कबतक रहेगा, हुल्लड़ मिटना चाहिये । तब प्रधान जी ने सरावगी भाइयों से फिर कहा कि अलग कमरे में चले चलिये वा इन नीचे लिखी बातों मेंसे एकबात मंजूर करलीजिये ॥ (१) यदि शास्त्रार्थ के प्रबन्ध को कायम रखने व हुल्लड़ रोकनेके लिये टिकट द्वारा प्रबन्ध मंजूर हो तो समाज ता०८ को ही शास्त्रार्थ का प्रबन्ध करनेके जिये तय्यार हैं ॥ (२) यदि टिकट द्वारा नहीं चाहते और अन्धाधुन्ध आदमियों की भीड़ करना मंजूर हो तो अपनी जिम्मेवरी पर प्रबन्ध करें प्रार्यसमाजके लोग जहां आप कहेंगे शास्त्रार्थको चले आयेंगे ॥ (३) यदि समाजको जिम्मेवरीपर ही जोर है तो तारीखको ममइयोंके नोहरेमें कानूनी प्रबन्ध द्वारा समाज शास्त्रार्थ कर सकता है ॥ (४) यदि "सर्वदा” .ब्दपर ही आग्रह है तो समाज अभी करनेको तय्यार है। परन्तु हमारे सरावगी भाइयोंने एक न मानी और जय जिनेन्द्र जय जिनेन्द्र आदि शब्दोंसे शोर गुल मचाते हुए समाज भवनसे चले गये ! अब सर्व साधारणको उपरोक्त बातोंसे भली प्रकार प्रकट होगया होगा कि हमारे सरावगी भाइयोंमें सभ्यता कहांतक है॥ मार्यसमाजके सैकड़ों आदमी इनकी सभामें शास्त्रार्थ में शामिल होते रहे, परन्तु कभी ऐसा दुराग्रह नहीं किया, जो नियम उन्होंने रक्खा उसी में हां करदी। क्या हमारे सरावगी भाई इसमें अपने मतको बड़ाई समझते हैं। समझदारोंके नजदीक तो अपनी बड़ी हंसी कराई है। हम तो फिर भी करते हैं कि सभ्यता पूर्वक जहां चाहो वहां शास्त्रार्थ करलो यों असभ्य समु. दायको इकट्ठा कर हल्ला मचाना और अपनी झूठी शेखी बघारना दूसरी. बात है। जयदेव शर्मा मन्त्री मायसमाज, अजमेर _ ता०८-७-१२ । - . सज्जनो! मापने देखा कि आर्यसमाज ने किस प्रकार सर्वसाधारणको धोरमें डालने के अर्थ उपर्युक्त विज्ञापनों में मिथ्या बातें लिखी हैं। - Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५६ ) - तारीख ३० जन और ६ जौलाई को जो दो मौखिक शास्त्रार्थ यथाक्रम स्वामी दर्शनानन्द जी सरस्वती और पंडित यज्ञदत्त जी शास्त्री से श्रीजेनतत्वप्रकाशिनी सभाके साथ ईश्वर के सृष्टिकर्तृत्त्वके विषयमें बड़ी सफलता और जैनधर्म को प्रभावना से हुये थे कदाचिब उसीसे समाज ने यह पूर्व ही अनुमाग बांध रक्खा होगा कि जैन लोग शास्त्रार्थ को टाल देंगे। शेम ! ___स्वामी दर्शनानन्द जी और पंडित यज्ञदत्त जी शास्त्री ने हम लोगों की दलीलोंका खण्डन करते हुये ईश्वर को सृष्टिकर्ता कैसा सिद्ध किया यह उस समय में उपस्थित सज्जन या उनके शास्त्रार्थ को पढ़ने और सुनने वाले सज्जनों को भली भांति प्रकट है। यदि सिद्ध ही कर पाते तो यों लिखित शास्त्रार्थ में समाज की ओरसे अडङ्गे लगाये जाकर टालमटोल क्यों की जाती। पंडित दुर्गादत्त जी ने “जैनधर्म परित्याग" विज्ञापन क्यों निकाला इ. सको समाज का दिल हो जानता है और स्वयं पं० दुर्गादत्त जी के कहने से सर्व साधारण को भी अब अविदित नहीं है। विश्वास रहै कि सत्य बात अन्त में प्रकाशित हुये बिना नहीं रहती। हम लोगों के विज्ञापनों का समाज ने केमा उत्तर दिया है वह दोनों ओरके विज्ञापनों को आमने सामने रखकर विचार पूर्वक पढ़ने वालोंसे छि पा हुआ नहीं है और न रहेगा। - जब समाज ने सर्व साधारणको यह वात प्रकाशित कर धोखा देना चा. हा कि जैन लोग लिखित शास्त्रार्थ से इन्कार कर गये तब हमको सर्वसाधा. रण के हितार्थ पुनः चेलेञ्ज देना पड़। न कि इस कारण कि आपके स्वामी दर्शनानन्द जी अजमेर रोड़ गये थे। स्वामी जी की विद्या और बुद्धिका तो हम लोग गत कार्तिक शुक्ला द्वितीया सम्वत् १९६८ विक्रमो के दिवश से जब कि इटावह आर्य समाजके वार्षिकोत्सवपर शङ्का समाधान के दिवस उनका कंवर दिग्विजयसिंहगीसे ईश्वर के सष्टिकर्तृत्वके विषय में उत्तर प्रत्यत्तर हुमा था। भलीभांति जानते थे और गत ३० जून को तो विल्कुल ही जान गये थे और इसीसे तो स्वामीजीको अपनी प्रतिष्ठाका बड़ा ख्याल था ॥ यदि हम लोगोंको शास्त्रार्थ करना मंजूर न होता तो श्रीजैनकुमारसभा के वार्षिकोत्सवके पश्चात् इतने दिन खोकर समाजके पीछे यों उस की सभी वातें मानते हुए क्यों पड़े रहते ॥ Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आर्यसमाजके भवन में हम लोग अपने साथ सर्व साधारण (जिनको प्रार्य समाज: मामूली दूझानदार समझता है) की भीड़ नहीं ले गये थे वरन हम लोगों के सौभाग्यसे वह लोग हमारे विना बुलाये स्वयं पहुंच गये थे। जब कि समाज इसने गोगोंके सामने की मातों को यों अन्यथा प्रकाशित करनेका साहस करता है तक न मालम दम लोगों के ही अकेले होने पर वह क्या कर गुजरता। चाहा तो समाजने बहुत था कि हम लोग अकेले में ही नियम तय करें पर यह बहुत अच्छी वात हुई कि हम लोग उसकी वैरिष्टरी घालों में | नहीं पाये जब कि समाजने हम लोगों के पहुंचने से बहुत पूर्व ही एक लम्बे चौड़े | साइनबोर्ड में टगना ( लम्बा बांसः) लगाकर मोटे मोटे हरूफों में यह लिख कर हम लोगोंके सामने रख छोड़ा था कि "आज सन्ध्याको स्वामी दर्शना. नन्द जीका व्यारूपान होगा" तो वह यह कैसे कह सकता है कि दो नियमों के तय हो जाने पर हम लोगोंको दर्शनानन्द स्वामी का पंजाबसे आना (उन के छतसे नीचे उतर कर दर्शन देनेसे ) प्रगट हुआ जिससे कि हम लोग हक्क वको रहगये और शास्त्रार्थ से डरगये। यदि दुर्जनतोषन्यायसे समाजका कहना ही थोड़ी देरको मानलिया जाय तो क्या हम लोग समाजको पुगः चेलेंगदेनेसे पूर्व यह नहीं जान सकते थे कि समाज अपने एकमात्र प्राधारभन स्वामी दर्शनानन्द जी सरस्वती महाराज को एकवार हम लोगों से पुनः मासा करनेको उपस्थित करेगा और स्वामीजीको मिम मान रक्षार्थ प्रत्यः समें हम शाखार्थको उद्यत हैं. ऐसा अगत्या दिखलाना ही पड़ेगा। शास्त्रार्थक प्रबन्धका सारा बोझा प्रवक्री चार आर्यममान पर ही रखने को हम पूर्व ही प्रकाशित करचके ये तब यह कैसे सम्भव है कि स्वामीजीको देखकर शास्त्रार्थ दालनेके अर्थ हमने ऐसा किया। मार्यसमाजका लेख बदती. व्याघात दोष से दूषित है क्योंकि उसका लिखना है कि दो मियमोंके तम हो मान पर स्वामीजी भाये और उनको देखकर हम लोग, प्रअन्धका बोका आ. यसमा के सिर पटकने लगे। परन्तु दूभरे मियम के तय होने पर आर्यस माज के जियो प्रायका बोझ जा पड़ा था क्योंकि दूसरा लियात पढ़ था कि "शास्त्रार्थ क्यालिक तौर पर, ममैयोंके नौहरे में होगा और उसका यथोचित प्रबन्ध मार्यसमाजू, करेगा आर्यसमाजको कुछ तो पूर्वापर विचार कर लि. सा-महिये । क्या उसने यह समझ लिया है कि पविज्ञक इतनी मूर्ख है | Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कि जोकल इम लिखेंगे उस पर वह आंख मूंदे विश्वास कर लेगी।' .", हम लोगों के तारीख ८ से ही शास्त्रार्थ प्रारम्भ कर देनेकी जिद्द करने का कारण यह था विश्वस्तनीय रीतिसे इस बात का पता हम लोगों को लग गया था कि आर्य समाज एक दिन की बीच में मो. हलत चाहकर मैजिष्टेट को आपस में फिसाद हो जाने से शान्ति भङ्गका अ. न्देशा दिला उसके हुक्म से शास्त्रार्थ वन्द कराना चाहता है। पर हम लोगों को यह बात कदापि इष्ट न थी हम लोग चाहते थे कि शास्त्रार्थ हो ही जाये इस कारण प्रार्यसमाजी समस्त युक्तियों का जो कि उसने तारीख से शास्त्रार्थ प्रारम्भ होने के विषय में दी थीं खण्डन करते हुये हम लोग अपनी बात पर डटे रहे। ___ मार्य समाजका टिकट द्वारा लोगों को भीतर आने देने का प्रवन्ध शास्त्रार्थ के पटिनम होने से अस्वीकार किया गया ओर यह वात प्रार्य समा. जको भी याद में स्वीकृत हुयी। अपने जिम्मे प्रवन्ध हम लोगों ने प्रार्य समाज के पूर्व ही अविश्वास और असन्तोष प्रगट करने से नहीं लिया। शोर गुल मचाने की बात बिल्कुल मिथ्या है। निस्सन्देह मार्दी समा. जकी ओर से बात चीत करने को नियत प्रतिनिधि वैशिष्टर साहब के सि. वाय जब और कोई आर्य समाजी सभामें खड़े होकर स्पीच झाकर लोगों को धोखे में डालना चाहता था तप हमारी ओर से चन्द्रसेन जैन वैद्य और फूल चन्द्रमी पांडया सभामें खड़े होकर शान्ति से उन को मिथ्या बातों का प्रतिवाद कर देते थे। सर्व साधारण से यह छिपा नहीं कि अपने प्रेमीहरुटके बार बार रोकने पर भी हमारे समाजी भाई इस भडगह मचाने के काम से वाज नहीं रहते थे। राय सेठ चान्दमल जी साहव जैनी रईस व भामरेरी मैजिष्ट ट को मार्य समाजियों ने निज प्रयोजन सिद्धयर्थ Cat's Paw (विल्लीका पन्जा) बना. ना चाहा था पर जन सेठ जी साहव ने सब मामला समझ लिया तो अपने 'बार बार मिट्ठनलाल जी और बैरिष्टर साहब के दधाने से दिक्कडीकर उठकर चले गये। .. चौक में विलौना वगैरह स्वामी दर्शनानन्द जी के पूर्व निश्चित व्याख्या. Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५९) न होने के अर्थ समाजने विधाये थे न कि हम लोगों से शास्त्रार्थ करने को। निस्सन्देह आर्य समाज मे मह कहा था कि यदि आप अभी शास्त्रार्थ कर. ना चाहते हैं तो बाहर चलिये पर हम लोगों ने यह कहा कि हम लोग अभी प्रस्तुत हैं पर पहिले नियम तय कर लीनिये क्योंकि हम अनिमम काम नहीं कर सक्त। पुलिम अपने पाप नहीं पायी वरन आर्यसमाज के बुलाने से पायी और उसने हम लोगों से पूछा कि आप लोग कब तक यहां ठहरेंगे। जबाब दिया गया कि जब तक शास्त्रार्थ के मियम न तय हो जांय या प्रार्य समान हम लोगों को चले जानेकी आज्ञा न दे। हम लोग शान्त वैठे थे इसलिये पुलिस कुछ न कर सकी। अलग कमरे में अकेले मिपम तय करनेके अर्थ चलनेको कहगा हम लोगों को अपने स्थानसे उठानेके अर्थ था जिसको समझ कर हम लोग वहीं डटे रहे। आर्य समाज की कही हुई चारों वातें प्रथम टिकट द्वारा प्रबन्ध करना शास्त्रार्थ के पब्लिक होने द्वितीय अपने जिम्मे प्रबन्धं लेना आर्य समाजके पर्व ही हम लोगों के प्रबन्धसे अविश्वास और असन्तोष प्रगट करने तृतीय एक दिन व्यर्थ नष्ट होने और शास्त्रार्थ पुनः न हो सकनेके भय और चतुर्थ बिना नियम तय किये हुये अनियम कार्य करने के कारण अनुचित होनेसे स्वीकृत न की गई। तीसरी वातमें आर्य समाजने अपने प्रबन्ध द्वारा के स्थानमें 'कानूनी प्रबन्ध द्वारा' ये शब्द लिख दिये हैं अंर्थात् 'अपने' शब्द के स्थान में काननी शब्द कर दिया है। हम लोगों से समाज मन्दिर में काननी प्रबन्धका कोई जिकर नहीं हुश्रा और समझमें भी नहीं पाता कि का. नूनी प्रबन्धका क्या अर्थ समाज करता है। यदि इससे पुलिसका प्रबन्ध इष्ट है तब तो हमारा यह पहिले ही कहना था कि पुलिसका प्रबन्ध ( जैसी कि हम लोगोंने किया था) रहै जिसपर मौर्य समाजको अपने पैरों खड़े होने ( अपना प्रबन्ध स्वयं करने ) के कारण इन्कार थी । यदि इससे मैं । निदेशी मात्रा प्राप्त करना इष्ट है तो उसकी कोई आवश्यमता न थी | क्योंकि प्रथम ही दो मौखि शास्त्रार्थ ( जिनमें कि लिखित शास्त्रार्थसे विशेष शान्तिः भङ्गकी माशङ्का रहती है.) विना मैजिष्ट्रेटको प्राज्ञा लिये ही बड़ी सफलता और शान्तिसे हो चुके थे । यदि मैजिष्ट्रेट की आज्ञा प्राप्त करनेकी आवश्यकता ही थी तो पहिले प्रार्य समाजने क्यों न लिखा या कहा। - Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - हम लोग समान मन्दिरसे अपने प्रांप उठकर नहीं चले पाये धरना र्यसमाजी प्रधान वैरिष्टर साहब निकल-मातेके जनरली हुक्म। .. . पहिला प्रार्यसमाजकी सभ्यता और उसकी शाखाके अर्थ तैय्यारीको इसी बातसे असी मांति जानती है कि वह इसके समुशयको अमरप और इला गुल्ला मचाने वाला करार देकर उनकी तौहीन कर रहा है और किसी को शास्त्रार्थ श्राने न देकर कुलियामें गुड फोड़ना चाहता है। जो हो । आज प्रातःकाल श्री जैनतत्त्व प्रकाशिनी सभाके कार्यकर्तागण । उनके उपर्युक्त दोनों विज्ञापनों में प्रकाशित तीसरे नियमपर किसी प्रकार शास्त्रार्थ चलानेको सहमत होकर पुनः शार्यसमाज भवन में शास्त्रार्थक शेष नियम तय करने को गये जिसपर समाजके मन्त्री जी ने सन्ध्याको हाजिर होने का हुक्म दिया पर सन्ध्याको हम लोगोंके पहुंचने पर इस विषय में कुछ बात चीत करने से बड़ी रुखाई के साथ इन्कार कर दिया। .. आर्यसमाजके उपर्यक्त दोनों विज्ञापनोंके उत्तरमें सर्व साधारणके चम निवार्थ निम्न विज्ञापन प्रकाशित हुमा। ॥ वन्दे जिनवरम् ॥ आर्यसमाजकी झूठी सफाई। | " - सर्व साधारण सज्जन महोदयों की सेवामें निवेदन है कि आर्यसमाजके ६ जुलाईके "शास्त्रार्थ को सर्वदा तय्यार" शीर्षक विज्ञापनके अनुसार मा. री श्री जैन तत्त्व प्रकाशिनी सभा कल १॥ बजे दिनके प्रार्यसमाज भवनमें लिखित शाखाके नियम तय करने के लिये गई थी और सर्व नियमोंका तय करना आर्यसमाजकी इच्छानुसार ही रखने पर भी माघ घंटे में तय हो. जाने वाले सब नियम मार्यसमाजको टालमटोलसे ६ घंटे में भी तय न हुए। केवल तीन ही नियम तब हो पाये जो कि निम्न लिखित हैं:-.. लिखित शास्त्रार्थके नियम । . . ९-यह शास्त्रार्थ भार्यसमाज मलमेर और श्री जैनतत्य प्रकाशिनी सभा ढाबहके मध्यमें होगा। .. ... . .... २-शाचार्य पकिनक तौर पर नपोंके नौहरे में होगा और उसका यथोचित प्रबन्ध प्रायमसाज करेगा। - ३-शाखाका विषप यह है कि "ईश्वर सृष्टिका कर्ता है या नहीं। Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६९) जिसमें कि पार्यसमाजका पक्ष यह है कि "इस सृष्टिका कर्ता ईश्वर है" और जैनियोंका पक्ष यह है कि "ईश्वर सष्टिका कर्ता नहीं है। चौथा नियम शास्त्रार्थक समयके विषयमें पा जिममें कि मार्यसमाजका काहगा यह था कि शालार्थ परसोंसे शुरू हो और श्री जैन सवप्रकाशिनी सभाका कहना यह था कि शास्त्रार्थ कलसे ही शुरू हो । इस विषयपर कई घंटों तक वहस होती रही पर यह निग्रम तय न हुमा और प्रधाम बाबू गौरीशङ्करजी वैरिष्टरके इस कथनानुसार कि "सभा वर्खास्त की जाती है आप लोग जाइये" हम लोग उठ कर चले आये परन्तु अब आर्यसमाजने "शाखासे कौन भगा और "नकली सिंहका असली रूप प्रकट होगयो” शीर्षक विज्ञापनों में यह सिद्ध करनेकी चेष्टाकी है कि जैन लोग शास्त्रार्थसे पीछे हट गये। समाजका ऐसा लिखना सर्वथा मिथ्या और पब्लिकको धोका देकर अ. पने ऊपर माये हुए शास्त्रार्थसे हटने के दोषकी झूठी सफाई करना है। हमारी श्री जैन तत्व प्रकाशिनी सभा आर्यसमाजकी किसी भी टालम टोलपर ध्यान न देकर उससे नियमानुसार लिखित शास्त्रार्थ करनेको सर्वथा और सर्वदा उद्यत है और जब कि आर्यसमाज भी अपने को उसके लिये तप्यार प्रगट करता है तो हमारी श्री जैनतत्त्वप्रकाशिनी सभा उसके विज्ञाप. नों में प्रकाशित तीसरे नियमके अनुसार ही 6 जुलाई को पब्लिक शास्त्रार्थ करनेको तय्यार है। मतः समाजको उचित है कि यह शास्त्रार्थ के शेष नियम आज ही तय करदे जिससे कि शास्त्रार्थ अति शीघ्र ही प्रारम्भ होजाय । ऐसा न होनेसे यह समझा जायगा कि आसमाज शास्त्रार्थ करना नहीं चाहती ॥ घौसलाल अजमेरा मन्त्री श्री जैन कुमार सभी अजमेर ता० ८ जुलाई सन् १९९२ नारपर्युविजापनका उमा भार्य समाज की ओर से जाम रात की प्रमाडित हुआ। अब पछताये होत का जब खुलगई सारी पोल. जिन लोगों ने कल समान मंदिर में हमारे सरावगी भाइयों की करतू. Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६२ ) तों को देखा था तथा हमारे और उनके विज्ञापनों को गौर से पढ़ा है उनको भली प्रकार प्रकट होगया होगा कि सच्चा कौन और झूठा कौन । छः घंटे में जो जो वहस हुई उस सबको हमारे सरावगी भाइयोंने अपने विज्ञापन में से उड़ा दी परन्तु फिर भी यह उन्हें स्वीकार ही करना पड़ा कि उन्होंने तारीख़ के शास्त्रार्थ को मंजूर नहीं किया सच्ची बात वही है जो कि समाज के विज्ञापन में छाप दी गई है कि चारों बातों में से इन्होंने एक भी बात मंजूर नहीं की. पक ୯ क्या खूब अब सरावगी भाइयोंने द तारीख़ की शानको ५ बजे यह प्र काशित कर अपनी सफाई बताई है कि हम गाये समाजियों की मर्जी के मु प्राफिक तारीख़ को ही शास्त्रार्थ करमा मंजूर करते हैं । क्यों महाशय ! क्या ह तारीख़ को शास्त्रार्थ करने का आर्य समाजियोंका कोई मुहूर्त था ? नहीं, 9 तारीख़ को ही यदि यह कह दिया जाता कि इमल तारीख़ ही मंजूर क रते हैं तो क्या सरावगियों का कुछ बिगड़ जाता । असली बात यह है कि प्रार्थ्य समाज १ दिन बीच में इसलिये लेता था कि मजिस्ट्रेटसे आज्ञा ले. कर मोड़ भाड़ का ऊधम रोकने के लिये पुलिस का पूरा २ प्रबन्ध कर लेता, यह सरावगी भाई चाहते नहीं, वे तो यही चाहते हैं कि इन्तज़ाम के लिये समय न दिया जाय और शास्त्रार्थ के समय खूब भीड़ भाड़ कर ऊधम मचा कर शास्त्रार्थ से सहज ही में पीछा छुड़ायें । जब जब के शास्त्रार्थ को टाल हुल्लड़ और असभ्योंकी नाई उदंगल करने से उनको सारा शहर धिक धिक कर रहा है तो शर्म उतारने के लिये अब फिर शास्त्रार्थ के लिये ( उसी नाबालिग लड़के की आड़ में ) विज्ञापन देते हैं परन्तु मालूम रहे कि हमारे सरावगी भाइयों की करतूत इस हद्द त बढ़गई है कि कोई सभ्य समाज उनसे बिना मजिस्ट्रेट की आशा और पुलिस के प्रबन्ध के अब बात चीत करना पसंद नहीं करेगा इसलिये यदि सराबगो भाइयों को अब भी शास्त्रार्थ करना मंजूर है तो अपने में से २ प्रतिष्टित अजमेर निवासियों से बाबू मिट्टन लाल जो वकील तथा बा० गौरीशं करजी बैरिस्टर के नाम ( जिनको समाज ने अपनी ओर से इस कार्य के लिये नियत कर दिया है ) पन भिजावें । यह चारों महाशय मिलकर म. जिस्ट्रेट से छाज्ञा लेकर सारा प्रबन्ध कर लेवें मार्य्य समाज राजकीय निय Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मामुमार कार्य करेगा यदि ता० को ही शास्त्रार्थ करना मंजूर होता तो | कल बचा होगया था, यह सारी टालने की बात है। - ता०८-७-९८९२ जयदेव शर्मा मंत्री आर्य समाज अजमेर। मङ्गलवार जुलाई १५१२ ईस्वी। ___ भार्यसमाजके कलके विज्ञापनानु पार हमारी ओरसे शास्त्रार्थ के विषय में मैजिष्टेटको प्राज्ञा प्राप्त करनेके अर्थ श्रीयुत सेठ ताराचन्दजी, लाला प्यारेलालजी जौहरी, सेठ चौथमलजी वैद्य तथा पन्नालाल जी भैंसा रईसान अज. मेर नियत हुये जिनमेंसे नीचे के दोनों सज्जन माज कचहरी में दस्तखत देनेके लिये दिनके तीन बजे पहुंच गयेथे परन्तु आर्यसमाजकी ओरसे नियुक्त प्रति. निधि वाबू गौरीशङ्करजी वैरिष्टरने उस समय इस विषयमें बातचीत करने से विल्कुल इन्कार करदिया और वाबू मिट्ठनलाल जी वकील वात ढूंढ़ने पर मी कचहरी में नहीं मिले । अतः हम लोग लौट आये और सर्व साधारशके शापनार्थ निम्न विज्ञापन प्रकाशित हुना ॥ + बन्दे जिनवरम् + शास्त्रार्थसे ना हटैं, करो न टालमटोल । छिपे रहोगे के दिना, मढ़े कागजी खोल ॥ सर्व साधारण सज्जन महाशयों को सेवामें ( जो कि दोनों मोरको कार वाहियों और विज्ञापनों को ध्यानपूर्वक देख रहे हैं ) यह निवेदन करने की कोई आवश्यकता नहीं है कि शास्त्रार्थको कौन तय्यार हैं और कौन उनमें केवल कागजी घोड़े ही दौड़ाकर टालमटोल कर रहा है क्योंकि वे भलीभांति जानते हैं कि जब कि हम लोग नार्यसमाजको सभी बातों को मानते जाते हैं तब हम क्योंकर शास्त्रार्थ से इटरहे हैं। कल इमारी श्रीजैनतत्त्वप्रकाशिनी सभाके कार्यकर्तागण पुनः प्रातःकाल और सायङ्काल दीवार मार्यसमाज भवन में शास्त्रार्थके शेष नियम तय करने के लिये गये पर शोक है कि भार्यसमाजके मन्त्रीजीने नियमादि तय करने या शास्त्रार्थक विषय किसी भी प्रकार की बातचीत करनेसे सर्वचा मार करदिया ॥ Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६४ ) . भव जो प्रार्यसमाज अपने " अब पछताये होत का जब सुनगई सारी पोल » शीर्षक विज्ञापन में जैनियोंपर. असभ्यला और गल मपास करनेका दोषारोपण कर पूर्व निश्चित नियमके विरुद्ध मजिस्ट्रेटको आज्ञा प्राप्त करने का अडंगा लगाकर शास्त्रार्थ को टालना चाहता है सो टोक नहीं। जैनियों की मोरसे अभीतक असभ्यताका कोई व्यवहार नहीं हुआ और इसकी साक्षी वे लोग भले प्रकारसे दे सकते हैं जो कि श्रीजैनकमार सभाके प्रथम वार्षिको. त्सव पर स्वामी दर्शनानन्दजी और पं० राजदत्तगी शास्त्रीके मौखिक शास्त्रार्थ के समय उपस्थित थे। परसों भी जैनलोग आर्यसमाजके अनेक असभ्य व्यव. हारों पर सर्वथा शान्त रहे और अन्त में जयजिनेन्द्र जय जिनेन्द्र कहकर समाज भनमसे क्लेमाये । जयजिनेन्द्र जयजिनेन्द्र कहना असभ्यता नहीं वरन वह शार्यसमाजको नमस्ते या सनातनधर्मियोंके जय रामजी और जय गोपालनी के समान परस्पर भादर सत्कारमें व्यवहार किया जाता है। .. निस्सन्देह असभ्यताका व्यवहार आर्यसमाजकी ओरसे ही हो रहा है जैसा कि सर्व साधारण को उनके अपभ्य और अश्लील विज्ञापनोंसे भलीभांति प्रगट होगा । वे यह भी जानते होंगे कि मार्यप्तमागियोंने हमारी ६:जलाई की सभामें अपने नोटिस बांटते हुए कितनी गड़बड़ी डाली और परसों कभी फर्श उठाकर कभी मिट्टी डालकर और कभी किसीसे मिलकर कैमा असभ्यता. का व्यवहार किया और उसको हमारे जैन भाइयोंने कैसी शान्तितासे सहन किया । हमारी श्रीजैनतत्वप्रकाशिनी सभा शालार्थके लिये सर्वदा उद्यत रहती है। जैसा कि उसके स्वामी श्रीदर्शनानन्दजी और पण्डित यजदत्तनी शास्त्रीके मौखिक शास्त्रार्थ समय बिना किसी विशेष नियमके तय किये हुए उनसे शास्त्रार्थ करने और अपने लिखित शास्त्रार्थ के सर्व नियम, आर्यसमाजवी पर तय करनेके लिये छोड़देनेसे स्वयं प्रगट है। यद्यपि हम लोग पूर्व निबित नियमके विरुद्ध किसी दूसरे अडंगेको मा. गने के लिये बाध्य न थे, परन्तु इस भयसे कि कहीं ऐसा न हो कि प्रार्थसमाज इसी वासनको लेकर शास्त्रार्थ से दलजाय हम लोगों को भार्यवमाजके प्रस्तावनानुसार ही अजिस्ट्रेट साइम बहादुरकी, प्राज्ञा लेकर शास्त्रार्थ करना स्वीकार है॥ RAINDownhindehinduite Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - हमारी समाजने इस कार्यके लिये श्रीयुत सेठ ताराचन्दजी, लाला. प्यारे. लालजी, जौहरी, सेठ चौथमलजी बैद तथा सेठ पन्नालालजी भैंसा रईसान अजमेरको नियत किया है जिनमेंसे नोचेके दोनों सज्जन महोदय आज केचहरी में दरख्वास्त देनेके लिये दिनके ३ बजे पहुंच गये थे परन्तु भार्यस. माजकी ओरसे नियुक्त प्रतिनिधि श्रीयुत वाबू गौरीशङ्कर जी वैरिष्टरने इस समय इस विषय में बात चीत करनेसे बिल्कुल इन्कार करदिया । अतः हम प्रगट करते हैं कि हमारे उपर्युक्त सज्जन यह कार्य करनेको उद्यत हैं । आर्यसमाजकी ओरसे नियुक्त सज्ज नोंको उचित है.कि अब इस कामको शीघ्र ही तय करडालें क्योंकि अब टालमटोलसे काम नहीं चलेगा। विश्वास रहे कि जबतक शास्त्रार्थ न हो जाय या आर्यसमाज शास्त्रार्थसे इन्कार न करदे हम लोग उसको शास्त्रार्थ से छोड़ने वाले नहीं हैं ॥..... ___घीसूलाल अजमेरा, मन्त्री श्री जैनकुमारसभा अजमेर, तारीख जलाई सन् १९१२.ई. अजमेर, प्राण आर्य समाज के प्रतिनिधि बाबू गौरीशङ्करजी वैरिष्ठर और बाव मिट्ठनलाल जी बक्रोलको शास्त्रार्थ के सम्बन्ध में उचित कार्यवाही करनेके अर्थ निम्न पत्र भेजा गया। ... . .. . . ब्रन्दे जिनवरम् * . . मान्यवर महोदय जय श्री जिनेन्द्रजी ..... तारीख जुलाईको प्रकाशित "मन परताये होतका जब सुन गई सारी पोल" शीर्षक: भासमानके विज्ञापन द्वारा यह चातकर अतीव- प्रसन्नता हुई कि श्रीयुत: बाब मौरीशंकरजी बैरिष्टर : ( या बाबू मिट्ठनलालजी वकील ) सहित भार्यसमाजको भोरचे शाखार्थके लिये मैजिष्टेटसे माता लेनेको नियुक्त हुये हैं। ......... .: अतः आपकी सेवामें निवेदन है कि हमारी. समाजकी ओरसे श्रीयत सेठ ताराचन्द जी, लामा पारेलालजी जौहरी, सेठ चौथमलजी वैद्य, और सेठ पन्नालाल जी भैंसा रईसान अजमेर इसी कार्यके लिये नियुक्त हैं। ..... - सविनय प्रार्थना है कि प्राप. इस पत्रके पाते ही यह प्रकाशित कर दें कि उपर्युक्त सज्जन महोदय इस कार्यके विषय में प्रापसे काम मिलें, या साप | उनसे कत्र मिलने की कृपा करेंगे। Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - यदि आप मिलना चाहें तो साज शामको ८ बजे से बजे तक सेठ ने. मीचंदजीके रंगमहल में उपर्यत सज्जनों से मिलने का कष्ट स्वीकार करिये। यदि आप उनको बुलाना चाहें तो अपने मिलने का समय लिसिये । . कृपया इस विषयमें मापाको अतीव शीघ्रता करनी चास्मेि जिससे कि इन लोगोंका समय व्यर्थ नष्ट न जाके। भवदीय कृपारधी-घीसूलाल प्रजमेरा मन्त्री भी मकुमार संघा. ता०९।७।१२ अनमेर । हमारे विज्ञापनके उत्तर भार्यसमाजकी और से प्राण पत्तको निम्न विज्ञापन प्राप्त हुआ। सोम बड़े बड़ाई ना करें, बड़े न बोलैं बोल। हीरा मुखसे ना कहै, लाख हमारा मोल ॥ .. पिछले दीतवारको आर्यसमाज भवन में सरावगियोंके सिवाय बहुतसे दूसरे भीई भी मौजूद थे, वे इस वातको साक्षी दे सकते हैं कि भार्यपुरुषोंने सरावगी भाइयोंको अपना महमान समझ उनके हजारों गाली गलोजको परवाह न कर शान्तिको कायम रक्खा और उनकी हर प्रकारसे खातिर करते | रहे, उसके बदले में झूठे लांछन लगाना, बैठनेके लिये फर्श विधानेको धूलि उड़ाना और पंखे हिलानेको हाथापाई समझना इन्हींका काम है। जिस शीर और गुलका अर्थ इन लोगोंने दुना सलाम राम राम वनमस्ते प्रादि किया है उस पर पढ़े लिखे लोगों को हंसी आये विना रह नहीं सकती, यदि हमारे सरावगी भाइयोंका उदंगल भार्यसमाज भवन तक ही रखता तो शायद उनकी यह बनावट चल भी जाती? परन्तु यह हा, हूका सिलसिला सारे शहर में जारी रक्खा गया, जिसे बच्चा बच्चा उनकी सभ्यता से वाकिफ गया और पुलिसको सर्वसाधारणको शान्तिको भङ्ग होनेका अं. देशा पैदा हो गया। यही कारण था कि पुलिस तहकीकात करना प्राव. सैक समका और हमको भी मजिस्ट्रद्रकी प्राजा लेकर शाखा करनेका नि. यम रखना जरुरी मालम हुआ श्रार्य उपदेशोंका इनकी सभामें इनकी म Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ र्जीके मुत्राफिक शान्तिपूर्वक शास्त्रार्थ कर पाना शार्यसमाजियों की धीरज और गम्भीरताको प्रकट करता है न कि सरावगी भाइयोंकी शान्तिको, जो अपनी सभाकी बदनामीका खयाल न करके तालियां पीटनेसे न चूके. तब मार्यसमाजमें भाकर कन चुप रह सकते थे। - विज्ञापनोंमें कठोर शब्दोंका प्रयोग पहिले हमारे सरावगी भाइयोंने से " मान की मरम्मत" ,'मार्य नमाजको ढोलकी पोल" "बादकी खाज, इत्या. दि अनेक कटु वाक्योंसे शुरू किया, अब समाज पर ही लगाम लगाना दू. सरे की आंख में तिनका देखना और अपनी आंखका शहतीर तक भी न दे. खने के समान है॥..... ....... - मेरे ( मन्त्री ) तथा बा० गौरीशंकरजी बैरिस्टरके बातचीत न करने की शिकायत सर्व या अनुचित है, क्योंकि जब एक ओर वो बातचीतका ब. हाना किया जावे और दूसरी ओर उसके विरुद्ध नोटिस छपवा मर बांटेगावें तो फिर कौन समझदार यादमी ऐसी बातचीत पर विश्वास करेगा। यदि प्रतिष्ठित सरावगी भाई शावार्थ करानेको उद्यत हुए हैं तो वे प्रतिष्ठित मात्र ही कल ठीक ११ बजे ( दिनके) श्रीमान् बाबू गौरीशङ्करसी बैरिस्टर एटला के बंगले पर पधार कावें और श्रीमान बा० मिट्ठनलाल जी. श्रीमान् बा० गौरीशंकरनीसे शास्त्रार्थ सम्बन्धी उचित कार्यवाही करलें। ___रहे मिथ्या भिमानके यह वचन कि "हम लोग उसको शास्त्रार्थसे छोहने वाले नहीं हैं. बड़ी हसी दिलाने वाले हैं। . महाशय : यह लिखते वक्त शायद आपको ध्यान नहीं रहा कि प्रार्य. समाज तो सदैव भापकी सेवा करनेके लिये यहीं मोजद है फिर इसके लिये ऐसा लिखना अपनी लड़कपनका परिचय देना है। हमारे सरावगी भाइयों को अपने नोटिसों में यह बतलाना था कि वे उन चारों बातों इंटे या नहीं, बदिने ७ तारीख को ही तारीखमा शाखार्य मंजूर कर लेते तो उसका पा, बिगह जाता, मुख्य बातको कोड गर्भभरी भाषा उनकी ही कमजोरी दिखलाती है, बार्यसमाज शास्त्रार्थसे पीछे हटना नहीं चाहता, परन्तु जो वह नहीं चाहता वह यह है कि उसे कधमधाड़ा पसन्द नहीं, शालार्थ शान्तिसे होता है जो बहुत भीड़ भाड़में कायम नहीं रह स. कती । सव विधारशील पुरुष भी यही कहते हैं जैसा कि राय सेठ चांदमल । - SEEN'SS Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६८) जी साहबके कयनसे स्पष्ट ही है। . तार - -१९१२ : जयदेव शर्मा मन्त्री आर्यसमाज अजमेर इस कारण कि उपर्युक्त विज्ञापन में भार्यसमाजने हमारी ओरके प्रति निधियों को लिखित शास्त्रार्थ के विषय में उचित कार्यवाही ( मैजिष्टेट से शास्त्रार्थ के अर्थ प्राज्ञा प्राप्त) करनेके अर्थ अपने दो प्रतिनिधियों में एक बाबू गौरीशङ्कर जी वैरिष्टर एंटलाके बङ्गले पर बुलाया था अतः हमारी ओर से इस विज्ञापनका कोई उत्तर प्रकाशित नहीं हुआ। पर इसमें कई भ्रामक बातें हैं जिनका उत्तर सर्व साधारण के हितार्थ प्रकाशित किया जाताहै। अपने इस विज्ञापन में प्रार्यसमाजने जैनियों पर प्रथम ही यह मि. च्या दोष लगाया है कि उसने भवन में आपों को हजारों गाली गलौज की और उनपर धन उड़ाने, फर्श उठाने और हाथापांहीं करने का मिथ्या दोष । लगाया । पर जीवडिलका वहां पर उपस्थित थी वह भली भांति जानती है। कि जैमियों ने उस रोज माथ्यों के असम्भव व्यवहारों और वैरिष्टर साहव के अनेक असभ्यः कटु और सज्जनों के मुंहसे न निकलने वाले बचनोंको कैसी शान्ति और धीर्य से सहा । यद्यपि वह लोग उसका मुंह तोड़ उत्तर दे सकते थे पर इस भयसे कि प्रार्य समाज हमारे वैसा करने का बहाना लेकर कहीं शास्त्रार्थ से बदल जाय वह लोग बहुत ही शान्त रहे । निस्सन्देह कुंवर दिग्विजयसिंहजी चन्द्रसेन जैन वैद्य और फूलचन्द्र पांड्या अपने भार्यसमाजी भाइयों की समस्त भ्रामक और असत्य वातोंका बड़ी शान्ति और सभ्यतासे सभा में ही बैठे बैठे या खड़े होकर जिस प्रकार वह बातें कही जाती थीं ) प्रतिवाद किये विना नहीं रहते थे और यदि उन लोगों के ऐसा करनेको ही आर्य समाज गाली गलौज करना समाता हो तो बात ही दू. सरी है। जिस कमरे में हम लोग बैठे थे वहां पर फर्श पहिले से ही विले इये थे इस लिये यह लिखना समाजको नितान्त मिथ्या है कि फर्श हम लोगों के बैठने को विछाये जाते थे। समाज को ऐसा लिखना योग्य था कि हम लोगों के नीचे विछे हुये फर्श स्वामी दर्शनानन्दजीका व्याख्यान पूर्व नि. श्चितानमार होने के अर्थ हम लोगों के नीचे से उठाकर चौकमें विछाये जाते थे। आर्य समाजो उस रोज जैनियोंका जैसा भातिथ्य सत्कार किया वह जैनियों और अन्य उपस्थित लोगोंको बहुत दिनों तक न भूलेगा । शेम ! Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महात्मन ! शोर गुल का अर्थ दुना सलाम मी क्रिया गया वरन श्राप के ८ जुलाई को प्रकाशित 'जय जिनेन्द्र, जिय जिनेन्द्र शब्दका जो कि ठीक ही है। देखिये भापके शब्द ये हैं "परन्तु हमारे सरावगी भाइयोंने एक न मानी और जय जिनेन्द्र जय जिनेन्द्र मादि शब्दों मेशोर-गुल मचाने हुये समाज भव नसे चले गये। रहा शोर गुल मचाने की बात सोजबकि प्रत्येक बनभाई ने (आपके उनको अपने भवन से खदेड़ देने पर भी) मापसे प्रेम पूर्वक्र जय जिनेन्द्र "जय जिनेन्द्र किया और बैसा करने से कुछ शोर गुल हो गया हो तो साश्चर्य नहीं। रही शहर में जय जय कास्की अवनि सो वाहमा सिलसिला और असभ्भता नहीं वरन विजय प्राप्त होने पर इदग्रोल्लास का नमूना है। पुलिस को शान्ति भङ्गका अन्देशा होना भार्यसमाज की कृपाका ही पाल था और इसी कारण वह तहकीकात करनेको मौके पर नार्यसमाज भवनमें गयी होगी पदि दुर्जनतोष न्यायसे थोड़ी देरके अर्थ समाज का यह लिखा मानलिया नाय कि जैनियोंके शहर में हाहू करनेके कारमा शान्ति भङ्ग जाने के भयसे उसको मैंजिस्टेट की साकार लेकर' पाना होने का नियम रखना जरूरी मालूम हुमा तो इस से यह ती प्रत्यक्ष ही है कि जब तक जैनियों ने (मार्यसनाज के लेखानुसार ) शहर में हाहू नहीं की थी तब तक उस को ऐसी (मैजिष्ट्रेट से प्राजा लेने की) भावश्यकता कदापिन थी यदि ऐसा ही था तो वह बीच में एक दिनकी मोहलत क्यों लेना चाहता था, ला. ख छिपाने पर भी उसको अपने ८ तारीख के "भव प्रछनाये होत का जब खुल गई सारी पोल" विज्ञापन में इसका कारण यह लिखना ही पड़ा कि "असली बात यह है कि मार्य समाज एक दिन बीच में इसलिये लेता था कि मैजिष्ट्रेट से माता लेकर मोडमाह का अधम रोकने के लिये पुलिस का पूरा पूरा प्रबन्ध कर लेता असल बात यह है कि प्रार्यसमाज एक दिन बीच में लेकर मैजिष्ट्रेटको शान्ति भङ्ग होने का भय दिखा उसको माता से शास्त्रार्थ बन्द करना चाहता था और हम लोग उसकी इस बातको जान गये थे इसी से हम ससको एक दिन की मोहलत देना पसंद न करते थे। जो हो । सत्सवात छिपाये नहीं छिपती सर्व साधारण को उसके लेखोंसे ही यह भली भांति जान हो गया कि वह क्यों हम लोगोंपर असभ्यता और शान्ति भङ्ग करनेका मिथ्या दोष लगाकर शाखार्थ टलने के अर्थ मैजि. ट्रेट से आता प्राप्त करने का प्राडा लगा रहा था ॥.. Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 90 ) • मिसन्देहः ३० जून के शास्त्रार्थ की सभा में आर्यसमाजियोंकी मोर से (सिवाय कुछ सामाजियों के ताली पीटने में अग्रेसर होने के कामको छोड़कर और कोई ) सभ्यता का व्यवहार नहीं हुआ पर ६ जुलाई के शासार्थकी सभाका दृश्य देखने ही योग्य था कि हमारे अनेक श्राय्र्यसमाजी भाई किस प्रकार क्रोधमें भरे हुये अपने नोटिस ब्रांटकर लोगों से दूंगा करते हुये सभा के कार्य्यमें गड़बड़ी डाल रहे थे और 9 जुलाई को उन्होंने समाज भवन में अपनी ममता और उदण्डताको पराकाष्टा दिखला डाली जब कि दोनों मौखिक शास्त्रार्थों में हमने कुल नियम प्रार्थ्य उपदेशकोंकी इच्छानुसार ही रक्खें थे तब उनके शान्ति भङ्ग करनेका कारणं ही क्या हो सकता था | Preet Pe 10 k हमारी ३० जून को तालियां वहां पर उपस्थित कुछ मूर्ख लोगोंने (जिनमें कि हमारे कई प्रार्यसमाजी भाई अग्रेसर थे) पोटी थीं और उसमें हमारे अनेक घनभिज्ञः जैन भाई भी सम्मिलित हो गये थे जिसके कि अर्थ इनको बड़ा दुखि है और उनको ओोरसें हम क्षमा प्रार्थी हैं । पर समाजने देखा ही होगा कि हम लोगोंने पूर्व ही तालियां पीटने और जय जयकार बोलने से सबको बिलकुल जोक दिया था और पीटने वालों को खूब धिक्कार कर उनके इस कृत्य पर शोक प्रकट किया था ॥ जिन लोगोंने दोनों ओर के विज्ञापनों को भली भांति ध्यान से पढ़ा है वह इस बातकी साक्षी दे सक्त हैं कि इन लोगों की ओर से प्रकाशित विज्ञापनों में कोई असभ्य और अश्लील शब्द नहीं । श्रार्य समाजने बहुत ढूंढ खोजकर जो तीन नामकी मरम्मत" | "शा समाज की ढोल की पोल और "वादको खाज, शब्द प्रकाशित किये हैं वे अश्लील और असभ्य नहीं वस्न यथार्थ वस्तु स्वरूप को प्रकाशित करने वाले साधारण शब्द हैं । प्रश्लीलता, असभ्यता और व्यक्तिगत क्षेत्रों का प्रवाह यदि देखना हो तो उनके धर्मो से काम नहीं लेखा' शीर्षक विज्ञापनों से इधर के विज्ञापन ध्यान पूर्वक पढ़ें । c. जब कि तारीख के, प्रातःकाल या समाज के मन्त्रीको सेवा में उपस्थित होने वाले श्री जैन तत्त्व प्रकाशिनी समाके कार्य्यकर्ता गढ़ों से उन्होंने सन्ध्याको बात चीत करने की प्रतिज्ञा की थी श्रीर बाबू गौरीशङ्कर जो वैरिष्टर प्रार्य्यसमाजको घोर से नियम करने के अर्थ प्रति निधि नियत हुये Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११) थे ऐसी दशा में उन लोगों का रुखाई के साथ बात चीत करने से इन्कार कर देना निस्सन्देह प्रक्षेपणीय है। मालम नहीं कि कौन से बात चीत के वि. रुड नोटिस प्रकाशित हुये। . ::: .. ... । नहीं जानते कि सारे "हम लोग उसको शाखा में कोड़ने वाले नहीं। हैं,, बचन कैसे मिथ्या अभिमान के होकर हमी दिलाने वाले हैं और श्रीजैन कुमार सम्म ने बैसा लिखकर कैसे अपने बचपन का प्ररिचय दिया है। भार्यसमाजको चासे बातें स्वीकार न करने का कारण पार्य ममाजी भाइयों के युक्ति और प्रमाणों से प्रार्य समाज भवन में करेवार बतला. या जा चुका था जैसा कि पूर्व ही प्रकाशित हुआ है। तारीख को ही है तारीख को शास्त्रार्थ मंजरं करने का कारस कम्योंकि हम लोगों की बस्तनीय रीति से इस बातका पता लक करा पाकिआर्यसमाज एक दिन बोचा लेकर मैजिष्टेट को शान्ति भङ्ग होने का भय दिखा उसकी आज्ञा से शाखार्य बन्द कराना चाहता था और हम लोगों को यह बात कदापि इष्ट न थी-हम लोग पाहते थे किशनार्य हो ही, असाही कारण उनकी और समा बातें मंजूर कर लेने पर भी हम लोग तारीख को ही भावार्य मा. रम्भ होने की बात पर डटे रहे। पर जब यह देखा कि प्रार्य समाज इस बहाने को ही लेकर सामार्थ से हटा जाता है और उसका दोष मारे मत्थे पटकता है तब हमको उसकी तारीख की बात भी स्वीकार करना पड़ी ॥ 1. हम जानते हैं कि भावार्थ शान्ति से ही होता है और वह शान्ति बहुत भीड़ होने पर भी कायम रह सक्ती है जैम कि तारीख ३० जून और ६ जुलाईके मौखिक शाखाओंके समय पीजैनकुमार सभाने अपने उत्तम. प्रवन्ध द्वारा सबको करके दिखा दिया। फिर प्रचलिक शास्त्रार्थ नाम रख न मालम भार्यसमाज पक्षों चुपचाप कुहिपाने ही गुड़ फोड़ना चाहकर पब्लिकको मानेसे रोकता था .... ... पाठको ! यदि आर्यसमाज निज धर्म रक्षार्थ इस.प्रकार मिथ्या बातोंको प्रकाशित कर सर्वसाधारणको धोखे बालता हो तो आपको भावार्य न करना चाहिये मोंकि उसके न्यायदर्शन के चतुर्थ अध्यायका पचासवां (अन्तिम ) सूत्र यह है कि "तत्त्वाध्यवसायसंरक्षणार्थ जल्पवितरडे बीजारोह रक्षणार्थ कबटकशाखावरणवत्" अर्थात् जैसे बीजाकुरको रक्षाके लिये के. पटक माखाओंका जावरण किया जाता है वैसे ही तत्व निर्णयको रक्षाके लिये। 71 Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७२) जल्प और वितरखा हैं। इस सूत्र पर उसके प्रसिद्ध विद्वान सामवेद भाष्यकार: परिवत तुलसीराम जी स्वामी महाराज लिखते हैं कि जिज्ञासुको मत्संरता और छठसे कभी इनका प्राश्रय न लेना चाहिये, किन्तु आवश्यकता पड़ने पर तत्वको रक्षाके लिये ( जैसे खण्डको रक्षाके लिये कांटोंकी बाड़ लगा देते हैं) इनका प्रयोग करना चाहिये। बुधवार १० जुलाई १८१२ ईस्वी । मार्यसमाजके तारीख को प्रकाशित विज्ञापन के अनुसार हमारी ओर के चारो नियुक्त प्रतिनिधि सेठ ताराचन्दजी व लाला प्यारेलाल जी जौहरी ईसान नसीरावाद तथा सेठ पोचमग्रजी वैद व सेठ पत्रालालजी रईसान अजमेर अाज दिनके साढ़े दस बजे ही प्रार्यसमाजके प्रतिनिधि वाबगौरीशं. करजी वैरिष्टर एटलाके वगले पर आर्यसमाजके दूसरे प्रतिनिधि वाबू मि. द्वानलाल जी वकील सहित मैजिष्ट्रेट से लिखित शास्त्रार्थक विषयमें प्राजाले. नेकी दरखास्त दनको पहुँच गये वातचीत शुद्ध होने पर न मालूम क्यों मा. समाजके प्रतिनिधियों ने मैजिष्ट्रेटसे आजा लेने से इन्कार करदिया और यह कहा कि प्रबं उसको कोई प्रावश्यकता नहीं क्योंकि अजमे में अब शास्त्रार्थ करना ही हम नहीं चाहते । हमारे प्रतिनिधियोंने अंजमेरमें ही लिखित शास्त्रार्थ करनेके अर्थ बहुत कुछ कहा सुनी पर भार्यपमाजके प्रतिनिधियोंने टससे मस न की। जब हमारे प्रतिनिधियों ने देखा कि इतनी मेहनत और इतने दिन इन्तिजारी में खर्च करने पर भी हम लोगों का अभिलषित शास्त्रार्थ नहीं होता तो 'भागे भतकी लंगोटी ही सही' इस न्यायके अन पार उन को एक ऐसे लिखित शास्त्रार्थके अर्थ जो कि इंदावह और अजमेर में वैठे बैठे हो सके वही कठिनतासे तैय्यार किया और उनके निम्न नियम तय हये ॥ १ यह शास्त्रार्थ आर्यसमाज अजमेर और जैनतत्त्वप्रकाशिनी सभा इ. टावके मध्य में होगा . .. . २ विषय "ईश्वर सृष्टि का कर्ता है कि नहीं जिसमें भार्यसमाजका यह पक्ष है कि सृष्टि का कर्ता ईश्वर है और जैनमहाशयोका पक्ष यह है कि ईश्वर सृष्टिका का नहीं । शास्त्रार्थ नागरीभाषामें होगा' हर एक पक्षकी ओर से एक २ प्रश्नपत्र जिस पर मन्त्रीके हस्ताक्षर लेंगे Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूपरे पक्ष के मन्त्री के पास भेजा जावेगा और उत्तर भी मन्त्री ही के हस्ताक्षरी भेजे जावेंगे। आर्यममाजको प्रोरसे पं० जयदेवजी शर्मा मस्त्री होंगे और श्री जैनतत्व काशिमो सभा इटावाकी ओरसे लाला चन्द्रसेनजी वैद्य मन्त्री होंगे। ५ प्रश्नपत्र में एक ही प्रश्न होगा ॥ ६ प्रश्नोत्तर होके मन्त्रीके पास १० दिन तक पहुंच जाने चाहिये और वे रजिष्टरी द्वारा भेजे जावें ॥ ..' 9 प्रथम प्रश्न पत्र आपसमें ता० ११ जलाई १९१२ को शामके ५ बजे तक एक दूसरे के पास पहुंच जाने चाहिये ॥ प्रश्नोत्तों को छपानेका प्रबन्ध हरएक मन्त्री अपने पाप करें। कहीं ऐसा न समझा जाय कि जैनियोंने ही अजमेर में लिखित शास्त्रार्थ करनेसे इन्कार कर दिया इस कारण इस शास्त्रार्थ को सूचनाका वि ज्ञापन शार्यममाजके मन्त्री की ओरसे निकलना निश्चित हुा । गुरुवार ११ जुलाई १९५२ ईस्वी । आज प्रातःकाल १० वजे कलके निश्चपके अनुसार भार्यममाजसी ओर से निम्न विज्ञापन प्रकाशित हुआ। . विज्ञापन । सर्व साधारणाको विदित हो कि जैसा कि विज्ञापन ता. 6 जुलाई १९१२ को आर्यममाज अजमेरकी तरफसे प्रकाशित हुआ था उसके अनुसार सेठ ताराचन्दजी व लाला प्यारेलालजी रईमान नसीराबाद तथा सेठ चौथमल जी वैद्य व सेठ पन्नालालजी भैंसा रईसान अजमेर व बाब गौरीशङ्कर जी बैरिष्टर एटला और पं० मिट्टनलाल जी भार्गव वकील भाज १० जनाई सन् १९९२ ई० को दिनके ११ बजे बाबू गौरीशङ्कर जी बैरिष्टरके मकान पर एकत्रित हुए और सर्व सम्मतिसे यह निश्चय हुआ कि शास्त्रार्थ लेखबद्ध केवल पत्र द्वारा निम्नलिखित नियमानुसार होः १-यह शास्त्रार्थ आर्य्यममाज अजमेर और श्री जैनतत्त्व प्रकाशिनी सभा इटावाके मध्य में होवे ।। २-विषय "ईश्वर सष्टिका कर्ता है कि नहीं” जिममें आर्य समाजका यह पक्ष है कि सृष्टिका कर्ता ईश्वर है और जैन महाशयोंका पक्ष यह है कि ई. श्वर सृष्टिकर्ता नहीं है। - Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . .. ( ४ ) ३-शास्त्रार्थ नागरी भाषामें होगा। ४-हरएक पक्ष की ओरसे एक २ प्रश्नपत्र जिसपर मन्त्रीके हस्ताक्षर होंगे, दूसरे पक्षके मन्त्री के पास भेजा जावेगा और उत्तर भी मन्त्रीहीके हस्ताक्षरी भेजे जावेंगे। प्रार्यसमाजकी ओरसे पं० जयदेव शम्मा मन्त्री होंगे और श्री जनतत्वप्रकाशिनी सभा इटावाको मोरसे लाला चन्द्रसेन जी वैद्य मन्त्री होंगे। ५-प्रश्नपत्र में एक ही प्रश्न होगा, ६-प्रश्नोत्तर होके मंत्रीके पास १० दिन तक पहुंच जाने चाहिये और वे रजिस्टरी द्वारा भेजे जावें। ७-प्रथम प्रश्नपत्र शापसमें ता० ११ जुलाई १९१२ की शामके ५ बजे तक एक दूसरेके पास पहुंच जाने चाहिये। ___-प्रश्नोत्तरोंको पत्रों में छपवानेका प्रबन्ध हरएक मन्त्री अपना अपने श्राप करें। यह भी निश्चय हुमा कि दोनों पक्ष अब इस शास्त्रार्यके विषयमें कोई विज्ञापन न छापे जावें और ऊपर लिखित नियमोंपर शान्तिपूर्वक शास्त्रार्थ प्रारम्भ कर दिया जावे। १दः प्यारेलाल ५ गौरीशंकर २ दः ताराचन्द Mitthan lall ३ दः चौथमन ४ दः पन्नालाल प्रकाशक जयदेव शर्मा मंत्री _ता० १०-७-१९१२ इस विज्ञापन को पाते ही हम लोगों की ओर से नियमानुमार एक प्रश्न ईश्वरके सष्टि कर्तृत्वके विषय में मार्यभमाजको भेज दिया गया और दो बजे दिनके लग भग प्रार्यसमाजमा प्रश्न भी हम लोगों को प्राप्त हो गया और इस प्रकार या शास्त्रार्थ प्रारम्भ हो गया। (नोट) यह शाखार्थ अभी बराबर चल रहा है और समाचार पत्रों में छपवाया जायगा और पुस्तकाकार भी प्रकाशित होगा। ___ आज प्रातःकाल और मध्यान्हमें दो बार पंडित दुर्गादत्त जी शास्त्री . - - Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 94 ) हम लोगों के पास पुनः आये और सामाज तथा खानी दर्शनानन्द जी सरस्वती के विलाप तथा हृदय द्रावक वालों और प्राग्रहों का (जिनके कि.कारणा उनका चित्त उस दिवश उनके अत्यन्त प्रिय वन्धु श्राममाज के सुप्र सिद्ध विद्वान् पंडित गगापति जो शर्म के काल मृत्यु का समाचार सुनने से परम शोकाकुल होनेसे पिघल गया था और बहुत दबाव पड़ने पर उन्हें " जैन धर्म परित्याग" शीर्षक विज्ञापन निकालना ही पड़ा था ) वर्णन क रते हुये अपनी भूनपर बड़ा पश्चाताप प्रगट किया और कहा कि मुझे आ समाजपर विल्कुल श्रद्धा नहीं है और मैं एक मात्र जैनधर्मको ही श्रात्मा का कल्याण करने वाला समझ कर उसको पुनः ग्रहण करता हूं। ऐसा कहकर उन्होंने इन लोगों को व्यर्थ ही बहुत मजबूरी से ऊपरे मन बदनाम क रनेके अर्थ बहुत क्षमा प्रार्थना चाही और निम्र विज्ञापन अपने हाथ से लिखकर प्रकाशित करनेको दिया । वन्देजिनवरम् । विज्ञापनं । मैं अत्यन्त खेदके साथ प्रकाशित करता हूं कि स्वामी दर्शनानन्द मी और पंडित गोपालदामजीके मौखिक शास्त्रार्थके दूसरे दिन श्रार्यसमाजी भाइयोंने कई प्रकारकी लाचारियां डालकर मुझसे ( जैन धर्म परित्याग ) शीर्षक विज्ञापन निकलवा दिया । परन्तु सोचने से नालूम हुआ कि किसी के दवावमें पढ़कर सत्यधर्मका परित्याग करनेसे श्रात्माका वास्तविक कल्याण नहीं हो सकता । इस लिये मैं सर्वसाधारण से निवेदन करता हूं कि मुझे भ पने पूर्व प्रकाशित विज्ञापनका बड़ा पश्चाताप है और अब मैं अपने पूर्व गृहीत और भूलसेत्यक्त सत्य जैनधर्मकी पुनः ग्रहण करता हूं । निवेदक दुर्गादत्त शर्मा अजमेर ११ । ७ । १२ क भाज रात्रिको जैनसभा अजमेर की भोरसे सभा का एक विशेष अधिवे शन करना निश्चित हुआ तदनुसार निम्न विज्ञापन प्रकाशित किया गया । : वन्दे जिनवरम् + आवश्यक सूचना | सर्व साधारण सज्जन महोदयों को विदित हो कि आज ता० ०११ जौलाई Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन १९१२ ई० को स्थान गोदों की नशियों में समय रात्रि ८ बजेसे मभा होगी। उममें स्थाद्वाद वारिधि वादिगज के मरी पं. गोपालदासजी बरैया न्यायाचार्य पं. माणिकचन्द्रजी कंबर दिग्विजयसिंहजी पं० युत्तलालजी प्रादिके जैनधर्मपर उत्तमोत्तम व्याख्यान और भजन होंगे । अतः आप सर्वसजनन अवश्यमेव पधार कर धर्मलाभ उठाइये। विशेष्वलम् । ... प्रार्थीः-फूनचन्द पांड्या, मन्त्री जैमसभा अजमेर। ___गोदोंकी नशियामें ठीक समयपर सभाका प्रारम्भ हुआ। भजन होने के पश्चाद् श्रीमान् स्याद्वादवारिधि वादिगजकेसरी पण्डित गोपालदासजी वरैस्पाने मंगलाचरण करते हुये ईश्वर के स्वरूपके विषयमें एक छोटीसी सारग. मित वक्तता देकर सभापतिका पासन ग्रहण किया। इटावह निवामी श्रीमान पण्डित पुत्तू लालजीने जीवके सच्चे सुखका निर्णय करते हुये उसके प्राप्तिका उपाय अभिधेय, सम्बन्य, शक्यानुष्ठान इष्ट प्रयोजन और पूर्वापर विरोध रहित लक्षण वाले शास्त्र से प्राप्त होना बतलाकर इन लक्षणों की अव्याप्ति वेदादि शास्त्रों में बतलाते हुये जैनशास्त्रों को ही कल्याणकारी सिद्ध किया। न्यायाचार्य पण्डित माणिकचन्द जीने जैनधर्मके पेटे में ही अपेक्षाओंसे सव धर्मों का प्राजाना सिद्ध किया। कंवर दिग्विजयसिंहजीने सर्वजीवोंके हितार्थ प्रत्येक जनभाईको निज ज्ञान और चरित्रकी वृद्धि करके जैनधर्मका प्रकाश और उसकी सच्ची प्रभावना कर स्वपर कल्याण करनेका उपदेश दिया। फूलचन्द पावड्याने श्रीजै नतत्त्वप्रकाशिनी सभाकी बड़ी प्रशंसा कर उसको अनेकशः धन्यवाद दिया और अन्त में मुबारिकवादी आदिके कई भजन होकर जय जयकार ध्वनिसे बड़े भानन्द और वत्साहके साथ सभा समाप्त हुयी। शक्रवार १२ जलाई ११२ ईस्वी। चौदह दिवश के पश्चाद् प्राज सन्ध्याको पांच बजेकी एक्स प्रेस ट्रेनसे श्री जैन तव प्रकाशिनी सभा अजमेरसे बड़े धूमधाम और उत्साहके साथ विदा हुयी । स्टेशन पर जैन भाइयों का प्रेम और मत्कार देखने ही योग्य था। अजमेर में बारह तेरह दिवशों तक जैन धर्म के विषय में भजन, व्याख्यान, शङ्का ममाधान और शास्त्रार्थों को खूब धूम रही जिनके कारण सर्व साधारण का उसके विषय में मिरपा ज्ञान का बहुत कुछ नाश होकर यथार्थ स्वरुपका बोध हमा। Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७७ ) दो मौखिक और तीसरे लिखित शास्त्रार्थके कारण अजमेर, अजमेरा और उसकी श्री जेनकुमार सभा चिरकाल तक लोगों को सारी रहेगी और नन्हें लोग सादरकी दूष्टि से देखकर अनुकरण करने योग्य समझते रहेंगे। अन्तमें हमारी यह परम मङ्गल कामना है कि श्री जैनको सभा जमेरके उत्साही, साक्षर और नव युवक सभासद दिन दूने रात चौगुमाधि द्वान, बुद्धिवान और चारित्रवान होकर जैन धर्मको संची प्रभावना करमेन कटिवद्ध रहैं और उनके अनुकरण करनेकी सामर्थ्य मर्व जैनझुमारों में ही जिससे कि वह जैन धर्म का डड्डा सारे संसारमें बड़े जोर शोरसे बनाकर संघ जीवोंको सच्चे कल्याणकी प्राप्ति करा सकनेमें सर्वथा समर्थ हों। चन्द्रसेन जैन वैद्य, मन्त्री . . श्री जैनतत्त्व प्रकाशिनी सभा-इटावा।" परिशिष्ट सास्कर "क" मौखिक शास्त्रार्थ ___ जो श्रीमान् स्याद्वाद वारिधि वादिगजकेसरी पण्डित गोपालदास जी वरैय्या द्वारा श्रीजैनवत्त्वप्रकाशिनी सभा और आर्यसमाजके सुप्रसिद्ध विद्वान और प्रचारक संन्यासी स्वामी श्रीदर्शनानन्द जी सरस्वती के मध्य "ईश्वर इस सृष्टिका कर्ता है या नहीं? इस विषय पर रविवार. ३० जन १९१२ ईस्त्री को मध्यान्ह के २ से ५ बजे तक स्वाम गोदों को नशियां अजमेर में कई हजार लोगोंके समक्ष सेठ ताराकानाको सनसीराबादके सभापतित्व में हुमा । वादिगजकेसरीजी-प्यारे भाइयो ! बड़े दर्ष का समय है कि आज एक विषयका निर्णय होता है। विषय यह है कि ईश्वर हम सृष्टि का कर्ता है या नहीं । सब ही पदार्थों गिर्णय उद्देश्य लक्षण और परीक्षासे होता है। अतः इस विषयमें प्रश्न यह है कि इस सृष्टिके बनाने में ईश्वरका कय क्या ? जब कि कहा जाता है कि परमात्माने भिन्न भिन्न परमाणों को जो कि प्रलयकालमें भिन्न भिन्न स्थानों में वेकार अवस्थामें पड़े हुए थे मिलाकर सूर्य चन्द्रादि रुप बनाया तब यह निश्वया है कि परमात्माने उनको क्रिया में परिणत कि Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (c) या । जो दूसरे को क्रिया देता है उसमें स्वयं क्रिया होनी चाहिये क्योंकि क्रियाका लक्षण "देशात् देशान्तर प्राप्ति” अर्थात् एक देशसे दूसरे देश में प्राप्त होना है और यह परमात्मा में उनके एकरम सर्वव्यापी होनेसे असम्भव है । यदि थोड़ी देरको आपके ईश्वर में क्रिया मान भी लीजाय तो यह बतलाइये कि क्रिया के स्वाभाविक, वैभाविक अशा च्वा दया, न्याय और कीड़ा आदि अनेक भेदों में से वह कौनसा कर्ता है । यदि ईश्वर में क्रिया स्वाभाविक मानें तो बाप माने हुए वह सृष्टि और मलय दोनोंका कर्ता परस्पर दोनों के विरोधी गुण होतेसे हो नहीं सकता यदि उसमें वैभाविक रीति क मानो तो उस में अशुद्धता पायी जायगी। यदि ऐसा मानो कि उपने अज्ञा दी और परमाणु सूर्य चन्द्रादि रूप बनगये तो ईश्वर के शब्द और परमाणुओं के श्रवण शक्ति होनेका प्रसङ्ग प्राया जो कि ईश्वर के अशरीर और परमाणुओं के जड़ होनेसे अपम्भव है । यदि यह मानो कि ईश्वर के सृष्टि बन जाने की इच्छा हुई और परमाणु उस रूप बनगये तो ईश्वर में विभाव और परमाणुओं में ईश्वरकी इच्छा जान लिने ( चेताव) का प्रसङ्ग मानेसे हो नहीं सकता । यदि यह मानो कि ईश्वर में दया से किया है तो उस क्रियाका फल भी ममस्त जीवोंको सुखदायी होना चाहिये । यदि यह कहो कि ईश्वर में न्यायकी क्रिया है तो रोकने की शक्ति होने पर भी उसने जीवों को ऐसे कर्म क्यों करने दिये जिससे कि उसको न्याय करने की आवश्यकता उत्पन्न हुई । यदि ईश्वर में क्रीहासे कर्तृत्त्व है तो उसमें अज्ञानता आदि दोषोंका प्रसङ्ग श्रावेगा । इत्यादि किसी भी क्रियाके भेद से वह सृष्टि कर्त्ता नहीं हो सकता । जब कि परमात्मा अखण्ड एकरस और सर्वव्यापी माना जाता है तो उनमें एकसी क्रिया होने के कारण कोई परमाणु अपने स्थानसे हिल नहीं ममता । यदि यह कहो कि परमात्माने एक एक बिखरे हुए परमाणुको उठा उठाकर जोड़ा तो ईश्वर के हस्त पादादि अवयव होनेका प्रसङ्ग हुआ जो कि उसके निराकार होनेसे है नहीं । अतः बतलाइये कि सृष्टिके बनाने में ईश्वरका कर्तृत्व कैसे और क्या है। स्वामीजी, - क्रियावान् ही क्रिया दे यह नियम नहीं । चुद्ररु पत्थर स्वयं नहीं हिलता, परन्तु लोहे को हिला देता है। इससे सिद्ध है कि क्रियासे क्रिया उत्पन्न नहीं होती, किन्तु शक्तिसे क्रिया उत्पन्न होती है । इच्छा अ प्राप्त इष्टकी हुआ करती है, कोई पदार्थ परमेश्वरको समाप्त नहीं, इस कारण परमात्मामें इच्छा करना नहीं घटताः । किया दो प्रकारको होती है, एक Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 36 ) इच्छापूर्वक और दूसरी नियमपूर्वक । इच्छापूर्वक क्रिया जीव की ती है और नियमपूर्वक परमात्माकी, ईश्वरमें क्रिया स्वाभाविक "स्वाभाविकी नामबलक्रिया च.। सष्टि में हरएक क्रिया नियमपूर्वक हो रही है सूर्य चन्द्र श्रादि सबमें नियमपूर्वक क्रिया है । वृक्षादिके एक २ पत्त, नियमपूर्वक क्रिया है। जी पर नियामका लक्ष्य कराती है। सष्ठि और जगत् दोनों शब्द भी अपने बनाने वाले का लक्ष्य कराते हैं सष्टि वह जो बनाई गई हो और जगत् वह जो चले । न कोई पदार्थ अपने आप बन सकता है न चल सकता है। परमाणुओं में गति है नहीं, इसलिये बनाने और चलाने वाला कोई अवश्य होना चाहिये। यदि परमाणुओं में स्वामाविक गति होतो तो उनका संयोग नहीं हो सकता था, क्योंकि स्वाभाविक गतिका भेद सदा बना रहता। जो परमाणु जिससे जितनी दूर पर जा रहा था उतनी ही दूर पर चला जाता । परमाणु ओंमें प्राकार भी नहीं, हरएक कार्य में ३ चीजें होती हैं, एक प्राकृति, दूसरी व्यक्ति, तीमरी जाति। मिट्टी में ईटकी शक्ल नहीं न ईटमें म. कानकी, तब कहांसे भाई । हरएक कहेगा ईटकी शक्न कुम्हारके और मकानको शक्ल इञ्जीनियरके ज्ञानसे, सिद्ध हुआ कि प्राकृति का ज्ञातसे पाती है। नेस्ति से हस्ति नहीं होती, उपादानसे व्यक्ति माती है। जाति नित्य है जगत् प्राकारवाला है, जन्य है, साकार जन्य होता है । यथा घट साकार हैं, जन्य है, परमाणु प्राकार चाल नहीं तब परमाणु ओं में प्राकृति कहांसे पायी । परमा. रमाने आजा दो और परमाण प्रामे सुना यह मार्य भनाजका दावा (सिद्धान्त) नहीं, परमात्मा एक एक पदार्थको लेकर जोड़ता है यह ठीक नहीं। यह दोष एकदेशी और परिजिवन पदार्थ में होता है । परमात्मा सर्व व्यापक है जगत् उसके अन्दर है। अन्दरूनी पदार्थ में गति देनेके लिये हाथ पैर आदि इन्द्रियों को आवश्यकता नहीं । इसी लिये कहा गया है कि "अपाणिपादो जबनो ग्रहोता पश्यत्याक्षः स ऋशोत्य कर्णः । शरीर के घावोंको भरने के लिये जो खून भाता है उसे कौनसा हाथ खींचकर लाता है। ... वादिगजपरी जी-यह मानना ठीक नहीं कि चुम्बकमें क्रिया नहीं होती क्योंकि उसमें परिपन्दात्मक क्रिया और अपरिस्पन्दात्मक परिणाम दोनों मौजूद हैं जिस समय चुम्बक लोहेको अपनी ओर आकर्षित करता है उस समय उसके परमासुत्रों में परिस्पन्दात्मक क्रिया और सपरिस्पन्दात्मक परिणाम या Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (co) परिन्दात्मक परिणाम बराबर होता है । क्रियाका लक्षण देशात देशान्तर प्राप्ति है जो कि आपके ईश्वर में एक रम सर्व व्यापी होने के कारण असम्भव है । यदि ईश्वर में चम्ब के आर्ष की भांति क्रिया स्वाभाविक है तो जिस प्रकार चुम्बक मदैव लोहे को अपनी ओर कांता है उसी प्रकार पमाओं के भी सदेव से होने के काया : ईश्वर उसमें अपने खभावसे सदैव क्रिया देता रहता होगा और उनका फल सृष्टि सदैव से होगी । जब ऐसा है तब प्रलय कैसे होती है क्योंकि वेदान्त के "नेक मित्रसम्भवात्" सूत्र के अनुसार ईश्वरकी : स्वाभाविक क्रिया में सृष्टि कर्तृत्व और प्रज्ञय कर्तृत्व के दो बिरोधी गुण नहीं रह सकते । सृष्टिके सब कार्य्य नियम पूर्वक नहीं-होते क्योंकि “गधः सुत्रर्णे फनभिक्षु इण्डे नाकारि पुष्पं खलु चन्दनेषु । विद्वान् धनाढ्यो न तु दीर्घ धातुः पुरा कोपि न वुद्धिदोऽभूत् ॥” कहीं वर्षा कितने ही दिन होती है कहीं कितने ही दिन और जब उसकी आवश्यकता होती है तब वह कभी नहीं होतीं और कभी कभी विना श्रावश्यकता ही इत्यादि अनेक अ * साइन्सके सुप्रसिद्ध विद्वान् भूत पूर्व मिष्टर जे० क्लर्क मैक्सवेल एम० ए० एल एल० डी०, एफ० आर० एम एम० एल० एण्ड ई० झानरेरी फेलो यांत्रटिनिटी कालेज और प्रोफेवर आाव एक्मपेरीमेण्टल फिज़िक्स इन दो यूनिवर्सिटी आव कैम्ब्रिज अपनी मैनुअल्प याव एलीमेन्टरी साइन्स सोरीज़ "मैटर एण्ड मोशन” नामक पुस्त में न्यूटन की थर्डला खाव मोशन (क्रि. या के तीसरे नियम ) की सिद्धिमें पृष्ठ ४८ लिखते हैं किः The fact that a magnet draws iron towards it was noticed by the ancients, but no attention was paid to the force with which the iron attructs the magnet अर्थात् यह विषय कि चुम्बकं लोहेको अ -पनी ओर खींचता है पूर्व पुरुषोंसे जाना गया था परन्तु उस शक्ति पर कोई ध्यान नहीं दिया गया था जिसके द्वारा लोहा चुम्बकको अपनी ओर खींचता है। अतः माहन्त द्वारा यह बात प्रत्यक्ष सिद्ध है कि चुम्बकमें भी परिस्पन्दात्मक क्रिया और अपरिस्पन्दात्मक परिणाम या अपरिस्पन्दात्मक प रिणाम बरावर होता रहता है इस कारण स्वामी जोका यह मानना कि "चुम्बक पत्थर स्वयं नहीं हिलता, परन्तु लोहे को हिला देता है ठीक नहीं वरन् वादिगजके मरीजो का चुम्बन में क्रियां मागंना विल्कुल यथार्थ है क्योंकि यदि ऐसा न होता तो छोटा चुम्बक बड़े लोहे से कैसे खिंचता । ( प्रकाशक ) Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८१) नियम और व्यर्थ कार्य इस संसारमें हो रहे हैं। जड़ पदार्थों में भी स्वयोग्य कार्य करने की शक्ति होनेसे निमित्तकी प्राप्तिपर नियम पूर्वक कार्य हो स. कते हैं; यथा सूर्य चन्द्रादिक का भमण और ग्रहण प्रादि । अनेक गुणोंके समुदायको द्रव्य कहते हैं और प्रत्येक गुण क्षण प्रतिक्षण अवस्था से अवस्थान्तर हुमा करता है। प्रत्येक पदार्थमें क्षण प्रतिक्षण उसके पूर्वावस्थाको प्रलय और उत्तरावस्थाको सृष्टि सदैव हुआ करती है और इस प्रकार अपने प्र. त्येक पदार्थक अवस्थासे अवस्थान्तर होनेसे जगत् भी सदैव चला ( रूप बदला ) करता है और अपने इस रूप बदलने में वही वही पदार्थ उपादान कारण और अन्य पदार्थ निमित्त कारण हैं। कोई ईश्वर कदापि नहीं । ज. गतमें कार्य दो प्रकारके हैं एक तो ऐसे कि जिसका कर्ता है, जैसे घटका कर्ता कुम्भकार । दूसरे ऐसे कि जिनका कर्ता कोई नहीं हैं, जैसे मेघ वृष्टि घासकी उ. स्पत्ति इत्यादि । अव इन दो प्रकारके कार्योंमेंसे घदादिकका कर्ता देखकर जिनकाकर्ता नहीं दीखता है, उनका कर्ता ईश्वरको कल्पना करते हो सो मापकी इस कल्पनामें हेतु क्या है ? यदि कहोगे कि कार्यपणा ही हेतु है तो यह बताइये कि यदि कार्य होय पर उसका कर्ता नहीं होय तो उसमें क्या बाधा आवेगी ? यदि उसमें कोई बाधा नहीं भावेगी तो आपका हेतु 'शं. कित व्यभिचारी' ठहरा । क्योंकि जिस हेतुके साध्यके प्रभावमें हनेपर किसी प्रकारको बाधा नहीं भावे उसको शंकित व्यभिचारी कहते हैं। जैसे किसीके मित्रके चार पुत्र थे और चारों ही श्याम थे कुछ कालके पश्चात् उसके मित्र की भार्या पुनः गर्भवती हुई, तब वह मनुष्य कहने लगा कि मित्रकी भार्याके गर्भवाला पुत्र श्यामवर्ण होगा, क्योंकि वह मित्रका पुत्र है, जो मित्रके पुत्र हैं, वे२ सब श्यामवर्ण हैं, गर्भस्थ भी मित्रका पुत्र है, इस लिये श्यामवर्ण होयगा । परन्तु मित्रपत्र यदि गौरवर्ण भी हो जाय तो उसमें कोई बाधक नहीं है। इस ही प्रकार यदि कार्य, कर्ताके बिना भी होजाय तो उसमें बाधक कौन ? म्याय शा. खका यह वाक्य है कि अन्वयतिरेकगम्यो हि कार्यकारण भावः अर्थात् कार्यकारणभाव और अन्वयव्यतिरेकभाव इन दोनों में गम्य गमक याने व्याप्य पापक संबंध है । जैसे अग्नि और धूम इनमें व्याप्य व्यापक संबंध है; अग्नि व्यापक है और धूम व्याप्य है। जहां धूम होयगा वहां अग्नि नियम करके होगी परन्तु जहां अग्नि है वहां धूम होय भी और नहीं मी होय। जैसे तप्त लोहेके गोलेमें अग्नि तो है परन्तु धम नहीं है । भावार्थ कहनेका यह Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २) है कि जहां व्याप्य होता है वहां व्यापक अवश्य होता है परन्तु जहां व्यापक होता है, वहां व्याप्य होता भी है और नहीं भी होता है। सो यहां पर कार्य कारण भाव व्याप्य है और अन्वयव्यतिरेक भाव उगपक है। प्रातः जहाँ कार्यकारणभाव होगा वहां अन्वयम्पतिरेक भाव अवश्य होगा; परन्तु जहां अन्वयव्यतिरेकभाव है, वहां कार्यकारणभाव होय मी और नहीं भी होय।कार्यके सद्भाव में कारण के सद्भाधको अन्धय कहते हैं । जैसे जहां २ धम होता है, वहां २ अग्नि अवश्य होती है। और कारण के प्रभाव कार्यके प्रभाव को व्यति. रेक कहते हैं, जैसे जहां २ अग्नि नहीं है वहाँ २ धूम भी नहीं है । सो जो ईश्वर और लोक में कार्यकारणसंबंध है तो उनमें अन्वयव्यतिरेक अवश्यहोना चाहिये । परन्तु ईश्वर का लोक के साथ व्यतिरेक सिद्ध नहीं होता। व्यतिरेक दो प्रकार का है एक कालव्यतिरेक दूसरा क्षेत्रव्यतिरेक । ईश्वरमें दोनों प्रकार के व्यतिरेकों में से एक भी सिद्ध नहीं होता क्षेत्रव्यतिरेक जन सिद्ध हो सक्ता है जब यह वाक्य सिद्ध हो जाय कि जहां २ ईश्वर नहीं है वहां २ लोक भी नहीं हैं परन्तु यह वाक्य सिद्ध नहीं हो सक्ता है क्योंकि ईश्वर सर्वव्यापी कहा जाता है अतः ऐमा कोई क्षेत्र नहीं है कि जहां ईश्वर नहीं होय; इस लिये क्षेत्रब्यतिरेक सिद्ध नहीं हो सकता। इसी प्रकार कालव्यतिरेक भी ईश्वर में सिद्ध नहीं होता; क्योंकि कालव्यतिरेक जब सिद्ध हो जब यह वाक्य सिद्ध होजाय कि जन जब ईश्वर नहीं है तब २ लोक भी नहीं है परन्तु यह वाक्य सिद्ध नहीं हो सक्ता क्योंकि ईश्वर नित्य कहा जाता है अतः कोई काल ही ऐसा नहीं है कि जिस समय ईश्वर नहीं होय; इसलिये ईश्वर में कालव्यतिरेक भी सिद्ध नहीं होसक्ता । और जब व्यतिरेक सिद्ध नहीं हुआ तो कार्यकारणभाव ईश्वर और लोकमें सिद्ध नहीं हो सक्ता और जब कार्यकारणभाव ही नहीं तो ईश्वर इस लोकका कर्ता है ऐसा किस प्रकार सिद्धहो सकता है ?॥ स्वामीजी-परमात्मा का स्वभाव मैंने श्रुतिके आधार पर क्रिया बतलाया है न कि सृष्टि रचना * ईश्वर की शक्तिसे दी हुई क्रिया नित्य है। संयोग * स्वामी जी जो यह कहते हैं कि “परमात्माका स्वभाव मैंने अति के माधार पर क्रिया बतलाया है न कि सृष्टि रचना "सो ठीक नहीं क्यों कि आपत्रे श्रुति का कोई प्रमाण नहीं दिया। आपने जो पूर्व ही "स्वाभाविकी ज्ञान बल क्रिया च" कहा था सो श्रुति का नहीं वरन वह श्वेता बेतर उपनिषद् अध्याय छः का मन्त्र पाठवां है और उसका पूरापाठ Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८३ और वियोग दो विरुद्ध क्रियाएं नहीं वरन् किपाके फल हैं । क्रिया के दो फल होते हैं १ संयोग, २- वियोग । एक गेंद पूर्व को फेंकी गई, परन्तु दीवार से लगकर फिर लौट आई। इस ही प्रकार जीवोंके कम्मोंके व्यवधान से संयोग और वियोग अर्थात् सृष्टि और प्रलय होते हैं। संयोग और वियोग गुण हैं, परन्तु गुण ४ प्रकार के होते हैं - ( १ ) स्वाभाविक, (२) नैमित्तिक, (३) उत्पादक, ( ४ ) पाकज । कर्त्ता की क्रिया से उत्पन्न होने वाला गुण पाकज होता है + न "न तस्य कार्य्यं करणं च विद्यते न तत्समश्चाभ्यधिकश्च दृश्यते । परास्य शक्ति विविधैव श्रूयते स्वाभाविकी ज्ञान बल क्रिया च ॥ है | आप जो यह कहते हैं कि परमात्माका स्वभाव क्रिया है न कि सृष्टि रचना सो भी भिश्या है क्योंकि आर्य समाज के प्रवर्तक आपके गुरु स्वामी दयानन्द जी सरस्वती महाराज अपने सत्यार्थ प्रकाश के अष्टम समुल्लास में सृष्टि की उत्पति स्थिति और प्रलयका विवेचन करते हुए पृष्ठ २२४ पर लिखते हैं कि ● जैसे नेत्रका स्वाभाविक गुण देखना है वैसे परमेश्वर का स्वाभाविक गुरु जगत्को उत्पत्ति करके सब जीवोंको असंख्य पदार्थ देकर परोपकार करना है । " अब कहिये इस विषय में पाठक आपको प्रमाणिक माने या आपके श्रीगुरूजी महाराजको ? ( प्रकाशक ) + स्वभाव में दो विरोधी गुण नहीं हो सकते इस दोष से अपने ईश्वर को बचानेके लिये चार प्रकारके गुण गिनाकर जो स्वामीजी महाराज “कर्त्ताकी क्रियासे उत्पन्न होने वाला गुण पाकज होता है" ऐसा कहकर दवे शब्दों में इस संसार के संयोग और वियोग ( सृष्टि और प्रलय ) को ईश्वर की स्वाभाविक क्रियाके पाकज़ गुण कहते हैं सो भी ठीक नहीं क्योंकि आप के श्रीगुरूजी महाराज अपने वेदान्त ध्वान्त निवारणम् पुस्तक के पृष्ट सोलह पर संयोग और वियोगको स्वाभाविक गुण सिद्ध करते हुए लिखते हैं कि “जैसे मिट्टी में मिलनेका गुण होनेसे घटादि पदार्थ बनते हैं वालुका से नहीं, सो मिट्टीमें मिलने और अलग होनेका गुण ही है, सो गुण सहज स्वभाव से है वैसे ईश्वरका सामर्थ्य जिससे यह जगत् वना है उसमें संयोग और वियोगात्मक गुण सहज ( स्वाभाविक ) ही है,, । हम समझते हैं कि पाठकगण आपकी अपेक्षा आपके गुरूजी को ही अधिक प्रामाणिक समझेंगे । ( प्रकाशक ) ފމ Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८४ ) कोई वस्तु उत्पन्न होती है न नष्ट । कारण से कार्य्यरूपमें धानेका नाम उ. त्पत्ति और कार्यका कारणमें लय होजानेका नाम नाश है। घास जड़ी बूटी आदि स्वयं उत्पन्न नहीं होती, परन्तु जिस प्रकार घड़ीके कमरमें चाबी देने से वाकी पुरज़े चल उठते हैं इसही प्रकार इस सृष्टि रूपी घड़ीके सूर्यरूपी फ. नरमें ईश्वरकी शक्तिप्रदत्त क्रियासे मेघ बनता है, वर्षा होती है, घास प्रादि उगती हैं। ईश्वर में दो गुण हैं । ईश्वर दयालु है और न्यायकारी भी है, अतः क्रियाके दो फल हैं । सृष्टि दो प्रकारको है एक न्यायकी सृष्टि, दूसरी दयाकी सृष्टि। दयाकी सृष्टि में सूर्य, अग्नि, वायु, जल आदि हैं, जो ईश्वर जीवों पर दया करके उनके कल्याणके लिये देता है और आंख, कान, धन मादि न्यायको सृष्टि है जो ईश्वर न्याय करके जिस जीवके जैसे कर्म हैं उस को उसही प्रकार घटा बढ़ाकर देता है। परमात्मामें वितरेक महीं, परमा. स्माके लिये यह नहीं कहा जासकता “कि अमुक देश में है अमुरुमें नहीं, अमुक कालमें था और अमुक में नहीं न यही कि अमुक पदार्थ के होने से परमात्मा होता है और उसके नष्ट होजाने पर नष्ट हो जाता है ।। . बादि गज केसरी जी-यदि परमात्मा में क्रिया स्वाभाविक है तो उस क्रिया के सृष्टि कर्तृत्त्व और प्रलय कर्तृत्व दो विरोधी फल कदापि नहीं हो सकते । गेंदका दृष्टान्त विषम है क्योंकि गेंद का लौट भाना फेंकने वाले की क्रिया का फल नहीं बरन दीवाल में टक्कर लगने के हेतु से हुआ। जिस प्र. कार दृष्टान्त में गेंद का एक ओर फेंका जाना और उसका पुनः लौट गाना एक क्रिया के फल नहीं बरन दो निमित्त ( मनुष्य की क्रिया और दीवाल के टक्कर लगने से ) जन्य हैं उसी प्रकार परमात्मा की क्रिया का एकही फ ल ( या तो सृष्टि कर्तृव या प्रलय कर्तृत्व ) होसकता है। अतः उसकी कि. या में दोनों विरोधी गुण कदापि नहीं। परमाणुओं में गति नैमित्तिक है - र्थात उन्हें जैसे निमित्त मिलते हैं वैसी गति होती है और निमित्तों की विभिन्नता से संयोग वियोग न हो सकने की दोषापत्ति व्यर्थ है। परमाणु वस्तु होने से साकार है यदि मिट्टी में ईट की शक्ल न होती तो वह पाती कहां से क्योंकि प्रभाव से भाव कदापि नहीं हो सकता जैसे कि बालका में घट नहीं है तो वह उससे बन भी नहीं सकता। कार्य की कारणसे व्याप्ति है जो कि दो प्रकार का होता है एक चैतन्य और दूसरा जड़ । किसी किसी चैतन्य कर्ता में कार्य के पूर्व ही उसकी प्राकृति ज्ञान सम्भव है परन्तु सबमें Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८५) नहीं। जड़ कारण में कार्य की प्राकति का ज्ञान होना सर्वथा असम्भव है। परन्तु जड़ कारण भी संसार में अनेक प्रकार के कार्य किया करते हैं। यदि जगत् साकार होने से ही जन्य है ऐसा मानते हो तो आपको अपने ईश्वर जीव और प्रकृति को भी जन्य मानना चाहिये क्योंकि वे भी सत्र साकार हैं इस अर्थ कि उन्होंने आकाशका कुछ न कुछ क्षेत्र घेरा है यदि उन्हें निराकार मानो तो वे आकाश कुसुम समान अवस्तु होंगे। परमाणु प्राकृतिवाले हैं क्योंकि यदि उनमें प्राकृति न होती तो उनसे बनी बस्तुओंमें आकति कहांसे श्रा जाती। जिस प्रकार कोई मनुष्य घडोके फनरमें चाबी भर देता है और उस से सारी घड़ी के पेच पुर्जे चला करते हैं उसी प्रकार ईश्वर ने सृष्टि रूपी घ. ड़ी के सूर्य रूपी फनर में चाबी भर दी है और उसी से मेघ बनता, वर्षा होती है तथा घास भादि होती है इसमें कौनसा हेतु है यदि कार्यत्व ही हेतु कहा जाय तो वह पूर्व ही कथित मित्र के पांचवे गर्भस्थ पुत्र के श्याम वर्ण होने के समान शङ्कित व्यभिचारी है। जब तक ईश्वर का सृष्टि गर्दषय स्वयं प्रसिद्ध है तब तक उसमें दया और न्यायको सृष्टि कहना बन्ध्याके पुत्र का विवाह कल्पना करने के समान निरर्थक है । जब कि कार्य कारण भाव विना व्यतिरेक सिद्ध हुए होता ही नहीं प्राप परमात्मा में व्यतिरेक का अभाव सिद्ध करते हैं तब परमात्मा और सृष्टि में कार्य कारण भाव कैसे माना जाय अतः सृष्टि अनादि है। स्वामी जी-पंडित जी ने भी कहा था कि क्रियावान ही गति देसकता है अब यह कहना कि गेंद के लौटने की गति दीवार से उत्पन हुई बदतो व्याघात है । जब क्रिपा रहित पदार्थ से गति नहीं पा सकती तो दीवार से गति क्योंकर भाई ईश्वर नित्य है उसकी क्रिया भी नित्य है सं. योग और वियोग दो क्रियाएं नहीं मैं पूर्व बतला चुका हूं कि संयोग और बियोग एक ही कथा के दो फल हैं। एक ही पावर इज्जन से निकली हुई किया जुदी जुदी मशीनों में जाकर जुदे जुदे काम करती है। कहीं काटती व्हीं जोड़ती है इसी ही प्रकार दैविक किया एक है परन्तु जीवोंके बाँके व्यवधान से होने वाली सृष्टि और प्रखयके कारण विरुद्ध फल बाली जान पड़ती है। जिन परमाणुओं का संयोग होगा उनके लिये यह भावश्यक ही है कि उनका वियोग भी हो, इस लिये सृष्टि के बाद प्रलय Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (FE) और मखके बाद सृष्टि होती चली आयी है । हम नहीं कहते कि सृष्टि कभी हुई। सृष्टि ऐसी हो चलो छायी है और ऐसी ही चल जायगी जैनियोंके इस कथन से सृष्टिकी उत्पत्ति सिद्ध होती है। सृष्टि स्रावग्रव पदार्थों का समुदाय है । सावयव पदार्थोंकी छः अवस्थाएं प्रत्यक्षमें देखने जाती हैं । जायते वर्द्धते विपरिणम्यते इत्यादि प्रत्येक सावयव पदाप्रथम उत्पन होता है अर्थात् कारण से कार्य रूपमें भाता है, फिर बढ़ता है और फिर उसकी अवस्थामें परिवर्तन होता है। अर्थात् परिणमन होना तीसरा विकार है । जब सृष्टि परियमय शोश है तो इसकी पहिली दो अवस्थाएं भी अनिवार्य हैं। यह जन्यत्वसे रहित नहीं हो सकतीं । क्या । वादी कोई ऐसा उदाहरण दे सकता है कि कोई पदार्थ परिचमन शील हो परन्तु उसका जन्यत्व न हो ? वादिगजकेसरीजी — क्रियावान् ही गति दे सकता है यह बहुत ठीक है । हमने यह कभी नहीं कहा कि गेंदके लौटने की गति दीवाल से उत्पन्न हुई। हमारा कहना यह था कि गेंदा लौट जाना फेंशने वालेकी क्रियाका फल नहीं वरन दीवाल में टक्कर लगने ( गेंदकी गतिको रोकने) की क्रिया से हुआ । वेदान्त सूत्रानुसार ईश्वरकी स्वाभाविक क्रियामें सृष्टि कर्तृत्व और प्रलय कर्तृत्व के दो विरोधी गुण कदापि नहीं रह सकते ऐसा मैं कई बार कह चुका हूं पर आप उसका समाधान नहीं करते । आपकी ष्टोम शक्तिका दूशान्त विषम है क्योंकि जैसे एक लोहेको सब ओरोंसे समान शक्ति रखने वाले चुम्बक पत्थर खींचें तो बह लोहा टस से मस नहीं हो सकता । उसी प्रकार जब आर्य्यसमाजका शुद्ध- अखख एक रस, सर्व व्यापी और स्वाभाविक क्रिया गुण वाला परमात्मा अपने प्रत्येक प्रदेश से एकसी हरकत देता (क्रिया उत्पन्न करता ) है तो कोई भी परमाणु टस से मस नहीं हो सकता और इस प्रकार सब गुड़ गोवर हो जानेसे संयोग और वियोग परमाणु योंमें न हो सकनेसे न तो कोई चीज वन हो सकती है और न विगड़ हो । यदि दुर्जन तोष म्यायसे थोड़ी देरके अर्थ परमात्माको क्रियासे ही परमाणुओंों में संपोग वियोग होना मानकर पदार्थोंका बनना बिगड़ा माना जाये तो चार अरब बत्तीस करोड़ के प्रलय कालमें (जो कि सृष्टिकालके समान ही संख्या में है।) प्रकृतिके परमाणु कैसे सूक्ष्म (कारण) अवस्था में घेबार पड़े रहें । इत्यादि अनेक दूषर्णो के आने से शुद्ध ब्रह्म की स्वभाविक क्रियामें दो विरोधी परिण V Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 62 ) मन ( गुणकी यां) कैसे रह सकती हैं। इस संसारको ईश्वर कृत सिद्ध करने के अर्थ किसी समय में इसका प्रभाव (कारण रूपमें होना) सिद्ध करता होगा क्योंकि जब तक संसार कार्य्य मिट्ट न हो जाय तब तक इसका कर्ता कोई कदापि माना नहीं जा सकता और कार्यका क्षय "प्रभूत भावित्वं कार्यस्वम्" है । सावयव शब्द के दो अर्थ हैं एक तो अवयव सहित और दूसरा अवयव जन् यदि आपको अवयव सहित उसका अर्थ इष्ट है तब तो आपका ईश्वर अव सहित (अनन्त प्रदेशी ) होने पर भी जन्यत्वसे मुक्त है। यदि आपको अवयव जन्य उसका अर्थ इष्ट है तब इस जगत्को जन्यत्वसे युक्त सिद्ध करने के अर्थ उसका किसी समय में भिन्न भिन्न अवयव ( परमाणु ) होना सिद्ध क रिये जीव परिणमनशील होने पर भी जन्यत्व दोष से मुक्त है। शोक कि ह मारे आक्षेपका उत्तर न देते हुए आप विषयसे विषयान्तर में जाते हैं ॥ 芒 . स्वामी जी में विषयान्तर में नहीं जाता । आपने सृष्टिको उत्पन्न होने के विषय में कहा था उसका मैंने दलीलसे उत्तर दिया है। दलील देना, दू ष्टान्त देना, और मांगना विषयान्तर नहीं । सृष्टिवनी यह श्रायैसमाजका सिद्वान्त नहीं । श्रार्यसमाज सष्टिको प्रवाह से अनादि मानता है और अनादि पदार्थ बिना हेतुके नहीं होते । जैसे सूर्यके बिना रात दिन नहीं होते इस हो प्रकार सृष्टि और प्रलयका हेतु ईश्वर हैं । सृष्टि और प्रलय यह स्वभावमें विच्छेद नहीं, परन्तु यह क्रियाकै दो फन हैं जो जीवोंके कर्मोंके व्यवधान होते हैं । सूर्यको एक क्रिया गर्मी देना है, परन्तु जिसका मिजाज गर्म है उस को उससे दुःख होता है। जिसका ठण्डा है उसको सुख मालूम होता है ॥ वादिग्जके मरीजी- - जब प्रार्यसमाज सृष्टिका बनना नहीं मानता तो वह अवश्य उसे सदैवसे होना मानता होगा और ऐसा मानने से इम को कोई विवाद नहीं । 'मनादि पदार्थ बिना हेतुके नहीं होते, यह कथन प्राप का बड़ा ही हास्यास्पद है । बतलाइये कि आपके ईश्वर, जीव और प्रकृति ( जो कि तीनों अनादि पदार्थ हैं) का हेतु क्या २ अनादि पदार्थ मोर हेतु "मेरी मां और बांझ कहने के समान है। जबतक कि इस संसारका किसी समय में अभाव, आपके ईश्वरकी सत्ता और उसमें सृष्टि कर्तृत्वको शक्ति सिद्ध न हो तबतक इस संसार के सृष्टि और प्रलयका हेतु ईश्वर है ऐसा कहना ब के पुत्र पुत्रका विवाहोत्सव मनाने के समान कपोलकल्पनामात्र है। 193 Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८८) सृष्टि और प्रलय यह परस्पर विरोधी होनेके कारण ईश्वरको क्रियाके फल नहीं क्योंकि ईश्वर स्वभावतः एक ही प्रकारको क्रियाका कर्ता हो सकता है । यदि ईश्वरको क्रियामें सर्वजीव अपने कमौके व्यवधानसे अन्यथा (विरुद्ध) परिशमन कर सकते हैं तो जीवोंके कम्मों का व्यवधान ईश्वरकी क्रियासे प्रवल है ऐसा मानना पड़ेगा। स्वामी जी-मनुष्य पदार्थों की गतिको बदलता है रोकता नहीं । सूर्य: की किरणे प्रति दिवस निकलती हैं कोई उनको रोक नहीं सकता । पानीके तेज़ बहावको मनुष्य पत्थर श्रादि लगाकर बदल देता है। क्या कोई कह सकता है कि किसीने पानीके कहावको रोक दिया। बदलना भी तो क्रिया है।जीव ईश्वरको प्रना है न कि प्रतिपक्षी। पाप पुण्य करती हुई प्रगा राजाको शत्र नहीं होती। प्रलयमें भी एक क्षण क्रिया स्थिर नहीं रहती। वादि गज केसरी जी-जिस प्रकार पानीका स्वभाव ढाल जमीनको ओर बहनेका होता है और यदि उसके मार्गमें कोई प्रबल प्रतिबन्धक न भावे तो बरावर वह जिस ओर नीची जमीन पाता है उधर बहता ही चला जाता है। पानीका वहाव भी अपने प्रतिवन्धकको ( यदि वह उसके बहाव की तेजीसे निवल है ) कभी कभी नष्टकर बरावर ढालू जमीनकी ओर बहता रहता है। प्रापका पानीके बहावका दृष्टान्त आपके पक्षमा पोषक नहीं घरन विघातक होकर हमारे पक्षको ही पुष्ट कर रहा है। क्योंकि जिस प्र. कार मापके दृष्टान्तमें पानीका स्वभाव बहनेका है और उसका फल ढालू जमीनकी ओर बहना है उसी प्रकार आपके दान्तिमें ईश्वरका स्वभाव क्रिया और उसका फल सृष्टि कर्तृत्व है। जिस प्रकार दृष्टान्त में कोई मनुष्य पत्यर श्रादि लगाकर या उस मोरको ढाल जमीनमें ही कोई चहान, टोला, पर्व. तादि प्रवल प्रतिबन्धक श्राकर पानीके उस बहाषको दूसरी ओर बदल देते हैं उसी प्रकार द्राष्टन्तिमें जीवोंके कमौके न्यवधान ईश्वरके सृष्टि कर्तृत्वको दूसरी ओर प्रलय कर्तृत्त्व रूपमें बदल देते हैं । जिस प्रकार दृष्टान्तमें पानीके बहावकी तेजीसे प्रबल प्रतिबन्धक ही पानीकी गतिको बदल सकते हैं उसी प्रकार दाष्टन्तिमें ईश्वरके सृष्टि कर्तृत्व रूप क्रियाके फलको प्रबल प्रतिबन्धक रूप जीवों के कम्मौके व्यवधान प्रलय कर्तृत्त्व रूप क्रियाके फल में बदल देते हैं। अतः हमने जो पूर्व ही यह दोष दिया था कि जीवोंके कम्मों का व्यवधान ईश्वर की क्रियासे प्रवल है वह ज्यों का त्यों कायम रहा और आपके दृष्टान्तसे भी Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( दल ) हमारे उसी दोषका समर्थन हुआ। ऐसा होनेसे आप जो ईश्वर के स्वाभाविक क्रिया के दो संयोग और वियोग फल बतलाते थे वे दोनों न रहे केवल एक ही रहा चाहे सृष्टि कर्तृत्त्व मानिये चाहे प्रलय कर्तृत्व * । “ बदलना भी * स्वामी दर्शनानन्द जी के गुरु स्वामी दयानन्द जी सरस्वती महाराजने ईश्वरकी विज्ञान वल और क्रियाका प्रयोजन ( फल ) जगतकी उत्पत्ति माना है और उसकी सिद्धिमें आप अपने सत्यार्थ प्रकाशके २२४ पृष्टपर लिखते हैं कि “जो तुमसे कोई पूंछे कि आंख के होनेमें क्या प्रयोजन है ? तु यही कहोगे देखना । तो जो ईश्वरमें जगत्की रचना करनेका वि ज्ञान बल और क्रिया है उसका क्या प्रयोजन विना जगतकी उत्पत्ति क रनेके ? दूसरा कुछ भी न कह सकोगे और परमात्मा के न्याय धारण दया आदि गुण भी तभी सार्थक हो सकते हैं जब जगतको बनावे" यद्यपि आप आगेकी लाइन में " उसका अनन्त सामर्थ्य जगत्को उत्पत्ति स्थिति प्रलय और व्यवस्था करने से ही सफल है" ऐसा लिखकर स्थिति प्रलय और व्यवस्थाको भी ईश्वरके विज्ञान, दल और क्रियाका फल मानते हैं परन्तु इनमें से स्वाभाविक आप केवल सृष्टिकर्तृत्वको ही मानते हैं क्योंकि उसके आगे ही आप कहते हैं कि “जैसे नेत्रका स्वाभाविक गुण देखना है बैसे परमेश्वरका स्वाभाविक गुण जगत्को उत्पत्ति करके सब जीवोंको म संख्य पदार्थ देकर परोपकार करना है" । जब सृष्टि कर्तृत्त्व स्वाभाविक रहा तव उसका उल्टा प्रलय कर्तृत्व वैभाविक स्वतः सिद्ध हैं । वैभाविक पर निमित्त जन्य होता है अतः प्रलय में कारण या तो जीवों के कम्मोंका व्यंवधान ( जैसा कि स्वामी दर्शनानन्द जी कहते हैं ) होगा या स्वामी द यानन्द जी सरस्वतीके मतानुसार सृष्टिका सदैव तक स्थिर न रह सक ना । दोनों ही हेतु पर्याप्त नहीं क्योंकि जीवोंके कमौका यह फल हो कि वो चार अरव वत्तीस करोड़ वर्ष तक ( जो कि सृष्टि कालके समान ही संख्या में हैं ) सुषुप्ति अवस्था में ( ईश्वरकी पक्की हवालात में उसके न्याय की प्रतिक्षा करते हुए ) निष्क्रिय रहै और ईश्वर उनके कर्मोके अनुसार उनको भला बुरा फल देनेका अपना स्वाभाविक कार्य वन्द रक्खे यह सम्भव नहीं । द्वितीय यदि सृष्टि सदैव तक स्थिर नहीं रहे सकती तो इस से ईश्वरकी क्रियाका कच्चापन सिद्ध होता है और यह स्वामीजी के म तानुसार ही नित्य पदार्थके गुण कर्म स्वभाव नित्य होनेके विरुद्ध है और १२ Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९०) क्रिया है" इस वातको हम मानते हैं पर यह क्रिया किसकी. है ईश्वरको या जीवकी ईश्वर की तो है नहीं क्योंकि वह एक रस होनेसे. अपनी क्रिया बदलता नहीं। तब वह अवश्य जीवकी है और वही आपके कथनानुसार ईश्वरसे प्रबल होने के कारण उसकी क्रियाको बदल देता है। जीव ईश्वर की प्रणा है यह तो पाप तब कहिये जब कि उसका अस्तित्त्व और सृष्टि कर्तृत्त्व सिद्ध हो जाय । जब कि ईश्वर और उसका सष्टि कर्तृत्त्वादि ही विवाद ग्रस्त है तब आप ऐसा कैसे कह सकते हैं ? यदि दुर्जन तोष न्यायसे भापकी प्रलय थोड़ी देरको मान भी ली जाय तो जब प्रलप हो चुकी ( प्रत्येक परमाणु कारण अवस्थामें होकर भिन्न भिन्न हो गये ) तो जब तक सृष्टिकालका समय न आवे तब तक ईश्वरको स्वाभाविक क्रिया क्या कार्य किया करती है? यह बतलाइये। ___स्वामीजी-सत्यके लिये दृष्टान्त होता है । जीवका स्वाभाविक ज्ञान नित्य है। सुषुप्तिमें ज्ञान कहां चला जाता है ? न सुषुप्तिमें क्रिया ही नष्ट होती है। सुषुप्तिमें क्रिया अन्दरूनी रहती है, जाग्रत्में बाहरी । परमाण प्रलयमें टूटते हैं। दीवार आदिक में परमाणु प्रत्यक्षमें टूटते रहते हैं स्वभाव रूपान्तर होना है। रूपान्तर क्रिया बिना नहीं हो सकता। सब पदार्थों में क्रिया ( तबदीली ) होती रहती है। बनना बिगड़ना दोनों स्वभाव नहीं हैं। जीवात्मा दिनमें सज्ञान रहता है रात्रिमें ज्ञान रहित, परन्तु यह स्वइससे ईश्वर अल्प शक्ति आदि सिद्ध होता है। यदि थोड़ी देरको ऐसा ही मानलो कि यह ईश्वरकी शक्तिसै वाहर है कि वह जगत्को सदैवके अर्थ कायम रख सके तो क्या जगत्के नाश होनेके द्वितीय क्षणमें ही उसे फिर न रचना प्रारम्भ कर देना चाहिये ? पर वह चार अरव वत्तीस करोड़ वर्ष तक क्यों चुपचाप बैठा रहता है ? ऐसा करने में क्या उसकी क्रिया उस मूर्ख राजाके समान नहीं है जो कि अपने जेलके गिरजाने पर उसको उतने काल तक वनाता नहीं जितने काल तक कि जेल प्रथम स्थिर रहा था । यदि यह कहो कि जैसे रात्रि और दिवश समकालीन प्रायः होते हैं वैसे ही सुष्टि और प्रलय सम कालीन हैं पर ऐसा मानना भी असङ्गत है क्योंकि रात्रि और दिवशका कारण सूर्यका किसी क्षेत्रमें उदयास्त है अतः जब ईश्वर सदैव सर्वत्र एक रस अखण्ड व्यापक है तब प्रलयादि कैसे ! इत्या| दि अनेक दूषणोंसे दूषित यह पक्ष सर्वथा अमान्य है ॥ ( प्रकाशक ) Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९१) भावमें भेद कहाता है। रोशनी कांचके रंगों के समान बदलती दिखलाई देती है वह रोशनीका धिकार नहीं। वादि गज केसरी जी-यद्यपि ज्ञान जीवका स्वाभाविक गुगा है परन्तु संसारावस्थामें वह जीवको अशुद्धताके कारण कर्म मलसे आच्छादित होकर विभाव रूप परिणमता रहता है। सुषुप्ति अवस्थामें भी ज्ञान जीवमें मौजद है पर निद्रा कर्मसे आवृत होनेके कारण वह जीवको जागृत अवस्था के समान अपना कार्य सम्पादन नहीं कर सकता । प्रापका यह दृष्टान्त ईश्वरमें नहीं घटता क्योंकि अशुद्ध जीवमें तो पर निमित्त से अन्य भांति हो भी सेकता है पर मापके शुद्ध एकरस अखण्ड ईश्वर की क्रिया में विरोधी फल कदा. पि नहीं हो सकता । जब कि किया आप अपने ईश्चरका स्वभाव मानते हैं और वह प्रलयमें भी होती है तथा उस किया के संयोग और वियोग ये दो फल आप कहते हैं तो बतलाइये कि प्रलय काल में आपके ईश्वरकी स्वाभाविक किपाका क्या कन होता है ? संयोग और वियोग तो आप मान नहीं सकते क्योंकि जब प्रलय अवस्थामें प्रकृतिका प्रत्येक परमाण भिन्न भिन्न कारण अवस्था में निष्क्रिय पड़ा है तब उसमें संयोग तो होता नहीं क्योंकि यदि संयोग मानों तो प्रकृति कारण अवस्थामें न होकर कार्य अवस्था में हो जायगी और वि. योग भी नहीं होता क्योंकि जब प्रथम ही प्रलय होने के समय प्रत्येक परमासा कारण अवस्थामें होकर भिन्न भिन्न हो गया है तो अब वियोग काहेका होगा? जब ऐसा है तब क्या प्रलयास्थामें आपके ईश्वर की क्रिया निष्फल हो जाती है ? हम मानते हैं कि इस संसारको प्रत्यक वस्तु परिणमन शील है और वह रूपान्तर हुआ करती है तथा रूपान्तर विना. क्रिया और परिशाम या केवल परिणाम नहीं हो सकता और समस्त पदार्थों में रुपान्तर होने में क्रिया और परिणाम या केवल परिणाम बराबर होता रहता है। पर इस से यह कैसे सिद्ध होता है कि उस क्रिया का कर्ता ईश्वर है या उस में ईश्वर का निमित्त है ? बनना बिगड़ना दोनों एकसे नहीं इसी अर्थ वह ईश्वर की एकसी क्रिया के फल कदापि नहीं हो सकते, 'जीवात्मा दिन में सजाग रहता है रात्रि में ज्ञान रहित, ऐसा कहना अत्यन्त हास्यास्पद है क्योंकि पा रात्रि में जीवात्मा के ज्ञान का अभाव होजाता है ? स्वभाव में भेद कभी नहीं होता और यदि होता है तो वह स्वभाव नहीं वरन वि. भाव है। आपके रोशनी व कांच के रंगो के दृष्टान्तसे यह सिद्ध होता है कि Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२) मलय होती नहीं वरन यों ही जीव के कम्मों के व्यवधान से मालूम होती है। हमारे भाक्षेपोंका उत्तर तो श्राप देते ही नहीं। ___स्वामीजी-जीवमें कर्म आदिकी वजहसे अशुद्वि भाजाती है। अन्यथा १-जोखमें अशुद्धि कैसे आई? २-क्रियामें फल कैसे पाये? .. -३-परिणाम अनादि कैसे? अग्निमें गर्मी व पानी में सर्दी स्वाभाविक है । कार्य अनित्य होता है, क्रिया | अनित्य नहीं । घडीका चलना कर्ता प्रदत्त स्वभाव है । परिणामन आप सबका बतलाते हैं, परन्तु परिणमम तीसरा विकार है। परिणमनशील पदार्थोके जायते और बर्द्धते दो कारण होते हैं। जब परिणमन शील मानेंगे तो ना. यते और बर्द्धते भी मानना पड़ेगा। उत्पत्ति शून्यमें परिणमन नहीं । क्रिया की शक्ति नहीं बदलती, कार्य्य वदलता है। प्राप एक उदाहरण दो जिस में परिणमन हुआ हो और उस पदार्थका सत्पन्न होना सिद्ध नहीं हो। - वादि गजकेसरी जी-जीवमें अशुद्धताका कारण उसके चारित्र गुणमें कर्म मलके अनादि सम्बन्ध रागद्वेष रूप विभाव है। जब कोई क्रिया की जाती है तो उसका कुछ न कुछ परिणाम अवश्य होता है और उसी परिणाम का नाम फल है। परिणमन जब अनादि है तब उसका परिणाम भी अनादि ही है । जिस प्रकार घड़ी किसी घड़ीसाजकी चलायी हुई चलती है उसी प्रकार यह सारा संसार ईश्वर प्रदत्त क्रियाके वलसे चल रहा है इसमें पा हेतु है ? यदि इसमें घट पटादिका कर्ता कुलाल कुविन्दादि चैतन्य पुरुषों को देखकर जिनको बनते नहीं देखा ऐसे सूर्य चन्द्रादिका कर्ता कोई चैतन्य ई. श्वर कल्पना किया जाय तो यह कल्पना पूर्व ही कधित धार श्यामवर्ण पुत्रों के पिता पांचवे गर्भस्थ पुत्रको भी श्यामवर्ण सिद्ध करनेके समान शङ्कित व्यभिचारी दोषसे दूषित है। समस्त परिणमन शील पदार्थों में जायते और वर्द्धते होनेका नियम नहीं। आपके प्रकृति के परमाणु परिणमन शील होने पर भी जायते और बढ़ते दोषसे रहित हैं। यदि क्रिया एकसी ही है और कोई प्रबल प्रतिबन्धक न आवे तो उससे ( जैसा कि पूर्व ही सिद्ध किया जा चका है) कार्यका रूप बदल नहीं सकता । शोक कि आप हमारे भाक्षेपों का समाधान और प्रश्नका उत्तर न देकर विषयसे विषयान्तर होते फिरते हैं। स्वामी जी-क्रियाका फल संयोग वियोग दोनों हैं । संयोग मष्टि और Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ( ३ ) वियोग प्रलय । स्वाभाविक क्रिया नियम पूर्वक होती है और वैभाविक क्रिया इच्छा पूर्वक होती है। सूर्य प्रादिक दयाको सष्टि हैं चक्षु आदिक न्यायको । दृष्टान्त म मांगना विषयान्तर नहीं। वादि गजके मरी जी-क्रिपाका फल संयोग और वियोग दोनों कदापि नहीं हो सकते । यदि दुर्जन तोष न्यायसे थोड़ी देरको आपके ईश्वरको स्वाभाविक क्रियाके फल दोनों संयोग और बियोग माने जाय तो यह संयोग और वियोग परमाणुओंके वर्तमान समय में भी समस्त पदार्थों में हो रहे हैं तो इसको सष्ठि और प्रलय क्यों नहीं कहते ! इस बातका क्या प्रमाण है कि कोई समय ऐमा मी आता है कि जब समस्त पदार्थों के परमाणु ओंका वियोग ही वियोग होता है संयोग कदापि नहीं ? यदि थोड़ी देरको माप की प्रलय भी मान ली जाय तो उप प्रलय काल में जब कि ईश्वर की स्वाभाविक क्रिया बरावर होती रहती है तो वह किन परमाणु ओंका ( प्रलयकाल के चार अरव वत्तीस करोड़ वर्षों के समयमें ) संयोग और वियोग करती है क्योंकि यदि संयोग करना भी उस कालमें मानों तो फिर परमासा कारण प्र. वस्था में नहीं रह सकते और वियोग तो हो ही नहीं सकता क्योंकि जब परमाण स्वयं कोरणा अवस्था में भिन्न भिन्न हैं तो वियोग किनका और किससे होगा ? सृष्टि कालके प्रारम्भ होने पर भी भापके ईश्वरकी क्रियासे परमाण परस्पर मिल नहीं सकते क्योंकि एक ही लोहेको जब सब समान शक्ति वाले सम्बक पत्थर सब ओरोंसे अापसमें खींचे तो वह अपने स्थानसे दिल नहीं सकता इसी प्रकार जब कि आपके कल्पित प्रलय काल में प्रापका अखण्ड एक रस सर्व व्यापी ईश्वर एक सी क्रिया दे रहा है तो कोई भी परमाणु प्रपने स्थानसे हिल नहीं सकता अतः उनमें संयोग न हो सकनेसे किसी वस्तु का बनना असम्भव ही है। यदि आपके ईश्वरको स्वाभाविक क्रियासे ही परमाणु मों में मिलन बिछुरन मानाजाय तो कोई भी वस्तु न तो बन सकती हैं और न विगह हो क्योंकि ईश्वरको सब ओरसे एकसी क्रियाके कारण परमाण अपने स्थानसे टस से मस नहीं हो सकते * । थोड़ी देर को मान लेने * इसी दोष से अपने ईश्वरको बचाने के अर्थ स्वामी दर्शनानन्द जी के गुरू जी महाराजने अपने सत्यार्थप्रकाश के २२५ वें पृष्ट पर लिखा है कि जब वह ( परमात्मा ) प्रकृति से भी सूक्ष्म और उनमें व्यापक है तभी उनको पकड़कर जगदाकार करदेता है । परन्तु विचारने का विषय है कि Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४ ) पर भी जैसे लोहा चम्न को खींचता है, हटाता नहीं। यदि कोई अधिक शक्ति वाला हटादे तो वह उसका हटामा कार्य कहा जा सकता है न कि खींचने वालेका अतः संयोग और वियोग ईश्वरको क्रियाके दोनों फन नहीं केवल एक ही माना जा सकता है। हमारा प्रश्न श्राप पर ज्योंका त्यों अभी - स्वामीजी-वाह ! उदाहरण दिया मापने चुम्बकका | उदाहरण गतिका नहीं मांगा गया, उदाहरण इस बात का मांगा गया है कि कोई वस्तु ऐमी नहीं जो जन्य न हो और परिणमन शील हो । चुम्बक इसका उदाहरण परमात्मा की स्वाभाविक एक रस अखमा क्रियामें यह कदापि नहीं हो सकता कि किन्हीं परमाणुओं को किन्हीं से मिलावे और 'किन्हींको किन्हीं से क्योंकि ऐसा इच्छा पूर्वक पदार्थ बनानेसे ही होसकता है और ऐसा करने में भी उसको अपनी क्रिया में न्यूनाधिक्य करना होगा जिससे उसके अखण्ड एक रस शुद्ध आदि होने में बाधा पहुंचेगी। यदि यह कहो कि इसी दोष के निवारण करने के अर्थ तो स्वामी जी इसी पृष्टपर इन लाइनोंसे पूर्व यह लिख गये हैं कि “जो परमेश्वर भौतिक इन्द्रिय गोलक हस्त पादादि अबयबोंसे रहित है परन्तु उसकी अनन्त शक्ति वल पराक्रम है उनसे सब काम करता है जो जीवों और प्रकृति से कभी न हो सकते”। परन्तु विचारणीय विषय है कि जब स्वामी जी इससे पूर्वके पृष्ट २२४ पर सर्व शक्तिमान शब्दकी व्याख्यामें कहते हैं कि “क्या सर्व शक्तिमान वह कहाता है कि जो असम्भव बातको भी कर सके ! जो कोई असम्भव बात अर्थात् जैसा कारण के विना कार्य को कर सकता है तो बि. ना कारण दूसरे ईश्वरकी उत्पत्ति कर और स्वयं मृत्युको प्राप्त, जड़, दुःखी अन्यायकारी, अपवित्र, और कुकर्मी आदि हो सकता है वा नहीं। जो स्वाभाविक नियम अर्थात् जैसाअग्नि उष्णा, जल शीतल, और पृथिव्यादि सब जड़ोंको विपरीत गुणवाले ईश्वर भी नहीं कर सकता और ईश्वर के नियम सत्य और पूरे हैं इसलिये परिवर्तन नहीं कर सकता" अतः स्वतः सिद्ध है कि ईश्वर अपनी स्वाभाविक अखण्ड एक रस क्रियाको न्यूनाधिक्य करके परमाणुओं में परस्पर संयोग नहीं करा सकता। जो हो ईश्वर की क्रियामें सष्टि कर्तृत्त्व और प्रलय कर्तृत्व कदापि बन नहीं सकते। (प्रकाशक ) Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९५) 'नहीं। परिणामन नित्य पदार्थों में होता ही नहीं पानीको गतिको पत्थर रोकता नहीं अतः पत्थर बलवान् नहीं हो सकता । कोई पदार्थ जन्य न हो और परिणामन शील हो इसका एक उदहाण दो। ___ वादि गजकेसरी जी-चुम्बकका उदारण इस अर्थ दिया गया है कि जिस पदार्थका जो स्वभाव है उसमे विरुद्ध क्रिया उसमें हो नहीं सकती। यदि हो तो उसका निमित्त वह पदार्थ नहीं कोई अन्य ही है ऐसा समझना चाहिये। पूर्व ही आपके प्रकृति परमाणु ओंका उदाहरण देकर यह सिद्ध किया जा चका है कि वे परिणामन शील होने पर जन्यत्त्वसे रहित हैं। यह मामना ठीक नहीं कि नित्य पदार्थों में परिणमन होता ही नहीं। परिणामन तो आपके ईश्वरमें भी होता है क्योंकि वह कभी सृष्टि को बनाता और कभी विगाहता है। हमारा प्राक्षेप अभी वही चला जाता है कि यदि ईश्वर सब मोरोंसे अपनी क्रिया प्रलयकाल में समानता से देता है तब तो कोई परमाण मिल नहीं सकते। यदि ऐसा मानों कि ईश्वर एक पोरसे ही अपनी क्रिया देता है तो भी वह मिल न सकेंगे वरन एक ही दिशामें वरावर दौड़ते चले जावेंगे ॥ स्वामी जी-ईश्वर सर्वव्यापक है । सब पदार्थ उसके अन्दर हैं। अन्दरके पदार्थों में दिशाभेद नहीं । एक ओरसे हरकत नहीं दी जा सकती। रूपा. न्तर प्रतिपत्तिपरिणाम, अवयवान्तर प्रतिपत्ति विकार। प्रकृति प्रवस्फा है, द्रव्य नहीं * । ईश्वरमें रूप नहीं अतः रूपान्तर नहीं। - स्वामी दर्शनानन्द जी प्रकृतिको द्रव्य न मानकर एक अवस्था मानते हैं। परन्तु विचारने का विषय है कि अवस्था किसी द्रव्यको ही हुआ करती है अतः यह प्रकृति किस द्रव्यकी अवस्था है। जो यह कहो कि प्रकृति सत, रज, तम इन तीन द्रव्यों की अवस्था है और सत, रज, तन ये तीनों द्रव्य है संयोग, विभाग, लघुत्व, चलत्व गरुत्वादि धर्मवाले होनेसे सो ठीक नहीं क्योंकि वैशेषिकने द्रव्योंकी गुणनामें इनको स्थान नहीं दिया बरन इसके बिरुद्ध इनको गुण ही माना है और स्वयं स्वा. मीजी अपने सांख्य दर्शन भाज्यमें सांख्यकै ६९ वें सूत्र “ सत्वरजस्तमसां साम्यावस्था प्रकृतिः इत्यादि के भाष्य में "सत्वगुणप्रकाश करनेवाला रजोगुण न प्रकाश और न आवरण करने वाला तमोगुण आवरण करने वाला जब यह तीनों गुण समान रहते हैं उस दशा का नाम प्रकृति rama - Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वादि गजकेसरी जी-जब कि श्रापका ईश्वर सर्व व्यापक, एक रस और अखण्ड है और उसके प्रत्येक प्रदेशों में एकसी स्वाभाविक क्रिया होती है तब पूर्व कथनानुमार कोई परमाणु अपने स्थानसे हिल नहीं सकता। यदि एक ओरसे की क्रिया होना मानों तो यह स्वभाव, एम रस और अखण्ड प्रादि ईश्वर के गुणोंसे विरुद्ध है और आपके पक्षका समर्थन नहीं करता क्योंकि ऐसा होनेसे सब परमाणु एक दिशा विशेष में ही दौड़ते चले जावेंगे और उनका संयोग न हो सकेगा । यदि एक दिशासे दौड़ाना और दूरी दिशा से परमाणु का रोकना मानों तो ईश्वर एक रस और अखगह (अपने समस्त प्रदेशों में एक सी क्रिया न होने के कारण) नहीं रहता । जो आप यह कहते हैं कि अन्दरके पदार्थों में दिशा भेद नहीं सो अनुचित है क्योंकि जब भाप ईश्वरको मर्व व्यापक और सब पदार्थ उपके अन्दर मानते हैं तो दिशा भेद किसी भी पदार्थ में न होना चाहिये फिर आपके वैशेषिकने दिशाको द्रश्न क्यों माना ? + जब एक ओरसे हरकत नहीं दी जा सकती और वह सब ओरसे एकसी दी जाती है तो कोई वस्तु बन नहीं सकती। जो आप ईश्वर में रूप न मानकर परिणाम नहीं मानते सो भी ठीक नहीं पयोंकि यदि ईश्वरका रूप ( श्राकार ) न माना जावे तो वह खर विषाणवत अवस्तु ही | ठहरेगा। है "ऐसा लिखते हुए सत, रज, तमको गुण सिद्ध करते हैं और बैशेषिक - पने अध्याय १ श्राहिक १ सूत्र १६ में गुण का लक्षण द्रव्याश्रय्यमुणवान् संयोग विभागेष्वकारण मनपंक्ष इति गुणलक्षणम्' जो द्रव्यके प्राश्रय रहे . न्य गुणका धारण न करे संयोग और विभागमें कारण न हो और एक दू. सरे की अपेक्षा न करे करते हैं। मालूम नहीं कि स्वामीजी के ये तीनों गुण किस द्रव्यके आश्रय हैं और प्रकृति द्रव्य गुण और पर्यायमें क्या है? य. दि द्रव्य तो उसको बैशेषिकने द्रव्यों की संख्यामें न रखकर मुण क्यों कहा, यदि गुण या पर्याय ( अवस्था ) तो किस द्रव्यको ! इत्यादि निर्णय कुछ भी नहीं होता। . . ... (प्रकाशक ) ... + पृथिव्यापस्तेजोवायुराकाशं कालो दिगारमा मन इलि द्रव्याणि । वै: शेषिक दर्शन अध्याय १ प्राहिक १ सूत्र ५। (अर्थात् ) पृथिवी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, काल, दिशा, प्रात्मा और मन ये नव द्रव्य है । (प्रकाशक) Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 3 ) स्वामीनी-अन्दरको क्रियाके लिये यह नियम नहीं है। ज़रूमके भरने के लिये किसी इन्द्रियको आवश्यकता नहीं। पेट में मल है परन्त बदल नहीं मालूम होती। परमात्मा विभु है उसमें तरफ (दिशा) का भेद नहीं हो सकता। यह दोष परिच्छिन्नमें हो सकता है। ईश्वर आपने परिणामी बतलाया था, अब अखंड बतलाया। परिणामीको शक्ति बदली खंड होगया, प्रखंड कहां रहा । अखंडको यदि परिणामी कहो तो आप ईश्वरके स्वरूपको ही नहीं समझे । स्वरूपको समझे विना उसके गुणका ख्याल किस प्रकार हो सकता है । जब ईश्वरको अखण्ड बतलाते हो तो जन्य पदार्थ के विषय में मांगे हुए उदाहरण में उसका उदाहरण विषम है। . वादिगजकेसरी जी--आपके केवल इतना कह देनेसे कि 'अन्दरकी क्रियाके लिये यह नियम नहीं है। जख्मके भरने के लिये किमी इन्द्रिय की नावश्यकता नहीं। पेट में मल है परन्तु बदबू नहीं मालूम होती 1, हमारा यह पक्ष कि ईश्वरको एक रस अखण्ड क्रियासे कोई परमाणु टससे मस नहीं हो सकता और एक तरफसे क्रिया देनेसे सब परमाणु एकही ओर दौड़ते चले जायेंगे और एक ओर हरकत देने और दूसरी ओर रोकनेसे ईश्वरकी क्रिया एक रस न रहैगी कैसे खण्डित होता है सो प्राप ही जानते होंगे क्योंकि जब स्वभाव एकसा है क्रिया भी एकसी ही होनी चाहिये और अन्दर की क्रियामें भी विपरीतता नहीं हो सकती। परमात्माको विभ माननेपर भी भिन्न भिन्न परमाणु मों में परस्पर दिशा भेद अवश्य मानना पड़ेगा, चाहे आप प्रलय काल में दिशात्रों ( उत्तर दक्षिण आदि ) की कल्पना न करें पर जब सब परमागा भिन्न भिन्न होनेसे एक ही स्थान में नहीं है वरन आपके सर्व व्यापी सारे परमेश्वर में व्याप्त हैं तो श्राप उनमें परस्पर दिशा भेद न होनेकी बात कैसे कह सकते हैं ? अखगह और परिणामी में विरोध नहीं क्योंकि प्रखगड उसे कहते हैं जिसका खण्ड न हो और सूपान्तरसे परिणाम होता है जिसे खबड होना नहीं कह सकते । जीव कर्मानुसार निज जन्म पारसमें कभी घोड़ा होता है, की मनुष्य और कभी चींटी श्रादि । परन्तु इस प्रकार रूपान्तर होने पर भी कभी जीवके खराड नहीं होते। जब कि हमने आपके माने हुए ईश्वरका ही दृष्टान्त दिया है जो कि परिणामी होने पर भी जन्यत्त्वसे रहित है तो फिर न जाने क्यों आप यह कहते हैं कि उदाहरण विषम है । महात्मन् ! पूर्व ही आपने यह कहा था कि कोई पदार्थ जग्य Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८) न हो और परिणमन शील हो इसका एक उदाहरण दो और अब भापका वह कहना कि 'जब ईश्वरको अखण्ड बतलाते हो तो जन्य पदार्थके विषयमें मांगे हुए उदाहरणमें उसका उदाहरण विषम हैं' क्या अभिप्राय रखता है। कृपया सम्हल कर हमारे दिये हुए दोषोंका निवारण और प्रश्न का उत्तर दीजिये ॥ . . स्वामी जी-अन्दरूनी क्रिया चक्करदार होती है उसमें दिशा भेद नहीं दृष्टान्तसे अपने कथनको सिद्ध कीजिये। घोड़ा हाथी चोटी आदिका उदा. हरण विषम है। घोड़ा भादि शरीर बनता है न कि जीव । एक पुरुष जो महलमें वैठा हुआ है उसे यदि जेलखाने में विठला दिया जाय तो उसकी अवस्थामें भेद भा जायगा न कि उसके जीवमें। शरीर और जीव एक नहीं है। शरीर मकान है। मकान बदलता है। उसमें बैठनेवाला नहीं । एक पुरुष जो बड़े भारी कमरे में बैठा हुआ है यदि उसको एक कोठरी में बैठा दिया जाय तो जीवकी शकल बदल गयी यह नहीं कहा जा सकता। हाथी पोहा शरीर में परिणमन है। किसी वस्तुको शकल आकाशके निकल जानेसे बदलती है। गेंदको दवाया उसके भीतरसे आकाश निकल गया अर्थात् कुछ कम होनेसे खण्डन होता है। जीवमें से कुछ कम नहीं होता श्रतएव उसका खण्डन नहीं प्रतःजीव परिणामी नहीं । सूक्ष्म में स्थूलके गुण नहीं प्रासकते । लोहे में अग्नि पाती है। अग्निमें लोहा नहीं पाता। आगमें पानीको सर्दी नहीं पा सकती, परन्तु पानी में प्रागकी गर्मी आती है । इस लिये सूक्ष्म पदार्थमें स्थलके गुण नहीं पा सकते। जीव और परमात्मा सूक्ष्म है । चेतन सबसे सूक्ष्म है इस लिये उसमें रूप नहीं । जब रूप नहीं तो रूपान्तर कैसा ? वादिगजकेसरी जी-अन्दरूनी क्रिया को चाहे श्राप चक्करदार मानिये या किसी दूसरी ही भांति की, पर जश कि प्रलयकाल में कारण अबस्था को प्राप्त भिन्न भिन्न परमाणु एक ही स्थान पर नहीं बरन आपके सर्वत्र व्यापक ईश्वर में फैले हुए हैं तो उनमें परस्पर भापको दिशा भेद अवश्य मानना पडेगा। क्रिया को चक्करदार ही मान लीजिये पर जब कि आपके एक रस सर्व व्यापी ईश्वर के प्रत्येक प्रदेश से एक सी ही क्रिया हो रही है तब कहिये कि परमाणुओं की क्या दशा होगी क्या वे सब और से एकसी ही शक्ति र. खने वाले चुम्बक पत्थरों से खींचे हुये लोहे के समान अपने स्थानसे हिल स. केंगे ? जब नहीं तो आपको सृष्टि कैसे बनेगी क्योंकि परमाणु परस्पर मिलही Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नहीं सकते जीवका मिज कम्र्मानुसार घोड़ा हाथी चीटी मनुष्य मादिके शरीरमें जन्म लेने से परिणामी होने का उदाहरण बिषम नहीं क्योंकि जब जीव वस्तु है तो उसका कुछ न कुछ प्राकार अवश्य है और जब आकार है तो वह समस्त शरीर में एक सा आकारवाला नहीं रह सकता आपको उसे शरीराकारही मानना पड़ेगा। यदि जीव का आकार न मानो तो वह श्राकाश कुसुम समान अवस्तु होगा। जीव शरीराकार ही है क्योंकि जहां जहां जीव है वहीं पर शरीरको छेदने भेदने से जीवको कष्ट होता है जहां जहां जीव नहीं ऐसे नख केशादि स्थानों को छेदने भेदने से जीवको कुछ भी कष्ट नहीं होता ज. ब जीव शरीराकार सिद्ध हो चुका तो भिन्न भिन्न शरीर में जन्म ग्रहण करने और उनकी वृद्धि आदि होने पर उसके प्राकारका परिणामन अवश्य मानना होगा। इसके सिवाय जीवके क्रोधी, मानी, क्षमावान्, मूर्ख, विद्वान, होनेपर भी उसका स्वरूप बदलना अवश्य मानना होगा और ऐसा होने पर भी वह कभी खण्ड खण्ड नहीं होता। अतः शरीर आदिके परिणमनके साथ ही जीवका भी उससे ( दीपक के प्रकाशकी भांति ) प्रदेशों मादिका संकोच विस्तार होने तथा गुणों के अवस्था से अवस्थान्तर होने पर परिणामी होना सिद्ध है। किसी पदार्थ में से आकाशका निकल जाना कहना अत्यन्त हास्यास्पद है क्योंकि आकाश सर्व व्यापी और क्रिया गुण रहित है ऐसा आपके वैशेषिक का मत है अतः आकाश कहीं न निकलकर जहां का तहां स्थित रहता है। जिस वस्तु में जौनसा गुण नहीं वह उसमें दूसरी बस्तु के संसर्ग से कदापि नहीं प्रासकता। जब कि जीव और ईश्वर दोनों रूप ( आकार ) वान् है तब उनमें रूपान्तर ( परिणाम ) होना स्वतः सिद्ध है यहाँ पर ईश्वर शब्दसे श्रा. प अपने माने एक सृष्टिकर्ता परमात्माको समझियेगा । हमारे मतसे तो प्रस्येक कर्म मल मुक्त जीव ही ईश्वर होजाता है हमारा प्रश्न अभी आप पर ज्यों का त्यों खड़ा है। स्वामीजी-रेलमें बैठे हुए हम रोज़ कहा करते हैं कि अजमेर मागया, लाहौर भागया, आगरा आगया, परन्तु क्या वास्तबमें ये नगर पाते हैं ? नहीं, यह कथन उपचारक प्रयोग है। प्राकाशका निकल जाना भी उपचारक प्रयोग है। जब जीव ईश्वर होकर सिद्ध शिला पर सदा के लिये लटका रहा | तो ईश्वर जीव क्योंकर होसक्ता है । जीव ईश्वर होजाता है यह कथन विषम है। ईश्वर कहते हैं ऐश्वर्यवाला, परन्त जैनियोंका जीव तो वीतराग होता है Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०० ) जिसके पास कुछ न हो उसे वीतराग कहते हैं । जिसके पास कुछ हो ही नहीं, उसे ईश्वर कैसे कह सकते हैं ? । फ़क़ीरको ईश्वर बतलाना बुद्धिमत्ता नहीं प परमात्मा वाचक जितने शब्द हैं उनके अर्थों से वीतरागका मेल कभी नहीं हो सकता विष्णु शब्द का अर्थ है कि जो सबमें व्यापक हो, एक देशी न हो परन्तु जेभियाँका जीव मुक्तावस्था में शरीर से निकलकर ऊर्द्ध गमन करता हुआ। शिला से जाकर लग जाता है जिससे उसका एक देशी होना स्पष्ट है। जब एकदेशी हुआ तो विष्णु कैसे ? इसी प्रकार महेश और ब्रह्मा आदिकके शब्दार्थ करने से बीतरागके लक्षण नहीं मिलते । यदि बीतराग जीव ब्रह्मा विष्णु महेश परमात्मा वाध्य ईश्वर बन जाता है तो शब्दार्थ कर लक्षणा बतलाओ । कहने मात्र से काम नहीं चलता । वादि गज केसरी जी - यद्यपि आपका यह पूछना कि जीव ईश्वर कैसे हो जाता है ? उसका ईश्वरश्व किनपर है ? और उसके ब्रह्मा विष्णु महेशादि नाम कैसे सम्भव हो सकते हैं ? विषयान्तर है और हमारा प्रश्न आपपर वैसा ही खड़ा है परन्तु आपने जो पूंछा है तो हम उसका भी उत्तर देते हैं । इसकी व्याख्या के अर्थ एक घन्टेकी ज़रूरत है परन्तु पांच मिनिटमें ही जो कुछ हो सकता है यथा साध्य कहते हैं । द्रव्यका लक्षण “गुण समुदायो द्रव्यम्, है और वह जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल इस प्रकार छः हैं । धर्म, अधर्म आकाश और काल इन चार द्रव्यों में स्वाभाविक हो परि मन होता है और शेषके दो जीव और पुद्गलमें स्वाभाविक और वैभावि क दोनों ही । जीव और पुद्गलका परस्पर बन्ध होने से जीव में अशुद्धता होती है। जीवका लक्षण "चेतना लक्षणो जीवः,, चेतना और पुद्गल का “स्पर्शरस गन्धवर्णवत्वं पुद्गलत्वम्, स्पर्श रस गन्ध और वर्ण है । पुद्गल के तेईम विभाग ( Classifications ) हैं जिनमें कि केवल आहार, भाषा, मन, तैजस और कार्माण इन पांच वर्गणाओंका जीव से सम्बन्ध होता है शेष अठारह का नहीं । जिस प्रकार अग्निसे सन्तप्त गर्म लोहे का गोला जलको अपने में खींचकर वाष्परूप कर देता है उसी प्रकार अनादि कर्म के बन्धसे विकारी आत्मा अपने चारित्र गुणकी विभाव रूप परिणति रागद्वेष से मन, बचन, काय द्वारा तीनों लोक में व्याप्त सूक्ष्म कार्माण वर्गणाओं को अपनी ओर आकर्षित कर कर्मरूप परिणमाता है और वह कर्म आत्माके गुणों को आच्छादन और 可 विभावरूप किया करते हैं। जिस प्रकार बोजसे वृक्ष और वृक्षसे बीज हुआ Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०१ ) करता है उसी प्रकार इन रागादि भाव कर्म से द्रव्य कर्म और द्रव्य कर्मसे भांव कर्मकी सन्तान बराबर जारी रहा करती है। यदि आप बीजको ( जो कि अनादिकाल से वीज वनको सन्तान प्रति सन्तान सूपसे बराबर चला श्रा रहा है ) भन डालें तो वह नवीन वृक्ष को कदापि उत्पन्न नहीं कर सकता। उसी प्रकार जब यह जीव अपने रागादिकको नष्ट कर देता है तो इसके नवीन कम्मों का बन्ध नहीं होता और प्राचीन कर्म अपनी स्थिति पूर्ण कर या ध्यानाति द्वारा उदीको प्राप्त होकर प्रात्मासे सम्बन्ध छोड़ जाते हैं और सकल कर्मों से विनमुक्त होकर यह आत्मा मोक्षको प्राप्तकर ईश्वर हो जाता है। इस बातको उत्तर कि ईश्वर ऐश्वर्यवाले को कहते हैं बीतराग होकर परमात्मा का ऐश्वर्य पा है यह है कि मारमा अनन्त गुणों का समुदाय है और वे गुण अनादि कालसे ... ... ... (नोट) वादि गजकेसरी जी इतना ही कह पाये थे कि श्रीमान् रायवहादुर पंडित गोविन्द रामचन्द्र जी खांडेकर ( भूतपूर्व असिष्टैण्ट जडिशल कमिसार कक्षा प्रथम ) आदि प्रतिष्ठित पुरुषों के अनुरोधसे सभापति जी ने वादि गजकेसरी जी को विषयान्तर पक्षका उत्तर देगेसे रोक दिया और स्वामी जी से भी प्रार्थना की कि वह विषयान्तर प्रश्न न करें । स्वामी जी व. धिर होने के कारण ऊंचा सुनते थे अतः आर्यसमाज की ओरके अग्रेसर वावू मिट्ठनलाल जी ने स्वामी जी को कई वार विषयान्तर न जाने तथा वादि गजकेसरी जी के प्रश्नका उत्तर देने की प्रार्थना की । ( प्रकाशक ) * . . इस कारण कि सभापति जी के रोक देने से वादि गज केसरी जी स्वामी दर्शनानन्द जी के इस वार किये हुए समस्त प्रश्नोंका उत्तर न दे सके अतः शेष स्वामी जी के प्रश्नोंका उत्तर पाठकोंके अवलोकनार्थ यहां प्रकाशित किया जाता है। वादि गजकेसरी जी संक्षेपतः यह तो बतला ही चुके हैं कि जीव ईश्वर कैसे हो जाता है अतः अव यह सिद्ध किया जाता है कि जीव ही ईश्वर हो जाता है और उसमें हेतु यह है किः-- ज्ञान गुण केवल जीवमें ही है। कोई जीव स्वल्प जानता है और कोई विशेष और जीवोंके जाननेकी कोई मर्यादा नहीं है क्योंकि जिस बस्तुका ज्ञान प्राज असम्भव समझा जाता है कल ही कोई जीव उसका जायक उत्पन्न हो जाता है इससे यह सिद्ध होता है, कि ऐसे भी जीव होंगे जो कि सर्व पदार्थोंको जानते होंगे क्योंकि यह सर्व पदार्थ जो से Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - ( १०२) __ स्वामी जी-जगत् उसको कहते हैं जो चले । सृष्टि उसे कहते हैं जो सृजी गयी है । चलना और बनना क्रिपासे होता है। क्रिया विना कर्ताके होती नहीं इस लिये सष्टिका कर्ता स्वयं सिद्ध है। कर्ता दो प्रकार के होते हैं यस्वरूप हैं विना किसीके ज्ञानमें आयें रह नहीं सक्त और वह केवल जीव ही हैं जो कि उनको जान सकते हैं। यदि जीवोंसे भिन्न कोई अन्य ऐसा अनादिसे ही व्यक्ति अपेक्षा सर्वज्ञ विशिष्टात्मा मानिये जो कि सब का ज्ञायक हो तो ऐसा विशिष्टात्मा किसी भी युक्ति युक्त प्रमाणसे सिद्ध नहीं होता अतः यह जीव ही सर्वज्ञत्व गुणा युक्त है ऐसा सिद्ध हुआ। यह प्रत्यक्ष देखने में आता है कि जितनी जितनी बीतरागता बढ़ती जाती है उतनी उतनी जानकी शक्ति भी, और इसी कारण प्रत्येक ही मतमें सं. सारके विरक्त पुरुष ही भविष्यवक्ता और विशेष ज्ञानी माने गये हैं। जब ज्ञोनकी वृद्धि वीतरागताके साथ ही होती है तो यह स्वतः सिद्ध है कि जो सर्वथा बीतराग है वही सर्वथा पूर्ण ज्ञानी अर्थात् सर्वज्ञ है। इस कारण यह हेतु जैनियोंके परमात्माओंको सर्वथा सर्वज्ञ सिद्ध कर रहा है जो कि परमात्माका मुख्य गुण है ॥ स्वामी जी का यह कथन ठीक नहीं कि जिसके पास कुछ न हो उस को वीतराग कहते हैं क्योंकि यदि वीतरागका यही लक्षण माना जावे तो जिनके पास अपने पूर्व जन्मार्जित पापोंसे कुछ नहीं ऐसे भूखों मरनेवाले महा कङ्गले भी वीतराग सिद्ध होंगे। वीतरागका अर्थ है बैराग्य या राग द्वेषका अभाव और यह जीवको हितकर है तभी तो आपके गुरु जी महाराजने अपने सत्यार्थ प्रकाशके पांचवें समुल्लासमें सन्यासियोंका विशेष धर्म मनुस्मृतिके छठे अध्यायके आधार पर वर्णन करते हुए “इन्द्रियाणां निरोधेन रागद्वेष क्षयेणच । अहिंसयाच भूतानाममृतत्वाय कल्पते ॥ इ. न्द्रियोंको अधर्माचरणसे रोक रागद्वेषको छोड़ना वतलाया है और सप्तम समुल्लासमें स्तुति और प्रार्थनाके प्रकरणमें उपासना योगका दूसरा अङ्ग व. र्णन करते हुए धारण करनेका उपदेश दिया है। यदि वीतरागता कुछ पास न होनेसे ही हो सकती है तो मरमुक्खे परम सन्यासी और ईश्वरोपासना करने वाले हैं ऐसा मानना होगा। अतः वीतरागका अर्थ जैसा कि स्वामी जी करते हैं फकीर फुकरे अर्थात कुछ पास न रखने वाले महा क. ङ्गले नहीं वरन् किसी भी पदार्थमें रागद्वेष न रखने वाले ( महान् विरक्त) Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०३ ) . सस्वाभाविक और दूसरा नियम पूर्वक । हर एक वस्तु संयोग युक्त है इस लिये संयोगका देने वाला कर्ता होगा। हर एक फल फन पत्ते मादिक व. है। रही यह वात कि वीतराग होनेपर उस ईश्वरका ऐश्वर्य क्या ? सो यह पहिले ही बतलाया जा चुका है कि जीव द्रव्य अनन्त गुणोंका समुदाय है और वे उसकी संसारावस्थामें अनादि कर्म सम्बन्धके कारण वि. कारी हैं अतः यह सिद्ध ही है वे जीवके गुण होने पर भी जीवके आधि. पल्यसै रहित हैं अर्थात् शुद्ध रूप ( जीवके अनुसार ) न परिणम कर क. र्मानुसार परिणमित हैं। जिस समय कर्मका अभाव हो जाता है जीवके उन्हीं गुखोंका शुद्ध परिणमम होने लगता है अर्थात् वे जीवके आधिपत्यमें ( जैसा चाहिये वैसा ) उसके अनुसार परिणामने लगते हैं अतः वीतराग परमात्माका ऐश्वर्य उसके समस्त नात्मिक गुणोंपर है क्योंकि अन्य द्रव्य का परिणमन अन्य द्रव्यके आधीन कदापि नहीं। इस कारण जगत् वन्य वीतराग परमात्माका ऐश्वर्य उनके अात्मिक गुण हैं। सकल और निकल दोनों प्रकारके परमात्मा सर्वज्ञ हैं अतः वह श्र. प्रमै ज्ञानकी अपेक्षा सर्वत्र व्यापक होनेसे विष्णु नामसे पुकारे जाते हैं क्योंकि उनका ज्ञान समस्त पदार्थोंको विषय भूत करता है अर्थात् समस्त पदार्थों में व्यापक है । मोक्ष मार्ग और समस्त वस्तुओंके यथार्थ स्वरुपका विधान (प्रगट) करनेसे परमात्माका नाम ब्रह्मा है । समस्त ऐश्वर्य वालों में श्रेष्ठ होनेसे उसी परमात्माका नाम महेश है । यदि ब्रह्मा विष्णु महेश शब्दका यह अर्थ न लेकर यथाक्रम संसारका वनाने वाला, संसारका पालन करनेवाला और संसारका नाश करने वाला लो तो वह भी परमात्मा में भूत नैगम नय (पेन्शन प्राप्त तहसीलदारको तहसीलदार कहनेकी. रीति ) से घटता हैं क्योंकि परमात्माने अपनी पूर्व संसारावस्था में अपना संसार (चतुर्गति परिभ्रमण ) अनादिकालसे स्वयंरचा था अतः वह निज संसारोत्पत्तिसे ब्रह्मा और अपने उस अनादि संसारका निज रागद्वेष विभावोंसे वराबर ( मोक्ष प्राप्त कर लेने तक ) पालन करते रहनेके कारण वि. गु और ( मोक्ष प्राप्त कर लेने पर ) उसका नाशकर देनेसे महेश नाम वाले हैं। इत्यादि अनेक रीतियोंसे यह ही नहीं वरन् परमात्मा वापत समस्त नाम सिद्ध किये जा सकते हैं। (प्रकाशक ) ... Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ( १०४ ) -- स्तुमें जो वनावट है वह नियम पूर्वक कर्ताका लक्ष्य करा रही है * ग्रहण प्रादिक नियम पूर्वक होता है । क्रियाका कर्ता विना चेतन के हो नहीं सकता इस लिये सिद्ध है कि सृष्टिका कर्ता चेतन ईश्वर है । वादि गजकेसरी जी- - इन प्रथम ही कह चुके हैं कि गुणोंके समुदाय को द्रव्य कहते हैं और प्रत्येक गुण क्षण प्रतिक्षण अवस्था से अवस्थान्तर हुआ करता है । षट् द्रव्य ( जीव पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल ) का समुदाय ही जगत् है । जब कि प्रत्येक ही द्रव्य प्रतिक्षण अवस्था से अवस्थान्तर होता है तो उसका समूह रूप जगत् भी संदेश चला ( रूप बदला ) करता है । जब कि जगतकी समस्त वस्तुओं में प्रतिशय अवस्था मे संवत्यान्तर होने में पूर्व क्रमवर्ती पर्यायका नाश और उत्तर क्रमवर्ती पर्याय उत्पाद होता है तो समस्त वस्तुओं के समूह रूप जगत्को उसके समस्त वस्तुकों में नवीन पर्यायोंका प्रतिक्षण सृजन ( उत्पाद ) होने की अपेक्षा से इसको सृष्टि भी कह सकते हैं । हम मानते हैं कि द्रव्योंके रूपान्तर होने और उनकी नवीन पर्यायों के उत्पाद में क्रिया और परिणाम या केवल परिणाम होता है । । पर यह नवीन पर्यायोंके उत्पादकी क्रिया और परिणाम या केबल परिणाम शुद्ध जीव शुद्ध पुद्गल ( परमाणु ) धर्म अधर्म, आकाश और काल में तो स्व स्वरूपानुसार स्वाभाविक काल द्रव्य के उदासीन कारण पनेसे होता है और वन्धावस्थाको प्राप्त अशुद्ध जीव और अशुद्ध पुद्गल ( स्कन्ध ) में वैभाविक रीति से सन्य वाह्य निमित्तानुसार और काल द्रव्यके उदासीन कारणपनेसे । अतः प्रत्येक शुद्ध द्रव्य स्वयं निन क्रिया और परिणाम या केवल परिणामका कर्ता है और * पाठकोंको स्मरण होगा कि प्रथम ही स्वामी जी उपनिषद् वाक्य "स्वाभाविकज्ञानवल किया च" का हवाला देकर ईश्वरको स्वाभाविक कर्त्ता सिद्ध करते थे परन्तु अब आप दो प्रकारके ( एक स्वाभाविक और दूसरा नियम पूर्वक ) कर्त्ता कहकर उसको नियमपूर्वक कर्त्ता सिद्ध करते हैं सो ठीक ही है कि समझ जानेपर बुद्धिमानोंको हठ करना कदापि योग्य नहीं । ( प्रकाशक ) जीव और पुद्गल इन दो द्रव्योंमें तो क्रिया और परिणाम दोनों ही हैं और शेवकी चार धर्म, अधर्म, आकाश और काल द्रव्योंमें केवल परिणाम ही । ( प्रकाशक ) Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०५ ) द्रव्यों जीवके जितने अंश कर्म से आच्छादित हैं उतने अंशों की क्रिया और परिणाम या केवल परिणामका कर्ता कर्म और जितने अंश कर्मों से प्राच्छादित नहीं उतने अंशोंकी क्रिया और परिणामका कर्ता जीव है और पुद्गल के स्कन्धमें वही पुद्गल परमाणु वैभाविक रीति से क्रिया और परिणमन करते हैं । अतः किसी भी द्रव्य के क्रिया और परिणाम या केवल परिणाम में (चाहे वह क्रिया और परिणाम या केवल परिणाम स्वाभाविक हो या वैभाविक ) -आपके माने हुए सृष्टिकर्ता ईश्वर के निमित्त ( सहायता ) की कोई आवश्यकता नहीं है और न ऐना निमित्त कारण ईश्वर कोई है ही । यदि थोड़ी देरको आपके ही कथनानुसार आपका ईश्वर सृष्टिकर्ता मान लिया जाय तो वह आपके बतलाए हुए दो प्रकार के (एक स्वाभाविक और दूसरे नियमपूर्वक ) कर्ताओं में से सृष्टिकर्तृत्त्व के विरोधी गुणों के कारण न तो स्वाभाविक ही कर्ता सिद्ध होता है और जगत् में हजारों अनियम पूर्वक कार्य होने से न नियम पूर्वक कर्त्ता हो । संयोग दो प्रकार के होते हैं एक तो एकत्व बुद्धिजनरु बन्धसंयोग यथा वृक्षके एक पत्तेमें परमाणुओं का और दूसरा पृथक बुद्धिजनक प्रबन्ध संयोग यथा दण्डी और दण्डका । पर इन दोनों प्रकारके संयोगों में आपके ईश्वरकी कोई भी आवश्यकता नहीं। हर एक फन पत्ता किमी नियम पूर्वक कर्ताका वनाया हुआ है * कार्य होने से घटपटादिवत, इसकी सिद्धिमें यदि कार्यत्त्व ही हेतु मानाजाय तो यह पूर्व कथित किसी मनुष्य के चार श्यामवर्ण पुत्रों को देखकर उसके पांचवें गर्भस्थ पुत्र को भी श्यामवर्ण मा. * हरएक फूल पत्ता किसी नियम पूर्वक कर्त्ताका बनाया या पैदा किया हुआ है ऐसा नियम नहीं क्योंकि स्वामी दयानन्द जी सरस्वती महाराज अपने सत्यार्थप्रकाश के अष्टम समुल्लास में पृष्ठ २२१ पर यह लिखते हैं कि "कहीं कहीं जड़ के निमित्तसे जड़ भी वन और बिगड़ भी जाता है जैसे परमेश्वरके रचित वीज पृथिवीमें गिरने और जल पानेसे वृक्षाकार हो जाते हैं और अग्नि आदि जड़के संयोग से विगड़ भी जाते हैं" । रही परमेश्वर के रचित वीज और इसके आगेकी लाइन 'परन्तु इनका नियमपूर्वक वनना वा विगड़ना परमेश्वर और जीवके आधीन है' की वात सो साध्य है क्योंकि जब ऐसे रचयिता परमात्माकी सत्ता ही लक्षण और प्रमाणोंसे श्रसिद्ध है और विना चेतन कत्तोके हीं अनेक नियम पूर्वक कार्य होना प्रत्यक्ष है तो वैसा कैसे माना का सकता है ? ( प्रकाशक ) १४ Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०६ ). नने के समान शडित व्यभिचारी हेत्वाभास है क्रिया चेतन और अचेतन दोनों ही पदा होती ही और अनेक कार्य इस जगत् में चेतन कर्ता के किये हुए होने और भने अचेलनके भी। प्रथा जो बने चेतन कर्ता के बोनेसे होते हैं और घास फम विना शेतन कर्ता हो। हमारा प्रश्न अभी आप पर वैसाही खड़ाहै ॥ ... स्वामीजी-पण्डितजीने सृष्टिकर्ता मानलिया । घास फस आदि सूर्यके पाकर्षण तथा पानीके हेतुसे होते हैं। यह मैं पहिले ही कहचुका हूं। विना कर्ताको सृष्टिका एक उदाहरण दीजिये। घड़ी विना चलाये नहीं चलती। ईश्वरके सब काम नियमपूर्वक हैं। अन्दरको गतिमें दिशाभेद नहीं होता, प. रन्तु वह क्रिया चक्कर में होती है । ग्रहण आदिक नियमपूर्वक कर्ताका लक्ष्य करा रहे हैं। इसका मापने उत्तर नहीं दिया ॥ वादिगजकेसरीजी-हमने आपका सृष्टिकर्ता ईश्वर कदापि नहीं माना। जब कि 'घास फूस आदि सूर्यके आकर्षण तथा पानी के हेतुसे होते हैं। यह श्राप भी मानते हैं तो इन घास फस प्रादिके कर्ता और कारण यही सूर्यादि हैं..कि-कोई ईश्वर । पर्व ही कई वार कहा जा चुका है कि कार्यको कारण के साथ व्याप्ति है न कि आपके चैतन्य कर्ताके साथ । चैतन्य कर्ता के विना कार्यका उदाहरमा यो वनस्पति प्रादिका उत्पन्न होना भी है। जिस प्रकार घही किसी चेतन घहीसाजको चलायी हुई चलती है उसी प्रकार यह संसार भी किसी ईश्वरका चलाया चलता है इसमें हेतु क्या है ? यदि कार्यत्त्व ही तो वह पूर्व कथित हमारे मित्रके गर्भस्थ पञ्चम पुत्रके श्याम वर्ण होनेके उदा. हरण समान शख़ित व्यभिचारी है । आपके ईश्वरके सब काम नियमपूर्वक होते हैं, आपकी इस कल्पनाका खण्डन पूर्व ही कई वार किया जा चुका है और अब फिर भी किया जाता है कि संसार के सब काम नियमपूर्वक नहीं क्योंकि कहीं वर्षा कितने ही दिन होती है और कहीं कितने ही दिन और कभी विशेष और कभी न्यून और कभी आवश्यकता पर विल्कुल नहीं आदि । जब कि भिन्न भिन्न कारण अवस्था को प्राप्त परमाणु प्रलय कालमें एकही स्थान पर नहीं वरन् आपके ईश्वर में समस्त व्याप्त हैं तो उनमें परस्पर दिशा भेद अवश्य है चाहे आप उसमें क्रिया भले ही चक्करसे माने । ग्रहमा प्रादिके नियम पूर्वक होने के कारण सूर्य्य आदिकको नियम पूर्वक गति आदि हैं न कि आपका माना ईश्वर । यदि ईश्वरको ही कारण मानिये तो अन्वय व्यतिरेक सम्बन्धके अभावमें उसकी व्याप्ति नहीं बनती और न उसमें सृष्टि और प्रलयके दो विरोधी गुण ही सम्भावित होते हैं। Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०७ ) - स्वामी जी-एक पदार्थ की दो मुख्तलिफ़ क्रिया हो सकती हैं। एक जीव जिसके स्वभावमें गर्मी अधिक है उसको सूर्य से दुःख होता है और जिसके स्वभावमें सर्दी अधिक है उसको सुख होता है। इसमें सूर्य के दी कार्य नहीं, परन्तु जीवके कर्मों के स्वभावसे सुख दुःख होता है। अन्दरको क्रियाके लिये दिशाका भेद नहीं होता। जो जिसके सामने आया मिल गया। हांडी में चा. वल पकते हैं, एक दूसरेसे मिल जाते हैं । यह नहीं होता कि चावल सब एकही दिशामें जाते हों। प्रागकी हरकतसे चावल मिले, अतएव भागका स्वभाव संयोग वियोग हुआ * । प्रागकी हरकत स्वाभाविक है। ईश्वर बा. हरसे हरकत नहीं देता । वह भागके समान अन्दरसे हरकत देता है, क्योंकि वह परमाणु परमाणु में व्याप्त है। हरकत संयोग वियोगमें रहती है। हर. कत जारी नहीं सदा बनी रहती है। हरकतके दो फन्न प्रत्यक्ष हैं सूर्य की एक क्रियाके दो पाल सुख और दुःख दोनों हैं। * एक वस्तुमें दो विरोधी स्वभाव नहीं हो सकते ऐसा स्वामीजीको भी इष्ट है और इसका प्रतिपादन उन्होंने अपने वैदिक यन्त्रालयमें मुद्रित "सांख्य दर्शन" के ०४ सूत्र "लभ यथाध्यसत्करत्वम् के भाषानुवाद में प्रश्नोत्तरों द्वारा किया है। आप स्वयं प्रश्न करते हैं कि “एक वस्तुमें दो विरुद्ध स्वभाव हो नहीं सकते । यदि रचना ईश्वरका स्वभाव मानोगे तो विनाश किसका स्वभाव मानोगे। अपने इसी प्रश्नका उत्तर - आप स्वयं लिखते हैं कि “यह शङ्का परतन्त्र और अचेतनमें हो सकती है क्योंकि कर्ता स्वतन्त्र होता है और स्वतन्त्र उसे कहते हैं जिसमें करने न करने और उलटा करनेकी सामर्थ्य हो”।यद्यपि आपने यहां अंप्रत्यक्ष रीतिसे सृष्टि कर्तृत्त्व ईश्वरका स्वभाव मान लिया है और अप्रत्यक्ष ही क्यों वरन इन प्रश्नों के ऊपर आप स्वयं - अपने इन शब्दोंसे कि “ईश्वर इन दोनों ( मुक्त और वद्ध) अवस्थाओंसे पृथक् है और जगत्का करना उसका स्वभाव है इस लिये इच्छाकी आवश्यकता नहीं। प्रत्यक्ष रीतिसे भी स्वीकार करते हैं कि सृष्टि कर्तृत्त्व ईश्वरका स्वभाव है ! परन्तु यदि हम थोड़ी देरको उनके "जगतका करना उसका ( ईश्वरका ) स्वभाव है" इन शब्दों पर ध्यान न दें और स्वयं ही उठाये हुए आपके प्रश्नके समाधानसे संतोष मानले तो भी यह निश्चय है कि भागका स्वभाव संयोम वियोग नहीं हो सकता क्योंकि आपके लेखानुसार ही ये दोनों विरोधी गुण जड़ और परतन्त्र पागके स्वभावमें कदापि नहीं हो सकते । (प्रकाशक ): Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११८ ) वादि गजकेसरी जो प्रथम हो आपने कहा था कि 'संयोग और वियोग दो विरुद्ध क्रियायें नहीं वरन क्रिया के फल हैं क्रिया के दो फल होते हैं संयोग और वियोग' और अब आप कहते हैं कि 'एक पदार्थ की दो मुख्तलिफ क्रिया हो सकती हैं, और छागे चलकर आप कहते हैं कि 'हरकत के दो फल प्रत्यक्ष हैं' यह परस्परस्ववचन वाधितपना क्यों ? यह हम मानते हैं कि एक अशुद्ध द्रव्यमें वाह्य प्र वल उपवधान से भिन्न प्रकारको क्रिया और परिणाम हो सकते हैं पर वैपा होना आपके शुद्ध अखण्ड एक रस ईश्वर में सर्वथा असम्भव है । आपका दूष्टान्त विषम है क्योंकि सूर्य्यका स्वभाव गर्मी देना है न कि किसीको सुख दुख देना । सूर्य्यका दृष्टान्त बिल्कुन विरुद्ध है क्योंकि सूर्य्य गर्मी देने में उदासीन निमित्त कारण है और परमात्माको आप गति देने में प्रेरक कारण मानते हैं । जब तक परमात्माको सत्ता ही प्रसिद्ध है तब तक आप उसको उदासीन निमित्त कारण नहीं मान सकते। अतः दृष्टान्त किसी अंश में नहीं मिलता । क्रिया चाहे अन्दर से दी गयी हो या बाहर से पर उसमें आपको दिशा भेद श्रवश्य मानना पड़ेगा और आपके अन्दर और बाहर यह शब्द ही ऊपर नीचेकै समान: दिशा भेद प्रगट करते हैं । जब कि आपका परमेश्वर परमा में भीतर और बाहर सर्वत्र व्यापक है तथा अखण्ड और एक रस है तो वह केवल भीतर से ही हरकत नहीं दे सकता क्योंकि कहीं कैसी और कहीं कैपी उसकी अवस्था होने से वह अखण्ड और एक रस कदापि नहीं रह स कता । यदि थोड़ी देरको आपकी भीतर से ही हरकत मान ली जाय तो भी सत्रको एकसी हरकत मिलनेपर उनमें संयोग वियोग कदापि नहीं हो स कता क्योंकि यदि हो सकता होता तो प्रलयकाल में भी उम क्रियाके सद्भाव में वैसा वरावर होता रहता । श्रागको अन्दरूनी हरकत से हांडी में चावल पक्रनेका छापका दृष्टान्त विल्कुल विपरीत है क्योंकि दृष्टान्त में अग्गिके खण्ड द्रव्य होने व सत्र ओर से हरकत न देनेके कारण उसके परमाणुओं में निमि तानुसार भिन्न भिन्न देशान्तर प्राप्तिसे चावलोंका भिन्न भिन्न दिशामें गमन होता है और दाष्टन्ति में ईश्वर के अखण्ड एक रस सर्व व्यापी होने से परमाणुओंका वेषा होना असंभव है। चावलों में संयोग और वियोग दोनों होने के कारण उनमें अग्नि की तारतम्यता तथा जलादिके व्यवधान हैं । जब कि आपका ईश्वर एक रन और सर्वव्यापी होने से परमाणुओं के भीतर और बाहर सर्वत्र व्याप्त है तो फिर वह भीतर से ही क्यों हरकत देता है? यह हम Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०८ ) मानते हैं कि हरकत संयोग और वियोग में होती है पर एक हरकत का एक ही फल हो सकता है। हरकत देनेवाले के अभाव में हरकत का भी प्रभाव होजाता है अतः यह कहना ठीक नहीं कि हरकत सदा बनी रहती है। आपके वेदान्तानुसार संयोग और वियोग दो बिरुद्ध गुण (फल) होने के कारण एक क्रियाके फल नहीं हो सकते । जब कि किमी समय में इस संसारका अमात्र, आपके माने हुए ईश्वरको सत्ता, उसके क्रियाको प्रावश्यकता, अन्वय व्यतिरेक सम्बन्ध न होनेसे उस क्रिया में परमाणुओं को हरकत देना आदि सिद्ध नहीं होते तो पापका ईश्वर कैसे सृष्टिकर्ता माना जा सकता है ? साइम्स भी ईश्वरको सृष्टिकर्ता महमें मानता । वह पदार्थों के स्वभावसे ही सष्टि का सब काम चलना मानता है। हमारा प्रश्न मार्यपर ज्योंका त्यों बड़ा है। - स्वामीजी-मुख दुःख अपने स्वभावानुसार पाये जाते हैं। साइंस भी प्रत्येक वस्तुका हेतु बतलाता है। जिससे सृष्टिका हेतु परमात्मा सिद्ध होता है। अग्निका उदाहरण विषम नहीं । उदाहरस धर्ममें दिया जाता है। अग्नि परिमाणुओं में व्या है वह चारों ओरसे हरकत देता है। ईश्वर भी सारे देशमें व्याप्त है। देगचेमें गर्मी एकदेशी नहीं । ब्रह्माण्ड में परमात्मा भी एकदेशी नहीं, इसलिये अग्निका उदाहरण विषम नहीं। माप धान और चावलका दृष्टान्त जो कि भिन्न भिन्न समयमें पैदा होते हैं अनादिके साथ कैसे देदिया करते हैं। चावलोंको हरकत जो मिलती है वह भी अन्दरकी हरकत है और सष्टिकी हरकत भी परमात्माके अन्दरसे है।.. वादि गजकेसरी गो-सूर्यको गर्मी देने रूप किपासे जीवोंको मुख दुस प्राप्त होनेका खण्डन हम पूर्व ही कर चुके हैं। हम मानते हैं कि साइन्स प्रत्येक वस्तुका हेतु अपनी पहुंचके अनुसार बतलाता है पर उससे सृष्टिका हेतु परमात्मा कैसे सिद्ध होता है सो पापही जानते होंगे। अग्निका उदा. हरविल्कुल विषम है क्योंकि अग्नि असंख्यात परमाणु वाला खगड पदार्थ और ईश्वर शुद्ध एक स्त्र प्रखण्ड द्रव्य है। प्रथम मापने कहा था कि 'ईवर वाहरसे हरकत नहीं देता। वह भागके समान अन्दरसे हरकत देता है और अब भाप कहते हैं कि 'अग्नि परमाणुओंमें व्याप्त है वह चारों ओर हरकत देता है। इन दो परस्पा मेरी मां और बांझके समान विरुद्ध वाक्पों में आपका कोन सा वापस प्रमाण माना जाय । धान और चावलका दृष्टान्त इन कर्ममल युक्त जीवके नाम पर्यायों में उत्पन्न होनेके विषय में देते हैं जो कि ठीक हो Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११० ) है. क्योंकि जब तक चालके ऊपर धानका डिल्मा रहता है तभी तक चावल बराबर सम्पर्क होता रहता है और उसके दूर हो जानेपर कदापि नहीं उसी प्रकार जब तक जीव के ऊपर कर्मरूप दिल्मा लगा हुआ है तभी तक वह जन्म ग्रहण करता है और उनके अभाव में कदापि नहीं । श्रमी छापने कहा था कि अग्नि चारों ओर से हरकत देता है और वाकड़ते हैं कि 'चावलोंको हरकत जो मिलती है वह भी अन्दरकी हरकत है । इन दोनों में ठोक कौन ? महात्मन् | जरा विचार कर हमारे भोंक उत्तरः दीजिये । स्वामीजी- -इच्छा कर्मके, निमसे उत्पन होती है इसलिये इस घर जाती है । अग्नि में इच्छा-विषम है । अनि एक है, दो नहीं । वहां के धर्क्ष्य नहीं हो वहां वैषम्य नहीं । जीब और ईश्वर तिसे विभु हैं । परमह बहुत हैं, परन्तु श्रग्नि एक है। वैधर्म्यका विषय खुश है अतः वैषम्य नहीं गति देने की ईश्वर और छग्नि दोनों में एकता है । गति या तो अग्निसे प्रायेगी वा ईश्वरसे। इसी लिये अग्निम शब्द ब्रह्म के नाम में भी श्राता है । अग्नि और ईश्वर के धर्म विषम हैं यह किसी शास्त्र से सिद्ध करिये । स्वामी दर्शनानन्दजी के इतना कह चुकने पर पांच बजने में पांच मिनिट शेष रहे । शास्त्रार्थ पांच बजे तक होना निश्चित हुआ था और यह शेष पांच श्रार्यसमाजकी मिनिट नियमानुसार बादि गजकेसरीजीके हिस्से के थे परन्तु ओरके प्रग्रेवर बाबू मिटूनलालजी वकीलने यह पांच मिनिट सबको धन्यवाद आदि देने को अपने अर्थ मांगे। यद्यपि आफ्से यह कहा गया कि वादि गजकेशरीजीके कह चुकने पर आप पांच नहीं वरन दस मिनिट अपने अर्थ ले सकते हैं क्योंकि ये पांच मिनिट नियमानुसार वादि गजकेसरीजीके हिस्से के हैं परन्तु आपको इतना धैर्य्य न हुआ और आपने यही पांच मिनिट अपने अर्थ देने को कईबार ढूंढ़ अनुरोध किया। आपके ऐसा करने से यह प्रतीत होता था और है कि अन्तिम वक्तव्य स्वामीजीका ही रहे और पव्लिक की यह बात प्रगट हो कि स्वामीजीका प्रश्न वादि गजकेसरीजो पर खड़ा रहा और वादि गजकेसरीजीने जो कुछ प्रक्षेिप किया था उसकी उत्तर स्वामीजीने दे दिया क्योंकि यदि ऐसा उनका अभिप्राय न होता तो वादिगजकेसरीजीके हिस्सेके ही पांच मिनिट क्यों लेते उनके वाद के मिनिटों में आपको क्या हानि थी । यद्यपि हम लोग बाब साहबकी इस चालको भली भांति जानते थे प रन्तु यह जानकर कि पब्लिक ( जैसा कि बाबू साहब समझते हैं ) इतनी Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - ( १११ ) मूर्ख नहीं कि इस जरासी बातसे अपने उस प्रभावको जो किवादि मनकेसरीजीके युक्तियोंसे उसपर पड़ा था बदल दे बाबू माहबके इस प्राग्रहको स्वीकार कर लिया और बादि गजके मरीजी जो खामीजीकी युक्तियोंका खराखन करनेके अर्थ खड़े हुए थे वैठ गये। - यद्यपि वादि गजकेसरीजी (अपने हिस्सेके पांच मिनिट बाब मिटुनलाल जी वकील के लेलेनेके कारण) स्वामीजी के इन अन्तिम प्राक्षेपों और प्रश्नों का उत्तर न दे सके परन्तु सर्वसाधारणके हितार्थ उन शाहूपोंका समाधान और प्रश्नोंका उत्तर अब प्रकाशित किया जाता है। स्वामीजी जो यह कहते हैं कि 'इच्छा कर्मके निमित्त से उत्पन होती है इस लिये इधर उधर जाती हैं' सो बिल्कुल असम्बन्ध है । झाला जी कि आपने इसे क्यों कहा और इच्छासे आपको किसकी इच्छा अभीष्ट. है? यदि जोधकी तो उसका यहां क्या सम्बन्ध है ? इत्यादि । अग्निमें इच्छा विषम बतलाना अत्यन्त हास्यास्पद है क्योंकि इच्छा चैतन्यमें होती है न कि जहमें । आपके.न्याय दर्शनने अपने अध्याय १ प्रान्हिक १ सूत्र १० “इच्छा देषप्रयत्नसुख दुःखजानान्यात्मनोलिङ्गमिति,, और वैशेषिक दर्शन अध्याय ३ माहिक सूत्र में "प्राणापाननिमेषोन्मेषजीवनमनोगतीन्द्रियान्तर्विकाराःसुख दुःखेच्छा षप्रयत्नाश्चात्मनोलिङ्गानि,, में इच्छाको प्रात्माका लिङ्ग ( जिसको कि आपके गुरूजी महाराज अपने सत्यार्थप्रकाशमें गण कहते हैं) माना है। वैशेषिक दर्शन अपने अध्याय २ प्राहिक १ सूत्र ३ में अग्निका लिक "तेजो रूपस्पर्शवत्" रूप और स्पर्श कहता है न कि इच्छा। मालूम नहीं कि अग्नि मैं विषम इच्छा कहते हुए स्वामीजी किस अवस्था में थे । स्वामी जी जो अग्नि और ईश्वर के धर्मों को एक होने और गति देनेसे एकमा मानते हैं सो भी ठीक नहीं क्योंकि अग्नि भिन्न भिन्न परमाणुवाला खण्ड द्रव्य और सबको गति न देने वाला है और ईश्वर आपके मन्तव्यानमार एक अखण्ड द्रव्य और सबको मति देने वाला है प्रतः बैधर्म्य होनेसे वैषम्यता स्वतः सिद्ध है। अग्नि के परमाणु बहुत होने पर भी वह ईश्वर के समान एक (अखण्ड) द्रव्य है ऐसा कैसे माना जा सकता है। प्रथम श्राप कहते थे कि वह वैधयं नहीं व बैषम्य नहीं, और अब आप कहते हैं कि 'वैधयंका विषय एक है प्रत वैषम्य नहीं. इन दोनों बातों में कौनसी बात ठीक है। यदि वैधयंकाःवि. षय किसी मुख्य धर्ममें ही हुआ तो फिर स्वामीजीके दृष्टान्तसे दान्ति केसे Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११२ ) मिलकर उनके पक्षको स्पष्ट कर सकेगा । प्रथम तो यह नियम नहीं कि गति अग्निसे ही मिले क्योंकि जल, वायु, मनुष्य प्रादि अनेक गति देते हैं । यदि दुर्जन तोष न्याय से अग्निसे हो गति मानी जाय तो फिर जब गति श्रग्नि ही देती है तो फिर आपके ब्रह्मकी क्या आवश्यकता है यदि अग्निमें गति ब्रह्मके द्वारा मानो तो इसमें हेतु क्या क्योंकि जब तक आपके सृष्टिकर्ता ब्रह्मको सत्ता, समस्त वस्तुओं के कार्य्य करने में उनकी छावश्यकता, उपमें गति देनेकी शक्ति और अन्वयव्यतिरेक सम्बन्ध सिद्ध न हो तब कैसे माना जा सकता है। अग्नि और ईश्वर के धर्म विषम हैं क्योंकि अग्नि खण्ड द्रव्य अनेक .परमाणुओं वाला, जड़, अशुद्ध और अनेक रस है और इससे बिरुद्ध ईश्वर अखण्ड द्रव्य एक, चेतन, शुद्ध और एक रस है । इत्यादि । तवैष बाबू मिट्ठनलालजी वकीलने आर्य समाजकी ओर से श्री जैन तत्त्व प्र काशिनी सभा, सर्वसाधारण और गवर्नमेण्ट को धन्यवाद दिया और जैन स माजको प्रोरसे चन्द्रसेनजी जैन वैद्यने स्वामीजी, पटिज़क और सम्राट व स माझी तथा राज्य के समस्त अधिकारियों का आभार माना । सभापतिजीने अपनी उपसंहार वक्तृकृतामें सबको धन्यबाद देते हुए शान्ति से निष्पक्ष होकर शास्त्रार्थका परिणाम निकालने की प्रार्थना की और इतने जन समुदाय में शास्त्राका कार्य निर्विघ्न समाप्त होने पर हर्ष प्रगट करते हुए सानन्द सभा विसर्जित की । चन्द्रसेन जैन वैद्य, मन्त्री श्री जैन तत्त्वप्रकाशिनी सभा set परिशिष्ट नम्बर “ख” । मौखिक शास्त्रार्थ - - इटावा । जो श्रोत म्यायाचार्य पंडित माणिकचन्द जी जैन द्वारा श्री जैन तत्व प्रकाशिनी सभम और सिकन्दराबाद गुरुकुल के अध्यापक पंडित यज्ञदत्त जी शास्त्रो बाय्र्यमें शनिवार ६ जुलाई सन् १९१२ ईश्वीको रात्रिके १०॥ बजे से १२॥ बजे तक स्थान गोदों की नशियां में हजारों लोगों के समक्ष श्रीमान् स्याद्वाद्वारिधि वादि यज केसरी पंडित गोपालदास जी वरैय्या जैनके सभापतिश्व में हुआ । Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११३ ) शास्त्रीजी — ईश्वरी जगतः कर्ता पितामन्तरेण यथा न पुत्रोत्पत्तिस्तथैवेश्वदेण' बिना कथं जगति कार्याणि उत्पद्यन्ते । चित्यादिकं कर्तृन्ये कार्यत्वाद् घटवदित्यनुमानेनापि ईश्वरं साधयामः । ( भावार्थ ) ईश्वर जगत् का कर्ता है। जैसे कि बिना पिता के पुत्र उत्प न नहीं होता इसी तरह बिना ईश्वर के संसार में कोई. भो कार्य उत्पन्न नहीं हो सक्ता । पृथ्वी प्रादिक कर्ता को बनाई हुई हैं कार्य होने से घड़े के समान इस अनुमानसे भी ईश्वरको सिद्धि होती है ॥ - न्यायाचार्य्यजी — ईश्वर सहत्रे यदनुमानं प्रमाणत्वेनाभिप्रेतं तस्य चोपतिर्व्याप्तिज्ञानाद्भवेद् व्याप्तिज्ञानं च भवतां मिथ्याज्ञानं न मिथ्याज्ञानेन न खस्यगनुमानोत्पत्तिर्भविष्यति किंवा स्मिन्ननुमाने सत्प्रतिपक्षोहेतुः विश्यङ्कुरःदिकं कर्त्रजन्यं शरीराजन्यत्वादाकाशवत् अथच सृष्ट्यादौ यूतां पुरुषाणां पितर मन्तराऽपि उत्पत्तिरतो यथा पितरमन्तरा न पुत्रोत्पत्तिरिति दृष्टान्ताभासोऽयम् । में ( भावार्थ ) ईश्वरकी सज़ा-साधने में जो अनुमान प्रमाण आपने दिया अनुमान की उत्पत्ति व्याप्ति ज्ञानसे हो सकती है और व्याप्ति ज्ञान आपके यहां मिथ्याज्ञान में माना है "मिथ्या ज्ञानं त्रिविधं संशय विपर्यय तर्क भेदात् " मिथ्या व्याप्ति ज्ञानसे प्रमाण भूल अनुमान की उत्पत्ति नहीं हो सकती । आपके दिये हुये अनुमान में हेतु सत्प्रतिपक्ष भी है क्योंकि पृथ्वी आदिक किसी कर्त्ताके बनाये हुये नहीं हैं क्योंकि संसार बुद्धिमान् कर्त्ता से कार्य जितनें देखे जाते हैं सो शरीर सहित कर्त्ताके बने हैं पृथ्वी आदिका कोई शरीरधारी कर्त्ता दीखता नहीं अतः ये कर्त्ता के बनाये हुये नहीं है । कार्य को कारण मात्र से व्याप्ति है कर्ता से नहीं और श्रापने पिता के बिना पुत्रको उत्पत्ति नहीं होती यह दृष्टान्त दिया सो भी ठीक नहीं है क्योंकि सृष्टिकी आदिमें नवीन युत्रा पुरुष उछलते कूदते छापने ही विना पिताके पैदा हुये माने हैं ॥ शास्त्री जी - यद्भवद्भिः प्रतिपादितं तत्सम्यक् । सत्प्रतिपक्षोक्षेषो नास्ति ईश्वरः सर्वशक्तिमान् । विना पद्भ्यां गच्छति कर्णाः शृ सोति स्वीक्रिय ले चास्माभिः ( मावार्थ) जो आपने कहा सो ठीक है । सत्प्रतिपक्ष दोष नहीं है क्योंकि ईश्वर सर्व शक्तिमान् है । विना पैरों के चलता है विना कानोंके सुनता है ऐसा हम मानते हैं । १५ Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९४ ) mamimaraemmmmmmmmmmmmmmmmm न्या याचार्य जो-अस्मत्प्रदत्त दोषपरिहारश्च न विहितो भवद्भिः । कारणकार्ययोाप्तिनं तु कर्तृभर्ययो किं च कृषाणकृत व्रीह्यादौ सकतक. त्वेपि वन्यवनस्पतिघासादो कर्तुरभावेन हेतुर्व्यभिचारी च हेतुतावच्छेदकसम्बधेन हेतुता वच्छेदकावच्छिन्नाधिकरणता यत्र तत्रैव साध्यतावच्छेदक सम्बंधावच्छिन्न साध्यतावच्छेदकावच्छिमाधिकरणता यदि भवेत्तस्यैव सम्यग्घेता कार्यत्वहेतोश्चैवं सम्पग्घेतुत्वं नास्ति । (भावार्थ) हमारे दिये दोषोंका परिहार मापने बिलकुल नहीं किया। कारण और कार्य की व्याप्त है। जहां जहां कार्यत्व है वहां वहां कारण ज. न्यत्व है ऐसा नियम तो है किन्तु जहां जहां कार्यत्व है वहाँ २ कर्तासे न.. न्यत्व है ऐमा नियम मानोगे तो जङ्गलमें घास जड़ी बूटी किम कर्ताको व. नाई हैं ऐसा दिखलाइये। जहां हेतु रहै वहां साध्य रहै उसको सङ्केतु कहते हैं ऐसा सद्धेतु यह कार्यत्व नहीं है । शास्त्री जी-यत् भवद्भिः प्रतिपादितं खीक्रियते । ईश्वरप्रेरितोऽयं जनः सुख दुःखं भनक्ति कार्यकरणे तु स्वतन्त्रः जीवात्मा किन्तु तत्फलभोगे पर तन्त्रो यथा चौरः चौर्य कृत्वा कारागृहे मजिष्ट्रेटप्रेरितो गच्छति ॥ (भावार्थ) जो आपने कहा हम स्वीकार करते हैं। ईश्वरको सिद्धि में हम दूसरा प्रमाण देते हैं कि जीव कर्म करने में स्वतंत्र है लेकिन फल स्वयं नहीं भोगने चाहता जैसे कि चोर चोरी करने में स्वतन्त्र है लेकिन चोरीका फल जेलखाना मजिष्ट्रेट द्वारा भोगता है। इसी तरह मुख दुःख फल भुगाने वाला ईश्वर है। न्यायाचार्य जी-यदि जीवः कर्मकरण स्वतंत्रः फलभुक्तौ च परतन्त्रो भवे. दत्र ब्रमः कस्यचिच्छेष्ठिनो धनापहरणरूपं फलं देयं स्यात्तत्रेश्वाः स्वयमा. गत्य तु नार्थमपहरेत् किन्तु चौरद्वारा फलमुपभोजयति तदा चौरः किमर्थं का. रावासगृहमुपभोजयेत् चौरस्य च कर्मकरणे स्वातन्त्र्यपरिहारश्च यदि चौरः स्व. तन्त्रतया प्रेष्ठिधनापहरणं कुर्याचेत् तदा ईश्वरेण किं फलं भोजयितं फलभक्ती पारतन्यपरिहारश्च वभक्षायां पिपासायां भोजनं पानं च विषभक्षणेन मरणादिफलं च कर्मकर्तः फलभोगकर्तुश्च सामानाधिकर गयं द्योतयन्ति । (भावार्थ ) यदि जीव कार्य करने में स्वतंत्र है और फम भोगने में परतंत्र है यहां हम यह कहते हैं कि किसी सेठके सब धनशा चाया जाना ऐसा फल भोगना है ईश्वर तो स्वयं धन चुराता नहीं किन्तु चोरके द्वारा धन चुरवावैगा तो चोरको जेलखाना नहीं होना चाहिये क्योंकि चोरने ईश्वरको प्रेरणासे धन चुराया था अतः चोरकर्म करने में स्वतंत्र है यह वात भी वाधि Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९५ ) त हुई । यदि चोर स्वतंत्रता से धनको चुराता है तो ईश्वरने फलक्या भुगाया इधर तो ईश्वर चोरके द्वारा छन चुरबावै उधर पुलिसको खबर करे कि तुम चोरको गिरफ्तार करलो यह कहां तक न्याय हो सक्ता है। भूख लगने पर खाना रूप कार्य करनेसे सुख रूपी फन वही भोगता है जहर खाना कार्य भी जीव करता है ओर उसका फल मरण भी वही भोगता है । इस लिये मोग करने में परतंत्र है इस नियममें व्यभिचार है । शास्त्रीजी - पद्भवद्भिःप्रतिपादितं तत्सम्यक् ससर्वेषांपितारक्षकः यदि फल भोगे परतन्त्रोनस्यात् कः फलं भोजयेत् यदि कर्मद्वारा भोजयेत्तदा कर्मतु गुणस्तन कथं सुख दुःखदातृत्वं गुणे गुणानङ्गीकारात् । ( भावार्थ ) जो आपने कहा सो हम मानते हैं । वह ईश्वर सबका पिता हे रक्षक है । यदि जीव फल भोगमें परतंत्र नहीं मानो तो कौन फल भुगोवैगा । कर्म तो गुण है और गुणमें सुख दुःख देना आदि गुण रह नहीं सक्ते । भोजन करना यही जीवका कर्म है । फन देना ईश्वरकृत है । 2 न्यायाचार्य्यजी – यदि ईश्वरः सर्वेषां पितास्यात् रक्षकश्च तदा पदार्थ सृष्टौ तस्य निमित्तकारणतां व्याहन्येत रदयरक्षकभावो निमित्तनैमित्तिकभाव मतिवर्तते यत्र रपरक्षकभावो यथा रूप्यकाणां रक्ष कोभृत्योनस भृत्यो रूप्यकाणां निर्माता किन्तु गोप्तैव किञ्च कर्मणां च द्रव्यत्वाल गुणत्वेनोपकल्प्यमानानां ताविक्षिप्त दोषानुषङ्गः नच सर्वथा कर्मणामेत्र सुखदुःखोत्पादकत्वमिति मन्यामहे एकान्तं । विषयाद्विषयान्तर गतिदोषानुषङ्गश्च भवतां निग्रहस्थानाप ( भावार्थ ) यदि ईश्वर सबका पिता अर्थात् ( पातीतिपिता ) रक्षक है तो ईश्वर यावत् कार्यमें कारण हो नहीं सक्ता क्योंकि रक्षक उस चीजका हुआ करता है जो चीज़ पहले से मौजूद हो जैसे कि रुपयोंकी रक्षा रोकडिया या किसी नोकरको दी जाती है तो इसका यह अर्थ नहीं है कि रोकड़िया उन रुपयोंको बनाता है किन्तु रुपये पहले ही से बने हैं इसी तरह कार्य भी ईश्वरसे भिन्न अपने कारणोंसे आत्मलाभ कर चुके हैं तब ईश्वर क्या करता है । आपने कर्मको गुण समझ रक्ता है सो ठीक नहीं है। कर्म द्रव्य पदार्थ है और उसमें सुख दुख दातृस्व शक्तियां मौजूद हैं । ऐसा एकान्त भी नहीं है कि कर्ता हर्ता भोक्ता कर्म ही है । आप ईश्वर कर्तृत्व विषयको छोड़कर विषयान्तरकी तरफ दौड़ते हैं । यह कर्तव्य आपका निग्रहस्थान करने वाला है । शास्त्रीजी - यद् भवद्भिः प्रतिपादितं तत्सम्यक् । यस्तर्कसंग्रहमधीते सो कर्म द्रव्यश्वेन नाङ्गीकरोति । पृथिव्यप्तेजोवाय्वाकाशकाल दिगात्ममनांसि नवद्र Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राणि । विषयान्तरं न गच्छामि ईश्वर एककर्तासत्प्रतिपक्षहेत्वाभासस्य किं लक्षणं - (भावार्थ) आपने कहा सो ठीक है। कर्मको द्रव्य जिसने तर्क संग्रह पढ़ा है वो भी नहीं कहेगा । द्रव्य में पृथिवी, जल, तेज, वायु, आकाश, काल, दिशा, प्रात्मा, मन, यह नव द्रव्य मानी हैं। विषयसे विषपान्तरको मैं नहीं जाता हूं ईश्वर कर्ता है सत्प्रतिपक्ष हेत्वाभाम दिया सों हेत्वाभासका लक्षण क्या है। ___ न्यायाचार्यजी-कर्मणो द्रव्यत्वं गुणापर्ययवत्त्वेन साधयामः भन्यथा जी. घद्रव्य सम्बन्धे विभावपरिणमनक्रिया कथमुपपद्येन बन्धो द्रव्य द्रध्ययोर्भवति बन्धमन्तरा विभाव परिणतिर्न स्यात् कदाचिन् नैयायिकमतमोक्रियते कदा. चित् सांख्यमतानुसारेगा प्रकृति जीवेश्वरपदार्थत्रयं कल्प्यते हेत्योभासलक्षणं च पृष्टं तत्रेदं महे यादृश विशिष्ट विषयनिश्च पविशिष्ट पादृश विशिष्ट विषयफत्वं अनुमिति प्रतिवन्धकतानतिरिक्तवृत्तिं तद्रपाघटितः अनुमिति प्रतिवन्धक तायां यदपावच्छिन्न विषयत्वं प्रयच्छेदकं तादृशं यत्स्वावच्छिन्नाविषयप्रतीति विषयतावच्छेदकं तद्र पावच्छिनाविषयप्रतीति विषयतावच्छेदकं यत्स्वं तदवच्छिन्नोऽनाहार्या प्रामारयज्ञानानास्कन्दित निश्चयवृत्तित्वबिशिष्टयद्रपाव च्छिन्न विषयकत्वं अनुमिति प्रतिवन्धकतानतिरिक्तवृत्तितत्त्व हेत्वाभामत्वं ईश्वरो यदि कर्ता स्यात् नित्यव्यापके क्रियाहानिःञ्चिान्वयव्यतिरेकगम्यो हिकार्यकारणभावो न चेश्वरेणा देशकालव्यतिरेको घटते नित्यत्वाद् व्यापकत्वाच्च ( भावार्थ ) कर्म द्रव्य है यदि कर्मको गुण माना जाय तो विभाव परिगति का कारण नहीं होतक्ता क्योंकि द्रव्य का द्रव्य के साथ वन्ध होने पर बैभावित परिणमन होता है यह वात अंशुद्ध जीव द्रव्य में अनुभत है । क. भी आप नैयायिक मतके अनुमार नौ द्रव्यों को मानकर कर्म द्रव्य नहीं हो सत्ता ऐमा कहते हैं + कभी जीव ईश्वर प्रकति इस तरह तीन पदार्थ मानते हैं यदि ईश्वरको कर्ता माना जाय तो व्यापक क्रिया नहीं हो सक्ती क्योंकि जो पदार्थ जितने अंश में उमा ठस भरा हुआ है उममें देश से दूसरे देशको प्राप्त होना सूप क्रिया हो नहीं सक्ती कितना ही हुशियार नटका वालकहो लेकिन अपने आप अपने कन्धे पर नहीं बैठ सक्ता अथवा कितनी ही पैनी तलवार क्यों नहीं हो पापही अपने को नहीं काट सक्ती ईश्वर जन सब जगहमें ठसाठस भरा हुआ है उसमें परमाणु ओंको प्रेरणा करना ऐसी क्रिया हो नहीं सक्ती । ईश्वर के साथ प्रथिव्यादि कार्यों का अन्वयव्यतिरेक भी नहीं बनता क्योंकि जहां जहां पृथिव्यां दिक हैं वहां वहां ईश्वर है इसमें कोई प्रमाण नहीं अतः अन्वय नहीं बनता जहां जहां ईश्वर नहीं हैं वहां २ पृथिव्यादि नहीं है ऐषा देश Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११७ ) व्यतिरेक नहीं बनता क्योंकि ईश्वर व्यापक है उसका प्रभाव कहीं भी नहीं पाया जाता । और जब जब ईश्वर नहीं तब तब क्षित्यादि नहीं ऐमा कालव्यतिरेक भी नहीं वन सक्ता क्योंकि ईश्वर नित्य है उसका कभी किसी ( काल में भी ) प्रभाव नहीं मिलता अन्त्रयव्यतिरेक भावसे कार्य कारण भाव व्याप्त है अर्थात् अन्वयव्यतिरेकभाव व्यापक है और कार्यकारणभाव व्याय है तब व्यापक अन्वयव्यतिरेकभाव ही नहीं है तो कार्यकारणभाव जो कि व्याप्त है कैसे वन सकेगा ? | शास्त्री जी — दद्भवद्भिः प्रतिपादितं तत्सम्यक् । कर्म तु क्षात्रवृत्ति किन्तु संस्कारवशाञ्जीवः फलं प्राप्नोति कर्म तु जड़पदार्थः कथं चेतने फलं भोःजयेत् । ईश्वरसे- दयालुः सचौरस्य कारागृहे प्रेषणमेव कार्यं करोति यथा दयालुन्ययकारः तत्फलं भोजयति इन्द्रियार्थसन्निकर्षोपचं शरीरमुत्रा ( भावार्थ ) आपने कर्मको कारण बताया कर्म तो तीनक्षण रहकर पुनः नष्ट होजाता है बाद में संस्कार के द्वारा स्वर्ग नर्क में जीव जाता है कर्म जब जड़ पदार्थ है तो चेतन को फल कैसे देखता है । ईश्वर दयालु है वह फल दिया करता है जैसे कि मजिष्ट्रेट की यही दयालुता है कि चोर को सजाका हुक्म देवे ! न्यायाचार्य जी -कर्मजडपदार्थः कथं चेतने फलमुपभोजयेदिति तु विषयान्तरं वृथैव इतस्ततः कालो नीयते जडवस्तु मदिरादिनाऽपि प्रात्मनि वि कारोत्पत्तिः प्रत्यक्षैव । ईश्वरसाधने प्रयुक्तो हेतुः कार्यत्वं संदिग्धव्यभिचारी स श्यामो मित्रातनयस्त्रादितर मित्रातनयवदित्यादिवत् न च दयालो रित्येवं कर्मयत्तद्योग्यं फलं दद्यात् किमेवं कर्त्तव्यता दयालुजनस्य । यत्कृतं कृत्वा तदपराधान् क्षाम्यति किं च दृष्टान्तमर्यादा स शरीरा सर्वज्ञस्यैवेश्वरस्य सिद्धिः स्यात् नहि सर्वज्ञाशरीरस्य तथा च भिद्वान्तव्याघातः किं च संस्कार द्वाराऽपि कर्मणः स्वर्गनस्कादिफ़ज़दातृत्वे किमन्तर्ग हुनेश्वरेण ॥ ( भावार्थ ) कर्म जड़ पदार्थ हो कर भी चेतन को विकृत कर सकता है । इसमें मदिरा सेवन से खात्मा में मदोन्मत्तता हो जाना ही प्रमाण है । आप इस तरह विषयान्तर जाते हुए समययापन करते हैं । आपने जो ईश्वरसाधन में कार्य हेतु जो दिया सो सन्दिग्ध व्यभिचारी है जैसे कि मित्रा नामेकी स्त्री के पुत्र काले थे उन्होंको देखकर मित्राके गर्भके लड़के को भो कालेवर्णका होना अनुमान द्वारा सिद्ध किया लेकिन इसमें सन्देह है क्योंकि ये नियम नहीं हैं जिसके ४ लड़के काले हैं उसके पांचवां लड़का भी काला ही इसलिये विप से उपावृत्ति इस हेतुको संदिग्ध है अतः संदिग्ध व्यभिचारी Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११८ ) हेतु है । ईश्वरकी दयालुता यही है कि उनको फल देना जैसे कि मजिस्ट्रेटकी दयालुता यही है कि चोरको जेलखाने भेजे यह आपने कहा सो सर्वंश वाधित है यों तो सभी दयालु हो सकते हैं एकने गाली दोनी दूसरेने गाली देने वाले को ५ जुते लगा दीने ये भी दयालु हो जायगा । महाशय की ऐसी दयालुता को कोई पानर लड़का भी दया नहीं कह सकता दया वही है कि उसके अपराधों को क्षमा करदें । मापके दिये दृष्टान्त (कुलाल ) से ईश्वर शरीर सहित तथा असर्वज्ञ ही सिद्ध होगा क्योंकि नदी पर्वतादिन कार्य भी विना शरीर के वन नहीं सकते और जो जन होता है वही अपनी इच्छा पूर्तिके लिये घट पटादि बनाया करता है तथा गर्मी और सर्दी के चारचार महीने तो ठीक निकलते हैं। लेकिन चतुर्मास में अक्सर परमेश्वर गलती कर देता है कभी दो दो महीने बिना वर्षाके निकल जाते हैं तोपि श्ररूपज्ञता आई ऐसा मानोंगे तो स्वसिद्धान से विरोध पड़ेगा । यदि दुर्भिक्ष स्वर्ग नर्क आदि, जीवोंके धर्म अधर्मसे होते हैं ऐसा कहोगे तो वीचमें ईश्वरको मानने की क्या आवश्यकता है। शास्त्री जी - यद्भवद्भिः प्रतिपादितं तत्सम्यक् । जगत् उत्पद्यते विनश्यति सनैमित्तिभः निमित्तमन्तरा नोत्पद्यते विनश्यति सनिमित्त ईश्वरः जीवकर्मकरो स्वतन्त्रः फलभोगे च परतन्त्रः । ( भावार्थ ) -- जगत् वरावर उत्पन्न होता है नष्ट होता है यह उत्पाद विनाश विना किसी निमित्त के हो नहीं सकता वो निमित्त कौन है ? ईश्वर । जीव कर्म करने में स्वतन्त्र है और फल भोगने में परतन्त्र है ॥ न्यायाचार्य जी — अस्मत्प्रदत्त दोषपरिहारश्च न विधीयते । उत्पादविमाशौ च यद्यपि नैमित्तिको परं न स निमित्त ईश्वरः किन्तु अनन्तगुण समुदायात्मके द्रव्ये एको द्रव्यत्व नामको गुणो वर्त्तते तद्द्वारा एकामवस्थां त्य क्या अवस्थान्तरं प्राप्नोति नित्यशस्तत्र च बहूनि अनिर्धारितानि निमितानि यथा मुद्गरादिना घटस्याभिघाते घटो विनश्यति कपाल मुत्पद्यते । किन संसारे यानि कुत्सितकार्याणि तेषां सर्वेषां विधाता ईश्वरः स्यात् तस्य सर्वत्र निमित्तकारणत्वात् यदि कार्यमात्रव्यापारे तस्य नैमित्तिको यत्रः । तदा क्षित्यादि कार्यकर्त्तव्यतायां तस्य निमित्तं वाच्यं यदि स्वाभाविकस्तदा सृष्टिप्रलयादि विरुद्धकार्योत्पत्तिरेकेन स्वभावेन कथं घटेत ॥ ( भावार्थ ) महाप्राज्ञ जी महाराज हम दोष देते हैं उनको आप वि. लकुल ही उड़ा देते हैं अस्तु तुष्यन्तु न्यायेन हम श्रापका प्रत्युतर अवश्य ही देंगे । उत्पाद विनाश ईश्वरकृत हैं यह हो नहीं सकता दो विरुद्ध धर्म निरपेक्ष एक वस्तुमें रह नहीं सकते अनन्त गुणके समुदाय रूप द्रव्य में द्रव्यत्व नाम Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९९) की एक शक्ति है वह एक अवस्थाको छोड़कर दूसरी अवस्थाको प्राप्त करती रहती है और भी अनेक निमित्त हैं जैसे कि मुगदरसे घटको तोड़ डाला तो घटका नाश और कपालके उत्पाद में मुगदर निमित्त कारस पड़ा यदि ईश्वर कार्य मात्र में निमित्त कारखा माना जाय तो जितने संपारमें बुरे काम होते हैं सब ईश्वरकी तरफसे समझे जायंगे। यदि बुरे भले कार्य करना या पर्वत समु. द्रादि बनाना उसका नैमित्तिक कर्म है तो बो निमित्त क्या है गंगा नदी हिमालय पर्वत नब बनाया था उसके पहले क्या वो निमित्त नहीं था। यदि कार्य कर्तव्यता विधि उसकी स्वाभाविक मानी जाय तो एक पदार्थ में दो स्वाभाविक विरुद्ध धर्म रह नहीं सकते अतः ईश्वर में सृष्टि रचना प्रलय विधान ये दो स्वाभाविक धर्म असम्म । शास्त्री जी-यत्प्रतिपादितं तत्सम्यक् । किन्तु जीवाः कर्मकरणे स्वतः न्त्रा इति प्रतिपादितं ईश्वरः दयालः सन् फलं ददाति यथा मजिष्टमन्तरेण न चौरः कारावासं गन्तुमिच्छति सईश्वरः दयालुः सर्वशक्तिमान् व्यापकः सर्वेषांगुरुः सर्वशः। . (भावार्थ) जो आपने कहा सो ठीक है। जीव ही कर्म कुकर्म करते हैं ईश्वर तो फल भुगतवाता है जैसे चोर चोरी तो स्वतन्त्र करता है जेल खाने में परतन्त्र होकर जाता है वह ईश्वर दयालु है फल देता है सर्व शक्तिमान है सबका गुरु है सर्वत है। न्यायाचार्य जी-पुनरपि दोषान् निगलन्ति भवन्तो यद्येवं प्रणालिवं रीवर्तते तदाऽपि ईश्वरेणापराद्धं यञ्जनान् कुकर्मभ्यो न निषेधयति नच कश्चित्पिता जन्मान्धं स्वपुत्रं कूपोन्मुखं विलोक्य तत्राभिपातं स्वपुत्रस्येच्छति पश्वाहस्खदाने समुत्युको भवेत् किन्तु पूर्वत एव निषेधेन पितृल धर्म परिपा. लनास्यादेवमेव यः कश्चिञ्जनः कुकर्म कर्तुमुत्सहेत तदैवेश्वरस्य निषेधेन भा. व्यं यथा राजकीय कोटपालादयः चौर्यकर्म कर्तुमुत्सुकान् चौरान प्रथमत एवं प्रवन्धयन्ति यदि ते जानीयुश्चेत् । भवदभिमतश्च ईश्वरः सर्वज्ञो व्यापकश्च । किंध कुम निवारणे तस्य शक्तिरपि विद्यते सर्वशक्तिमत्त्वात् निवारणमपि सम्यक कर्तव्यं तस्यदयालुत्वात् । (भावार्थ) यदि आप यही कहते हैं कि जीव ही कर्म कुकर्मों का कर्ता है और ईश्वर दयालु है अतः फल देता है इस नियम के अनुसार भी संसार में कोई कुकर्म नहीं होना चाहिये । दयालु पिताका यह कर्तव्य नहीं है कि अपने अन्धे लड़के को पहले तो कूएमें गिर जाने दे पुनः उसको निकाल कर Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२० ) उस गलतीका फल दे। ये संमारो जीव जब कुकर्ममें लगे हैं तो अन्धे ही हैं अतः कुकर्म करने के पहले ही रोक देना चाहिये किसी जीवको कुकर्म करने की इच्छा हो रही है उसको ईश्वर जानता भी है क्योंकि सर्वज्ञ है जहां कुर्म कर रहा है वहां भी है क्योंकि वो सर्व व्यापक है । कहीं १० भादमी चोरी करनेका विचार करते हों तो कोतवाल आदि यदि जान जाय तो पहले से ही रोक देते हैं प्रशक्ति हो या नहीं मालूम हो यह दूमरी वात है लेकिन प्रशक्ति और अज्ञान ईश्वर में हो ही नहीं सकते क्योंकि वो आपने सर्वज्ञ सर्व शक्तिमान् माना है अतः घो रोक सकता है और रोकना उसको वाजिव |. भी है क्योंकि वो दयाल है। अतः ईश्वर को उक्त विशेषणोंसे विशिष्ट मानोगे तो संसार में कोई कुकर्म नहीं होना चाहिये। ......... शास्त्री जी-यत्प्रतिपादितंततमम्यक् । परन्तु असत्कर्माणि ईश्वरेण कृतानि इति न । जीवः स्वकर्म प्रेरितः करोति ईश्वरः कर्ता स्वतन्त्रत्वात् विश्वस्थकर्ता भवनस्यगोप्ता इति अतेश्च अतः कर्तृत्वमीश्वरेऽनुमीयते । (भाशर्थ ) जो कह रहे हो ठीक है। ईश्वर प्रसत्कर्मों को नहीं करता। यह जीव कर्म की प्रेरणाासे करता है। लेकिन ईश्वर में स्वतन्त्रता है इस लिये स्वतन्त्रः कर्ता इस नियम के अनुपार ईश्वर ही कर्ता है भागम ( वेद ) में भी कर्ता लिखा है अब आप क्या कहते हैं। __न्यायाच र्यजी-यदि कर्मप्रेरितो जीवः कुमार्य करोति पुनः स्वतन्त्रतया ईश्वरः कर्ता इति वदतोव्याघातः । श्रागमस्य अन्योन्याश्रयदोषदुष्टत्वाद प्रामाण्यं । ईश्वरस्वरूपज्ञानं प्रागमप्रमाणाधीनं । आगमप्रामाण्यं चेश्वराधी नमिति किन अस्मत्प्रदत्तदोषाणां चानिवारणा भवतां निग्रहस्थानाय किञ्च हेतोः सत्प्रतिपक्षत्वं व्याप्तिज्ञानस्यानुमिति करणस्प मबदभिमत मिथ्याज्ञानस्य कथं सदनुमितिकरणं पितरमन्तरेण न पुत्रोत्पतिरिति दृष्टान्तस्य सृष्टयादौ स. मुत्पन्न युवपुरुषैदृष्टन्ताभासत्वं वन्य वनस्पतिप्रभृतिभिर्व्यभिचारः कर्मकर्तव्यतायां स्वतंत्रतायां फलभक्तौ परतन्त्रतायां प्रतिपाद्यमानायां श्रेष्टि चौरदृष्टान्तेन नियमभङ्गश्चेति पञ्चदोषनिवारणी या अन्यथा प्रमाणात दाभासी दुष्टतपोद्भावितौ परिहृता परिहृतदोषी वादिनः साधनतदाभासौ प्रतिवादिनो दूषणभूषणे चेति । नियमान मारेगा भवतां पराजयप्राप्तिः स्यात् । (भावार्थ ) कर्म की प्रेरणासे ही यदि जीव कुकमाँ को करता है ऐसा प्राप फरमाते हैं और ईश्वर स्वतन्त्रतया कर्ता है यह तो वदती व्याघात दोष है अथवा मातामें बन्ध्याकी ताह वाक्य है। वेदसे जो आप ईश्वर कर्तृत्व सिद्ध करना चाहते हैं इसमें अन्ययोन्याश्रय दोष है ईश्वर कर्तृत्व में प्रमा Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२१ ) णता मागम (वेद)द्वारा होगी और वेदमें प्रमाणता ईश्वरके वाक्य हैं इस से होगी अतः आगन में प्रामाण्य नहीं हो सक्ता ॥ अभीतक आपने हमारे दिये हुये दोषों का परिहार नहीं किया हमने पांच दोषों को उद्भावन किया है प्रथन कार्यत्व हेतु को सत्प्रतिपक्षित किया था अर्थात् पृथिवी अङकुर मेरु मादिक किसी कर्ताके बनाये हुये नहीं है क्योंकि शरीरके द्वारा बने हुये ये प्रमाणित नहीं होते जैसे कि आकाश । दूपरा कार्यत्व हेतु से कर्ताको सिद्ध करने का अनुमान जो किया सो हो नहीं सक्ता क्योंकि अनमान व्याप्ति ज्ञान से होता है व्याप्तिज्ञान तुम्हारे यहां मिथ्याज्ञानों में गर्भित है संशय, विपर्यय, तर्क येतीन आपने मिथ्या ज्ञान माने हैं तर्क ज्ञान कहिये अथवा व्याप्ति ज्ञान ये दोनों पर्यायवाची शब्द हैं। मिथ्या ज्ञान रूप व्याप्तिज्ञानसे सम्यगन. मान रूपी कार्य हो नहीं मक्ता कारण मिथ्या है तो कार्य भी मिथ्या हुआ करता है। तीसरा कर्तामानने में पिताके विना पुत्र की उत्पत्ति नहीं होती यह दृष्टान्त मापने दिया था सो भी ठीक नहीं है क्योंकि सष्टिकी श्रादिमें उछलते कूदते सैकड़ों युवा पुरुष उत्पन्न हो जाते हैं स्वयं आप उनके माता पिता नहीं मानते अतः यह दृष्टान्ताभास है। चौथा कार्यत्व हेतु व्यभिचरित है जगलमें पैदा हुई घास जड़ी बूटीका कोई कता प्रमाणसे सिद्ध नहीं होता अतः संदिग्धव्यभिचारीभी है। पांचवां कर्म करने में जीव स्वतन्त्र है और फल भोगने में परतन्त्र है इसमें चोरका दृष्टान्त जो दिया था अर्थात् किसी सेठने ऐसा कर्म किया जिसका कि फल सेठका सब धन चराया जाय ऐसा मिलना है अब ईश्वर तो खयं चुराने नाता नहीं चोर उसका धन चुराता है। यदि ईश्वर चोर से चरवाता है तो चोरको जेलखाना क्यों होता है तथा ईश्वर कुकर्म कारक भी ठहरा और यदि चोर स्वतन्त्र चोरी करता है तो ईश्वर में फन दातृत्व क्या रहा । अतः पापके “कर्म करने में खतन्त्रजीव है फन भोगने परतन्त्र है,, इस प्रतिज्ञा तथा नियम का व्याघात होगया। इन पांच दोषों का निवारण करके भागे चलिये अन्यथा न्याय सिद्धान्त को नियमानसार आपका पराजय होजायगा।। रात्रि विशेष हो जानेके कारण सर्वसाधारणकी आज्ञानुसार जय जय. कार ध्वनिके साथ सानन्द सभा समाप्त हुई। चन्द्रसेन जैन वैद्य, मन्त्री श्री जैनतत्व प्रकाशिनी सभा-इटावा Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपसंहार। इन दोनों शोस्त्राओं को पढ़कर कहीं कोई ऐमा अनुमान न लग जैन लोग ईश्वरको नहीं मानते अतः ईश्वर का स्वरूप सर्व साधारणा नार्थ प्रकाशित किया जाता है। कर्म मल रहित शद्ध जीवनमुक्त या मुक्त जीवको ही ईश्वर कहते में कि क्षधा, तृषा, भय, जन्म, जरा, मृत्यु, रोग, शोक, गति, अरति, सि.. खेद, स्वेद, मद, निद्रा, रागढूष और मोह ये अठारह दूषणा नहीं है । यथोक्तंच; त्रैलोक्यं सकलं निकालविषयं सालोकमालोकितं। साक्षाद्येन यथा स्वयं करतले रेखात्रयं मांगुलि ॥ रागद्वषभयामयान्त कजरालोलत्वलोभादयो। नालं यत्पदलंघनाय स महादेबो मया वन्द्यते ॥ या जो अब ऐसा विशिष्ट प्रात्मा होगया है कि जो: न द्वषी है न रागी है मदानन्द वीतरागी है। वह सब विषयोंका त्यागी है जो ईश्वर है सो ऐसा है ॥ टेक ॥ न खद घटघटमें जाता है मगर घटघट का ज्ञाता है। यह सब बातों का ज्ञाता है जो ईश्वर है सो ऐसा है॥१॥ न करता है न हरता है नहीं औतार धरता है। मारता है न मरता है जो ईश्वर है सो ऐसा है ॥२॥ ज्ञानके नासे पुरनर है जिमका नहीं सानी । सरासर नर नरानी जो ईश्वर है सो ऐना है ॥३॥ न क्रोधी है नकामी है न दुश्मन है न हामी है। वह सारे जगका स्वामी है जो ईश्वर है सो ऐसा है ॥४। वह जाते पाक है दुनियांके झगड़ोंसे मुवर्य है। प्रालिमुलगैव है वे ऐव ईश्वर है सो ऐसा है ॥५॥ दयामय है शान्ति रस है परमवैराग्य मुद्रा है। न जाबिर है न काहिर है जो ईश्वर है सो ऐसा है ॥६॥ निरंजन निर्विकारी है निजानन्द रस विहारी है। सदा कल्याणकारी है जो ईश्वर है सो ऐसा है॥७॥ न जग जंजाल रचता है करम फलका न दाता है। वह सब बातोंका ज्ञाता है जो ईश्वर है सो ऐसा है ॥ ८॥ वह सच्चिदानन्द रूपी है ज्ञानमय शिव स्वरूपी है। आप कल्याणरूपी है जो ईश्वर है सो ऐसा है ॥९॥ जिस ईश्वर के ध्यानसेती बने ईश्वर कहै न्यामत । वही ईश्वर हमारा है जो ईश्वर है सो ऐसा है ॥१०॥ या संक्षेप में यों कहिये कि वह सर्वज्ञत्वेमति बीतराग अर्थात् ज्ञाता दृष्टा है। अन्तमें हमको पूर्ण आशा यथा दृढ़ विश्वास है कि सर्वसाधारया इस प्रकार ईश्वरके यथार्थ स्वरूपका श्रद्धानकर सदैव स्व पर कल्याण कर सकने में समर्थ होंगे। चन्द्रसेन जैन वैद्य मन्त्री श्री जैन तत्त्व प्रकाशिनी सपा, इटावह ।