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(६४ ) . भव जो प्रार्यसमाज अपने " अब पछताये होत का जब सुनगई सारी पोल » शीर्षक विज्ञापन में जैनियोंपर. असभ्यला और गल मपास करनेका दोषारोपण कर पूर्व निश्चित नियमके विरुद्ध मजिस्ट्रेटको आज्ञा प्राप्त करने का अडंगा लगाकर शास्त्रार्थ को टालना चाहता है सो टोक नहीं। जैनियों की मोरसे अभीतक असभ्यताका कोई व्यवहार नहीं हुआ और इसकी साक्षी वे लोग भले प्रकारसे दे सकते हैं जो कि श्रीजैनकमार सभाके प्रथम वार्षिको. त्सव पर स्वामी दर्शनानन्दजी और पं० राजदत्तगी शास्त्रीके मौखिक शास्त्रार्थ के समय उपस्थित थे। परसों भी जैनलोग आर्यसमाजके अनेक असभ्य व्यव. हारों पर सर्वथा शान्त रहे और अन्त में जयजिनेन्द्र जय जिनेन्द्र कहकर समाज भनमसे क्लेमाये । जयजिनेन्द्र जयजिनेन्द्र कहना असभ्यता नहीं वरन वह शार्यसमाजको नमस्ते या सनातनधर्मियोंके जय रामजी और जय गोपालनी के समान परस्पर भादर सत्कारमें व्यवहार किया जाता है। ..
निस्सन्देह असभ्यताका व्यवहार आर्यसमाजकी ओरसे ही हो रहा है जैसा कि सर्व साधारण को उनके अपभ्य और अश्लील विज्ञापनोंसे भलीभांति प्रगट होगा । वे यह भी जानते होंगे कि मार्यप्तमागियोंने हमारी ६:जलाई की सभामें अपने नोटिस बांटते हुए कितनी गड़बड़ी डाली और परसों कभी फर्श उठाकर कभी मिट्टी डालकर और कभी किसीसे मिलकर कैमा असभ्यता. का व्यवहार किया और उसको हमारे जैन भाइयोंने कैसी शान्तितासे सहन किया ।
हमारी श्रीजैनतत्वप्रकाशिनी सभा शालार्थके लिये सर्वदा उद्यत रहती है। जैसा कि उसके स्वामी श्रीदर्शनानन्दजी और पण्डित यजदत्तनी शास्त्रीके मौखिक शास्त्रार्थ समय बिना किसी विशेष नियमके तय किये हुए उनसे शास्त्रार्थ करने और अपने लिखित शास्त्रार्थ के सर्व नियम, आर्यसमाजवी पर तय करनेके लिये छोड़देनेसे स्वयं प्रगट है।
यद्यपि हम लोग पूर्व निबित नियमके विरुद्ध किसी दूसरे अडंगेको मा. गने के लिये बाध्य न थे, परन्तु इस भयसे कि कहीं ऐसा न हो कि प्रार्थसमाज इसी वासनको लेकर शास्त्रार्थ से दलजाय हम लोगों को भार्यवमाजके प्रस्तावनानुसार ही अजिस्ट्रेट साइम बहादुरकी, प्राज्ञा लेकर शास्त्रार्थ करना स्वीकार है॥
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