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( १०७ ) - स्वामी जी-एक पदार्थ की दो मुख्तलिफ़ क्रिया हो सकती हैं। एक जीव जिसके स्वभावमें गर्मी अधिक है उसको सूर्य से दुःख होता है और जिसके स्वभावमें सर्दी अधिक है उसको सुख होता है। इसमें सूर्य के दी कार्य नहीं, परन्तु जीवके कर्मों के स्वभावसे सुख दुःख होता है। अन्दरको क्रियाके लिये दिशाका भेद नहीं होता। जो जिसके सामने आया मिल गया। हांडी में चा. वल पकते हैं, एक दूसरेसे मिल जाते हैं । यह नहीं होता कि चावल सब एकही दिशामें जाते हों। प्रागकी हरकतसे चावल मिले, अतएव भागका स्वभाव संयोग वियोग हुआ * । प्रागकी हरकत स्वाभाविक है। ईश्वर बा. हरसे हरकत नहीं देता । वह भागके समान अन्दरसे हरकत देता है, क्योंकि वह परमाणु परमाणु में व्याप्त है। हरकत संयोग वियोगमें रहती है। हर. कत जारी नहीं सदा बनी रहती है। हरकतके दो फन्न प्रत्यक्ष हैं सूर्य की एक क्रियाके दो पाल सुख और दुःख दोनों हैं।
* एक वस्तुमें दो विरोधी स्वभाव नहीं हो सकते ऐसा स्वामीजीको भी इष्ट है और इसका प्रतिपादन उन्होंने अपने वैदिक यन्त्रालयमें मुद्रित "सांख्य दर्शन" के ०४ सूत्र "लभ यथाध्यसत्करत्वम् के भाषानुवाद में प्रश्नोत्तरों द्वारा किया है। आप स्वयं प्रश्न करते हैं कि “एक वस्तुमें दो विरुद्ध स्वभाव हो नहीं सकते । यदि रचना ईश्वरका स्वभाव मानोगे तो विनाश किसका स्वभाव मानोगे। अपने इसी प्रश्नका उत्तर - आप स्वयं लिखते हैं कि “यह शङ्का परतन्त्र और अचेतनमें हो सकती है क्योंकि कर्ता स्वतन्त्र होता है और स्वतन्त्र उसे कहते हैं जिसमें करने न करने
और उलटा करनेकी सामर्थ्य हो”।यद्यपि आपने यहां अंप्रत्यक्ष रीतिसे सृष्टि कर्तृत्त्व ईश्वरका स्वभाव मान लिया है और अप्रत्यक्ष ही क्यों वरन इन प्रश्नों के ऊपर आप स्वयं - अपने इन शब्दोंसे कि “ईश्वर इन दोनों ( मुक्त और वद्ध) अवस्थाओंसे पृथक् है और जगत्का करना उसका स्वभाव है इस लिये इच्छाकी आवश्यकता नहीं। प्रत्यक्ष रीतिसे भी स्वीकार करते हैं कि सृष्टि कर्तृत्त्व ईश्वरका स्वभाव है ! परन्तु यदि हम थोड़ी देरको उनके "जगतका करना उसका ( ईश्वरका ) स्वभाव है" इन शब्दों पर ध्यान न दें और स्वयं ही उठाये हुए आपके प्रश्नके समाधानसे संतोष मानले तो भी यह निश्चय है कि भागका स्वभाव संयोम वियोग नहीं हो सकता क्योंकि आपके लेखानुसार ही ये दोनों विरोधी गुण जड़ और परतन्त्र पागके स्वभावमें कदापि नहीं हो सकते । (प्रकाशक ):