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माठवां दोष हम लोगों के परिणाम और गुण में भेद न समझने का है। परन्तु विश्वास रहे कि हम लोग भली भांति जानते हैं कि गुस के अवस्था से अवस्थान्तर होने को हो परिणमन ( परिणाम होना ) कहते हैं। परि. णमन दो प्रकार का होता है एक स्वभाव रूप और दूसरा विभाव रूप । शुद्ध द्रव्यका परिणमन उभी रूपमें एकसा हुमा करता है और प्रशुद्ध द्रव्य का निमित्तानुसार । आर्य समाज का ईश्वर शुद्ध द्रव्य है अतः उसकी स्वाभाविक क्रि. या में सृष्टि कर्तृत्व और प्रलय कर्तृत्व रूप विरोधी परिणामन कदापि नहीं हो सकता । यदि यह कहो कि जिस प्रकार एक मिल में टीम की शक्ति मि. न भिन्न कार्य करती है उसी प्रकार ईश्वर रूपी ष्टीम संसार रूप मिल में प्र. कृति की भौतिक मशीनों से अनेक प्रकार के कार्य करती है । सो यह दृष्टा. न्त सर्वथा विषम है क्योंकि जिस प्रकार एक लोहे को सब ओरों से समान शक्ति रखने वाले चम्बक पत्थर खोचे तो वह लोहा टससे मस नहीं हो सक्ता । उसी प्रकार जब भार्य समाज का शुद्ध प्रखण्ड, एक रस, सर्व व्यापी और स्वाभाविक क्रिया गुणवाला परमात्मा अपने प्रत्येक प्रदेशसे एमसीह. रकत देता (क्रिया उत्पन्न करता ) है तो कोई भी परमाणु टस से मस नहीं हो सत्ता और इस प्रकार सक गुण गोवर हो जाने से संयोग और वियोग परमायनों में न हो सकने से न तो कोई चीज़ वन ही सकती है और न वि. गड़ ही। यदि दुर्जन तोष न्याय से थोड़ी देर के अर्थ- परमात्मा को किया से ही परमाणुओं में संयोग वियोग होना-मानकर पदार्थों का वनमा क्मिडना माना जाय तो चार अरब बत्तीस करोड़ वर्षों के प्रलय काल में ( जो कि सष्टि काल के समान ही संख्या में है) प्रकृति के परमाण कैसे सूक्षम (कारण) अवस्थामें वेकार पड़े रहैं । इत्यादि । अनेक दूषणों के आने से शुद्ध ब्रह्मकी स्वाभाविक क्रियामें दो विरोधी परिणमन (गुण की पर्याय) कैसे रह सकती है। ___ इस संसारको ईश्वर कृत सिद्ध करने के अर्थ किसी समय में इसका प्र. भाव ( कारण रूपमें होना ) सिद्ध करना होगा क्योंकि जब तका संसार कार्य सिद्ध न हो जाय तव तक इसका कर्ता कोई ईश्वर कदापि माना नहीं जा स. क्ता और कार्य का लक्षण "अभूत भावित्त्वं कार्यत्वम् , है।
नवां दोष हम लोगों के पास अच्छे लेखक न होनेके कारण लिखित शा. स्त्रार्थ से इन्कार करने का अपराध स्वयं स्वीकार करने का है पर मालूम नहीं