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है,या अनित्य है इस विषय पर लेख होगा इत्यादि । यदि आप लोग चा. हते हैं कि आर्यधर्म की रक्षा हो तो आपका कर्तव्य है कि अपने पार्यमित्रमें हमारे लेखका उत्तर देना प्रारम्भ करें। यह मापको प्रथम ही घोषणा के रूप में जैनमित्र में प्रकाशित किया जाता है।
दुर्गादत्त शर्मा उपदेशक जैन
. भूतपूर्व आर्यसमाज । सन्ध्याको निश्चित समयपर सभा का कार्य पुनः प्रारम्भ हुआ। भजन व मङ्गलाचरण होने के पश्चाद् पंडित दुर्गादत्त जी का व्याख्यान प्रारम्भ हुआ।
आपने अपने सुरीले और मधुर व्य रूपानमें जैन धर्मके विषय में अज्ञानताके कारण प्रचलित नास्तिक, वाममार्गी और वौद्ध धर्म की शाखा होने आदि किम्बदन्तियों का निराकरण कर यह दिखलाया कि सुख और शान्तिको प्राप्ति जैन धर्मसे ही हो सकती है । वेदों के विषयमें आपने कहा कि स्वामी द. यानन्दजी के भाष्यानमार वह ईश्वर कृत कदापि मिद्ध नहीं होते और न उन से सुख शान्ति ही मिल सकती है; उनमें सिवाय भेड़ बकरियों व मामूली संसारी बातोंके और कुछ नहीं। अनेक अवतरणोंसे वेदोंकी पोल दिखलाते हुये आपने यह कहा कि वेदों की पोल मैं कहां तक दिखलाऊं उसमें तो निरी पोल्स ही पोल भरी है। प्राय्यममाज के उत्साह और कार्य की प्रशंसा करते हुये आपने जैन भाइयोंसे सर्व जीवों के कल्याणार्थ जैन धर्मके सर्व को प्रकाशित करने का अनुरोध कर निज व्याख्यान समाप्त किया। पंडितजी के आसन ग्रहण कर लेने पर चन्द्रसेन जैन वैद्यने स्वामीजीके यजर्वेद भाष्यसे अनेक अवतरण पढ़कर सुनाये जिनसे कि वेदोंकी निरर्थकता और उनका ईश्वर कृत न होना सर्वथा झलकता था । इसके पश्चाद् कंवर दिग्विजयसिंहजी ने करताल ध्वनिके मध्य खड़े होकर अनेक अनूठी युक्तियों से वेदोंका ईश्वर कृत न होना और जैन धर्मको ही ईश्वरका उपदेश होना भली भांति सिद्ध किया। भजन व मङ्गल होनेके पश्चाद् जयजयकार ध्वनिसे सभा समाप्त हुई।
चन्द्रवार १ जुलाई १९१२ ईस्वी । मध्यान्हको अजन व मङ्गलाचरण होने के पश्चात् सभाका कार्य पुनः प्रारम्भ हुआ। आज सभामें स्त्रियोंके विशेष अनरोधसे उनको भी पर्देके य. थोचित प्रबन्धमें स्थान दिया गया था और उन के अर्थ स्पेशल रीतिपर च.