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और मखके बाद सृष्टि होती चली आयी है । हम नहीं कहते कि सृष्टि कभी हुई। सृष्टि ऐसी हो चलो छायी है और ऐसी ही चल जायगी जैनियोंके इस कथन से सृष्टिकी उत्पत्ति सिद्ध होती है। सृष्टि स्रावग्रव पदार्थों का समुदाय है । सावयव पदार्थोंकी छः अवस्थाएं प्रत्यक्षमें देखने जाती हैं । जायते वर्द्धते विपरिणम्यते इत्यादि प्रत्येक सावयव पदाप्रथम उत्पन होता है अर्थात् कारण से कार्य रूपमें भाता है, फिर बढ़ता है और फिर उसकी अवस्थामें परिवर्तन होता है। अर्थात् परिणमन होना तीसरा विकार है । जब सृष्टि परियमय शोश है तो इसकी पहिली दो अवस्थाएं भी अनिवार्य हैं। यह जन्यत्वसे रहित नहीं हो सकतीं । क्या । वादी कोई ऐसा उदाहरण दे सकता है कि कोई पदार्थ परिचमन शील हो परन्तु उसका जन्यत्व न हो ?
वादिगजकेसरीजी — क्रियावान् ही गति दे सकता है यह बहुत ठीक है । हमने यह कभी नहीं कहा कि गेंदके लौटने की गति दीवाल से उत्पन्न हुई। हमारा कहना यह था कि गेंदा लौट जाना फेंशने वालेकी क्रियाका फल नहीं वरन दीवाल में टक्कर लगने ( गेंदकी गतिको रोकने) की क्रिया से हुआ । वेदान्त सूत्रानुसार ईश्वरकी स्वाभाविक क्रियामें सृष्टि कर्तृत्व और प्रलय कर्तृत्व के दो विरोधी गुण कदापि नहीं रह सकते ऐसा मैं कई बार कह चुका हूं पर आप उसका समाधान नहीं करते । आपकी ष्टोम शक्तिका दूशान्त विषम है क्योंकि जैसे एक लोहेको सब ओरोंसे समान शक्ति रखने वाले चुम्बक पत्थर खींचें तो बह लोहा टस से मस नहीं हो सकता । उसी प्रकार जब आर्य्यसमाजका शुद्ध- अखख एक रस, सर्व व्यापी और स्वाभाविक क्रिया गुण वाला परमात्मा अपने प्रत्येक प्रदेश से एकसी हरकत देता (क्रिया उत्पन्न करता ) है तो कोई भी परमाणु टस से मस नहीं हो सकता और इस प्रकार सब गुड़ गोवर हो जानेसे संयोग और वियोग परमाणु योंमें न हो सकनेसे न तो कोई चीज वन हो सकती है और न विगड़ हो । यदि दुर्जन तोष म्यायसे थोड़ी देरके अर्थ परमात्माको क्रियासे ही परमाणुओंों में संपोग वियोग होना मानकर पदार्थोंका बनना बिगड़ा माना जाये तो चार अरब बत्तीस करोड़ के प्रलय कालमें (जो कि सृष्टिकालके समान ही संख्या में है।) प्रकृतिके परमाणु कैसे सूक्ष्म (कारण) अवस्था में घेबार पड़े रहें । इत्यादि अनेक दूषर्णो के आने से शुद्ध ब्रह्म की स्वभाविक क्रियामें दो विरोधी परिण
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