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(९१) भावमें भेद कहाता है। रोशनी कांचके रंगों के समान बदलती दिखलाई देती है वह रोशनीका धिकार नहीं।
वादि गज केसरी जी-यद्यपि ज्ञान जीवका स्वाभाविक गुगा है परन्तु संसारावस्थामें वह जीवको अशुद्धताके कारण कर्म मलसे आच्छादित होकर विभाव रूप परिणमता रहता है। सुषुप्ति अवस्थामें भी ज्ञान जीवमें मौजद है पर निद्रा कर्मसे आवृत होनेके कारण वह जीवको जागृत अवस्था के समान अपना कार्य सम्पादन नहीं कर सकता । प्रापका यह दृष्टान्त ईश्वरमें नहीं घटता क्योंकि अशुद्ध जीवमें तो पर निमित्त से अन्य भांति हो भी सेकता है पर मापके शुद्ध एकरस अखण्ड ईश्वर की क्रिया में विरोधी फल कदा. पि नहीं हो सकता । जब कि किया आप अपने ईश्चरका स्वभाव मानते हैं
और वह प्रलयमें भी होती है तथा उस किया के संयोग और वियोग ये दो फल आप कहते हैं तो बतलाइये कि प्रलय काल में आपके ईश्वरकी स्वाभाविक किपाका क्या कन होता है ? संयोग और वियोग तो आप मान नहीं सकते क्योंकि जब प्रलय अवस्थामें प्रकृतिका प्रत्येक परमाण भिन्न भिन्न कारण अवस्था में निष्क्रिय पड़ा है तब उसमें संयोग तो होता नहीं क्योंकि यदि संयोग मानों तो प्रकृति कारण अवस्थामें न होकर कार्य अवस्था में हो जायगी और वि. योग भी नहीं होता क्योंकि जब प्रथम ही प्रलय होने के समय प्रत्येक परमासा कारण अवस्थामें होकर भिन्न भिन्न हो गया है तो अब वियोग काहेका होगा? जब ऐसा है तब क्या प्रलयास्थामें आपके ईश्वर की क्रिया निष्फल हो जाती है ? हम मानते हैं कि इस संसारको प्रत्यक वस्तु परिणमन शील है और वह रूपान्तर हुआ करती है तथा रूपान्तर विना. क्रिया और परिशाम या केवल परिणाम नहीं हो सकता और समस्त पदार्थों में रुपान्तर होने में क्रिया और परिणाम या केवल परिणाम बराबर होता रहता है। पर इस से यह कैसे सिद्ध होता है कि उस क्रिया का कर्ता ईश्वर है या उस में ईश्वर का निमित्त है ? बनना बिगड़ना दोनों एकसे नहीं इसी अर्थ वह ईश्वर की एकसी क्रिया के फल कदापि नहीं हो सकते, 'जीवात्मा दिन में सजाग रहता है रात्रि में ज्ञान रहित, ऐसा कहना अत्यन्त हास्यास्पद है क्योंकि पा रात्रि में जीवात्मा के ज्ञान का अभाव होजाता है ? स्वभाव में भेद कभी नहीं होता और यदि होता है तो वह स्वभाव नहीं वरन वि. भाव है। आपके रोशनी व कांच के रंगो के दृष्टान्तसे यह सिद्ध होता है कि