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(२९) था। यदि समाजको भबभी लिखित शाखार्थ करनेका हौसला और बाकी रह गया है तो हम उसको फिर भी बैलेख देते कि वह प्रति शीनही लि. खित भी शास्त्रार्थ करके अपने मनके हौसले निकाल ले।
.. समाजको विश्वास रखना चाहिये कि लता कदता वही जिसका कि पत ठीक होने का उसके हदय में निश्चय होता है और जिसका पक्ष ठीक नहीं होता वह घबड़ा जाया करता है।
. पं० दुर्गादत्त जीको पूर्व जैन उपदेशक बतलाना सरासर लोगों को प्रां खों में धन फेंकना है क्योंकि वह पहले भार्यसमाजी थे और उन्होंने समा. जमें ३ वर्ष तक उपदेशनीका काम किया था। जब समको समाज में शान्ति प्राप्त न हुई तब सम्म सि महीने में जैन धर्म की शरण ग्रामीची जैसा कि जैन मित्र, के इ अप्रेल सन् १९९२ ई० के अंक १२ वें में पृष्ठ पर प्रकाशित "मैंने जैनधर्म की शरण क्यों ली, शीर्षक उमके लेख से प्रगट है। वह जैनधर्मके सिद्धान्तोंको अच्छी तरह नहीं जानते थे पर उनका बिर जैन | विद्वानोंसे जैन सिद्धान्तोंके अध्ययन करने का था कि इतने में ही तार ३० जूनके शास्त्रार्थ में भारी पछाड़ खाने से अपने टूटे हुए मानको मरम्मत करनेके अर्थ समाज ने उनको जितिस प्रकार पुनः प्रार्य समाजी बनाने का प्र. यास किया है।
:: तारीख ३० जूनके शास्त्रार्थका क्या परिणाम हुमाया पं० दुर्गादत्त जी ने वेदोंके विषय में क्या कहा यह हमारे और समाजले कहने की बात नहीं हैस को तो वि पबलिक खयंही जानती है अब उसके अन्यथा कहनेसे क्या हो सक्ता है।
जो हो। हमको अब इस प्रकार कागज़ी घोड़े दौड़ा कर अपना व प. बलिकका अमूल्य समय नष्ट करना इष्ट नहीं है अतः हन समाजको लिखित शावार्थ करके भी अपने मनका हौसला निकाल लेनेका मौका देते हैं। ". पूर्ण पाशा तथा दूढ़ विश्वास है कि समाज इस चैलेखको पाते हो तो. रन शालार्थ करने की स्वीकारता प्रदान कर इन लोगोंको पस्न अनगृहीत करेगी। ..
..... . . . . 7. यदि इस विषय में समानका कोई समुचित उत्तर तारीख ४ जुलाई सन् र की शाम तक [जब तक कि हमारी श्री जैन तत्व प्रकाशिनी समा