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( 36 ) इच्छापूर्वक और दूसरी नियमपूर्वक । इच्छापूर्वक क्रिया जीव की ती है और नियमपूर्वक परमात्माकी, ईश्वरमें क्रिया स्वाभाविक "स्वाभाविकी नामबलक्रिया च.। सष्टि में हरएक क्रिया नियमपूर्वक हो रही है सूर्य चन्द्र श्रादि सबमें नियमपूर्वक क्रिया है । वृक्षादिके एक २ पत्त, नियमपूर्वक क्रिया है। जी पर नियामका लक्ष्य कराती है। सष्ठि और जगत् दोनों शब्द भी अपने बनाने वाले का लक्ष्य कराते हैं सष्टि वह जो बनाई गई हो और जगत् वह जो चले । न कोई पदार्थ अपने आप बन सकता है न चल सकता है। परमाणुओं में गति है नहीं, इसलिये बनाने और चलाने वाला कोई अवश्य होना चाहिये। यदि परमाणुओं में स्वामाविक गति होतो तो उनका संयोग नहीं हो सकता था, क्योंकि स्वाभाविक गतिका भेद सदा बना रहता। जो परमाणु जिससे जितनी दूर पर जा रहा था उतनी ही दूर पर चला जाता । परमाणु ओंमें प्राकार भी नहीं, हरएक कार्य में ३ चीजें होती हैं, एक प्राकृति, दूसरी व्यक्ति, तीमरी जाति। मिट्टी में ईटकी शक्ल नहीं न ईटमें म. कानकी, तब कहांसे भाई । हरएक कहेगा ईटकी शक्न कुम्हारके और मकानको शक्ल इञ्जीनियरके ज्ञानसे, सिद्ध हुआ कि प्राकृति का ज्ञातसे पाती है। नेस्ति से हस्ति नहीं होती, उपादानसे व्यक्ति माती है। जाति नित्य है जगत् प्राकारवाला है, जन्य है, साकार जन्य होता है । यथा घट साकार हैं, जन्य है, परमाणु प्राकार चाल नहीं तब परमाणु ओं में प्राकृति कहांसे पायी । परमा. रमाने आजा दो और परमाण प्रामे सुना यह मार्य भनाजका दावा (सिद्धान्त) नहीं, परमात्मा एक एक पदार्थको लेकर जोड़ता है यह ठीक नहीं। यह दोष एकदेशी और परिजिवन पदार्थ में होता है । परमात्मा सर्व व्यापक है जगत् उसके अन्दर है। अन्दरूनी पदार्थ में गति देनेके लिये हाथ पैर आदि इन्द्रियों को आवश्यकता नहीं । इसी लिये कहा गया है कि "अपाणिपादो जबनो ग्रहोता पश्यत्याक्षः स ऋशोत्य कर्णः । शरीर के घावोंको भरने के लिये जो खून भाता है उसे कौनसा हाथ खींचकर लाता है। ...
वादिगजपरी जी-यह मानना ठीक नहीं कि चुम्बकमें क्रिया नहीं होती क्योंकि उसमें परिपन्दात्मक क्रिया और अपरिस्पन्दात्मक परिणाम दोनों मौजूद हैं जिस समय चुम्बक लोहेको अपनी ओर आकर्षित करता है उस समय उसके परमासुत्रों में परिस्पन्दात्मक क्रिया और सपरिस्पन्दात्मक परिणाम या