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( दल ) हमारे उसी दोषका समर्थन हुआ। ऐसा होनेसे आप जो ईश्वर के स्वाभाविक क्रिया के दो संयोग और वियोग फल बतलाते थे वे दोनों न रहे केवल एक ही रहा चाहे सृष्टि कर्तृत्त्व मानिये चाहे प्रलय कर्तृत्व * । “ बदलना भी
* स्वामी दर्शनानन्द जी के गुरु स्वामी दयानन्द जी सरस्वती महाराजने ईश्वरकी विज्ञान वल और क्रियाका प्रयोजन ( फल ) जगतकी उत्पत्ति माना है और उसकी सिद्धिमें आप अपने सत्यार्थ प्रकाशके २२४ पृष्टपर लिखते हैं कि “जो तुमसे कोई पूंछे कि आंख के होनेमें क्या प्रयोजन है ? तु यही कहोगे देखना । तो जो ईश्वरमें जगत्की रचना करनेका वि ज्ञान बल और क्रिया है उसका क्या प्रयोजन विना जगतकी उत्पत्ति क रनेके ? दूसरा कुछ भी न कह सकोगे और परमात्मा के न्याय धारण दया आदि गुण भी तभी सार्थक हो सकते हैं जब जगतको बनावे" यद्यपि आप आगेकी लाइन में " उसका अनन्त सामर्थ्य जगत्को उत्पत्ति स्थिति प्रलय और व्यवस्था करने से ही सफल है" ऐसा लिखकर स्थिति प्रलय और व्यवस्थाको भी ईश्वरके विज्ञान, दल और क्रियाका फल मानते हैं परन्तु इनमें से स्वाभाविक आप केवल सृष्टिकर्तृत्वको ही मानते हैं क्योंकि उसके आगे ही आप कहते हैं कि “जैसे नेत्रका स्वाभाविक गुण देखना है बैसे परमेश्वरका स्वाभाविक गुण जगत्को उत्पत्ति करके सब जीवोंको म संख्य पदार्थ देकर परोपकार करना है" । जब सृष्टि कर्तृत्त्व स्वाभाविक रहा तव उसका उल्टा प्रलय कर्तृत्व वैभाविक स्वतः सिद्ध हैं । वैभाविक पर निमित्त जन्य होता है अतः प्रलय में कारण या तो जीवों के कम्मोंका व्यंवधान ( जैसा कि स्वामी दर्शनानन्द जी कहते हैं ) होगा या स्वामी द यानन्द जी सरस्वतीके मतानुसार सृष्टिका सदैव तक स्थिर न रह सक ना । दोनों ही हेतु पर्याप्त नहीं क्योंकि जीवोंके कमौका यह फल हो कि वो चार अरव वत्तीस करोड़ वर्ष तक ( जो कि सृष्टि कालके समान ही संख्या में हैं ) सुषुप्ति अवस्था में ( ईश्वरकी पक्की हवालात में उसके न्याय की प्रतिक्षा करते हुए ) निष्क्रिय रहै और ईश्वर उनके कर्मोके अनुसार उनको भला बुरा फल देनेका अपना स्वाभाविक कार्य वन्द रक्खे यह सम्भव नहीं । द्वितीय यदि सृष्टि सदैव तक स्थिर नहीं रहे सकती तो इस से ईश्वरकी क्रियाका कच्चापन सिद्ध होता है और यह स्वामीजी के म तानुसार ही नित्य पदार्थके गुण कर्म स्वभाव नित्य होनेके विरुद्ध है और
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