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(५०) जैनियोंके प्रबन्धसे सन्तोष नहीं । कुछ वाद विवाद होनेके पश्चात् दूसरा मियम इस प्रकार निश्चित हुआ कि "शास्त्रार्थ पछिलक तौर पर ममैयोंके नौहरेमें होगा और उसका यथोचित प्रवन्ध आर्यसमाज करेगा”। इस नियम | के तय हो जाने पर वैरिष्टर साहबने यह कहा कि जब प्रबन्ध हम लोगोंके हाथ है तब हम लोग टिकट निकालेंगे और जिसको चाहेंगे उसको वह दे. कर भीतर आने देवेंगे। इसपर जैन समाजकी ओर से विरोध किया गया और कहा गया कि जब शास्त्रार्थ पब्लिक होना निश्चित हो चुका है तब ऐसा नहीं हो सकता कि आप उसमें किसी को पानेसे रोके और अपने मर्जी के भादमी बुलावें यदि ऐसा ही करना है तो यह शास्त्रार्थ प्राइवेट होगा म कि पब्लिक । वैरिष्टर साहबने कहा कि यदि हम ऐसा न करेंगे तो इस ट्ठी हुई पब्लिकके उपद्रवका जिम्मेवार कौन होगा। कुंवर साहबने कहा कि जब जैन कुमार सभाके लौडोंने इससे पूर्वके दो शास्त्रार्थों में पब्लिकका प्रब. न्ध बड़ी उत्तमता और शान्तिसे कर लिया तब आपसे योग्य वकील वैरिष्टर और सज्जन आर्य पुरुष वैप्ता क्यों न कर सकेंगे। वैरिष्टर साहबने कहा कि लौहोंने जो इन्तिजाम किया उसे हम तसलीम करते हैं और हम लौड़ोंसे भी गये वीते हैं लोड़ों के वरावर हमसे इन्तिजाम नहीं हो सकता जिनको मुनासिव समझेंगे उनको ही बुलावेंगे सबकी जिम्मेवारी नहीं ले सकते । रहा पुलिसका इन्तिजाम सो हमको प्रसन्द नहीं हम लोगोंको खुद अपने पैरों खड़े होकर अपना इन्तिजाम करना सीखना चाहिये। इसपर बहुत वाद विवाद होकर टिकट द्वारा लोगों को भीतर घुसने देने का प्रस्ताव रद्द किया गया ।
तीसरा नियम शास्त्रार्थ के विषय का था । आर्यसमाज ने "ईश्वर का पष्टिकर्तृत्व" और "मोक्ष' यह दो विषय उपस्थित किये। कंवर साहब ने कहा कि एक विषय के निर्णय हो जाने पर दूमरो लेना चाहिये नहीं तो घ. सड़बा होजाने से एक भी तय न हो सकेगा। कुछ देर तक विवाद होने के पश्चात् यह नियम इस प्रकार निश्चित हुआ कि "शास्त्रार्थ का विषय यह है कि ईश्वर सष्टिका कर्ता है या नहीं जिसमें कि आर्यसमाज का पक्ष यह है कि इस सष्टि का कर्ता ईश्वर है और जैनियों का पक्ष यह है कि ईचर सष्टि का कर्ता नहीं है।
चौचा नियम शास्त्रार्थ के समय का था। आर्य समाज का कहना यह