________________
( ३९ )
यांमिट्ठू बनना इसी को कहते हैं परन्तु इस थोथे ब्राडम्बरोंसे भोले भाले लोग भले ही धोखा न जायें, समझदार तो खूब समझते हो हैं "मानकी म रम्मत" नामक विज्ञापनका हरएक बातका उत्तर होते हुए भी यह लिखना कि उसका निराकरण क्यों नहीं दापा, कितनी धर्ती है।
दरवाजे तक पहुंचाने
श्रीखामीजीने अनेक दलीलों व विपालोंसे भली प्रकार मिठु कर दिया या कि चैतन्य शक्तिको क्रिया अनेक परिणाम वाली होती है इससे ईश्वर में • कुछ विरोध नहीं प्रांता, परन्तु हमारे सरावगी भाइयोंने तो एक मंत्र सीख: रक्खा है कि हरएक बात के पीछे कह देना कि "इसका उत्तर नहीं हुआ यह तो वही मसल हुई कि मुझांजी ! तुमने हराया तो बहुन पर हमने हार नाभी ही नहीं यह लिखना कितना असत्य है कि श्रीखानी दर्शनानन्दनी की इच्छानुसार ही शास्त्रार्थ मौखिक रक्खा गया था । श्री स्वामीजी तथा बाबू मिटुनलालजी वकीलने सभामें कई बार कहा कि शास्त्रार्थ लेखबद्ध हो ताकि किसीको अपनी बात से पलट जामेशा मौका न रहे, परन्तु इन लोगों ने माना ही नहीं, उधर श्रीस्वामी जीने झूठेको उपके का दृढ़ संकल्प कर लिया था, इसी कारण इन लोगोंकी हर एक बातको हो मंजूर कर लिया, इससे बढ़कर निडरता व वैदिक सत्यतापर ढूंढ़ विश्वास पा • होगा कि इन्होंका स्थान, इन्होंका दिया हुआ कुवत, इन्होंका सरावगी प्रधान, इन्होंका रटा हुआ विषय और इन्होंकी सभा में जाकूदे ताकि यह लोग किसी प्रकार भी टालमटोल न कर सकें। अब हारकर लिखते हैं कि लिखित शास्त्रार्थ फिर कर लो, सो हमारा तो चैलेज पहिलेसे ही मौजूद है कि जब चाही सत्यासत्य निर्णयके लिये शास्त्रार्थ करलो । यह लोग लिखते हैं कि उहलता कूदता वही है जिसका पक्ष ठीक हो और जिसका पक्ष ठीक नहीं हो तो वह घबरा जाता है तो यह तो कहर से कहर जैनी भाई भी क हते हुए सुनाई दिये कि स्वामी जो कैसी शान्ति और धीरज से अन्त तक उत्तर देते रहे, परन्तु पंडित गोपालदासजी की तरह उन्होंने धैर्ध्वको नहीं डोड़ा । उखलना कूदना सत्यकी निशानी नहीं, दम्मको है, क्योंकि पीचा माजे पंचा
बदि do दुर्गादत्त जी जैम उपदेशक नहीं थे और जैन सिद्धांतों को शब्दो तरह नहीं जानते थे तो उनके द्वारा जैनमतको वैदिक धर्मसे तुलना कर का: विज्ञापन क्रिस बिरले पर दिया गया था । यह विज्ञापत्र झूठेके मुंहपर
e