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मन ( गुणकी
यां) कैसे रह सकती हैं। इस संसारको ईश्वर कृत सिद्ध करने के अर्थ किसी समय में इसका प्रभाव (कारण रूपमें होना) सिद्ध करता होगा क्योंकि जब तक संसार कार्य्य मिट्ट न हो जाय तब तक इसका कर्ता कोई कदापि माना नहीं जा सकता और कार्यका क्षय "प्रभूत भावित्वं कार्यस्वम्" है । सावयव शब्द के दो अर्थ हैं एक तो अवयव सहित और दूसरा अवयव जन् यदि आपको अवयव सहित उसका अर्थ इष्ट है तब तो आपका ईश्वर अव
सहित (अनन्त प्रदेशी ) होने पर भी जन्यत्वसे मुक्त है। यदि आपको अवयव जन्य उसका अर्थ इष्ट है तब इस जगत्को जन्यत्वसे युक्त सिद्ध करने के अर्थ उसका किसी समय में भिन्न भिन्न अवयव ( परमाणु ) होना सिद्ध क रिये जीव परिणमनशील होने पर भी जन्यत्व दोष से मुक्त है। शोक कि ह मारे आक्षेपका उत्तर न देते हुए आप विषयसे विषयान्तर में जाते हैं ॥
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स्वामी जी में विषयान्तर में नहीं जाता । आपने सृष्टिको उत्पन्न होने के विषय में कहा था उसका मैंने दलीलसे उत्तर दिया है। दलील देना, दू ष्टान्त देना, और मांगना विषयान्तर नहीं । सृष्टिवनी यह श्रायैसमाजका सिद्वान्त नहीं । श्रार्यसमाज सष्टिको प्रवाह से अनादि मानता है और अनादि पदार्थ बिना हेतुके नहीं होते । जैसे सूर्यके बिना रात दिन नहीं होते इस हो प्रकार सृष्टि और प्रलयका हेतु ईश्वर हैं । सृष्टि और प्रलय यह स्वभावमें विच्छेद नहीं, परन्तु यह क्रियाकै दो फन हैं जो जीवोंके कर्मोंके व्यवधान होते हैं । सूर्यको एक क्रिया गर्मी देना है, परन्तु जिसका मिजाज गर्म है उस को उससे दुःख होता है। जिसका ठण्डा है उसको सुख मालूम होता है ॥ वादिग्जके मरीजी- - जब प्रार्यसमाज सृष्टिका बनना नहीं मानता तो वह अवश्य उसे सदैवसे होना मानता होगा और ऐसा मानने से इम को कोई विवाद नहीं । 'मनादि पदार्थ बिना हेतुके नहीं होते, यह कथन प्राप का बड़ा ही हास्यास्पद है । बतलाइये कि आपके ईश्वर, जीव और प्रकृति ( जो कि तीनों अनादि पदार्थ हैं) का हेतु क्या २ अनादि पदार्थ मोर हेतु "मेरी मां और बांझ कहने के समान है। जबतक कि इस संसारका किसी समय में अभाव, आपके ईश्वरकी सत्ता और उसमें सृष्टि कर्तृत्वको शक्ति सिद्ध न हो तबतक इस संसार के सृष्टि और प्रलयका हेतु ईश्वर है ऐसा कहना ब के पुत्र पुत्रका विवाहोत्सव मनाने के समान कपोलकल्पनामात्र है।
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